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लॉकडाउन की बलि

वायरस तो डरावना पर उसकी रोकथाम के अनियोजित उपायों ने लील लीं कई जिंदगियां
प्रवासी मजदूर/नजरिया

लॉकडाउन की भयावह त्रासदी में से एक औरंगाबाद में 16 मजदूरों की ट्रेन से कटकर मृत्यु है। पटरी पर बिखरी सूखी रोटियों की तसवीर भारत के लाखों मजदूरों और गरीबों की भूख और पीड़ा को दर्शाती है, जो अनियोजित लॉकडाउन की बलि चढ़ गए।

29 मार्च से लेकर अब तक समाचार पत्रों और ऑनलाइन समाचार पोर्टल में प्रकाशित लॉकडाउन के कारण हुई मौतों के आंकड़े जुटाकर हमने एक डेटाबेस तैयार किया है। डेटाबेस के हिसाब से 11 मई तक 418 से ज्यादा लोग लॉकडाउन के कारण मारे गए हैं। मरने वालों में मजदूरों और हाशिए पर रह रहे लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। कोरोनावायरस अमीर और गरीब में अंतर न करता हो, लेकिन लॉकडाउन के दुष्प्रभावों का बोझ गरीब तबके को ही उठाना पड़ रहा है।      

डेटाबेस से पता चलता है कि 46 लोगों की मौत भूख और लॉकडाउन के कारण पैदा हुई आर्थिक कठनाई के कारण हो गई। इनमें से एक झारखंड के गढ़वा की 70 वर्षीय सोमरिया थीं, जिन्होंने तीन दिनों तक खाना न मिलने से दम तोड़ दिया। मरने वालों में अलीगढ़ के 23 वर्षीय मजदूर मोहम्मद हैदर भी थे, जो काम बंद हो जाने के कारण अपने परिवार का भरण-पोषण नहीं कर पा रहे थे और इस तनाव ने उनकी जान ले ली। पैदल चलने के कारण हुई थकान, घर पहुचने में आई दिक्कतों और जरूरी सेवा के लिए दिनोदिन कतार में लगने से कम से कम 26 लोगों की मौत हो गई। छत्तीसगढ़ की 12 साल की जमालो आंध्र प्रदेश से अपने गांव जाने के लिए पैदल ही निकल पड़ी। गांव से सिर्फ 11 किलोमीटर दूर थकी हुई जमालो ने आखिरी सांस ली। वह वहां खेतों में काम करने गई थी। इसी तरह उत्तर प्रदेश के बदायूं में शमीम बानो, दो दिन तक राशन के लिए कतार में लगी रहीं और तेज धूप और थकान से कतार में लगे-लगे ही गिर पड़ीं और उनकी मृत्यु हो गई। उनके पति दिल्ली में फंसे हुए थे।

लॉकडाउन के चलते जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं, जो कोरोना से संबंधित नहीं, लेकिन उतनी ही गंभीर हैं, ठप पड़ी हुई हैं। इसका सबसे बड़ा नुकसान उन 40 लोगों को हुआ जिनकी इलाज की कमी या देरी से मौत हो गई। अलीगढ़ के 45 वर्षीय संजय राम चाय बेचकर परिवार पालते थे। लॉकडाउन के कारण उनका टीबी का इलाज जारी नहीं रह सका और तबीयत बिगड़ने पर बिना इलाज के उनकी मौत हो गई।

डेटाबेस में सबसे ज्यादा मौतों की संख्या आने-जाने की स्वतंत्रता न होने, अकेलेपन और संक्रमण के डर से हुई आत्महत्याओं की है। ऐसी 83 मौतों में से एक मौत उत्तर प्रदेश के 45 वर्षीय मजदूर राजू लोधी की है, जो गुजरात के राजकोट में फंसे हुए थे। घर जाने में असमर्थ और खत्म होते राशन से परेशान होकर उन्होंने अपनी जान ले ली। ये मौतें जमीनी स्तर पर फैलती नाउम्मीदी और डर का संकेत देती हैं। ये मौतें लॉकडाउन से हुई मानवीय क्षति के पैमाने को बताती हैं। ध्यान रहे कि डेटाबेस में सिर्फ मीडिया में प्रकाशित हुई मौतें ही हैं और हर मौत मीडिया में नहीं आती। जाहिर है, कई प्रकाशित मौतें इस डेटाबेस से भी छूट गई होंगी। मौतों की असल संख्या और भी अधिक होगी। मौतों से भी कई गुना अधिक है उन लोगों की संख्या जिन्हें लॉकडाउन में अनगिनत परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।

दुनिया भर के देश कोरोना वायरस के संकट से जूझ रहे हैं। लेकिन शायद ही किसी देश ने भारत जितना कड़ा लॉकडाउन किया है। ज्यादातर देशों ने आपसी दूरी के साथ-साथ बेहतर राहत के उपाय, सुरक्षित आने-जाने की सुविधा और अन्य जरूरी सेवाओं पर जोर दिया है। लेकिन भारत में यह होता नहीं दिख रहा। उल्टा, राज्य सरकारें उन श्रम कानूनों को भी हटाने में जुटी हैं, जिनसे मजदूरों को थोड़ी सहूलियत मिलती आई है। यह भी साफ हो गया है कि भारत में रेल और अन्य सरकारी सेवाएं मजदूरों के लिए नहीं, बल्कि शहरों और कारखानों के फायदे के लिए हैं।  

लॉकडाउन से हुई त्रासदी की एक बड़ी वजह भारत की गहरी गैर-बराबरी है। आमतौर पर मजदूरों और गरीबों की जरूरतें और प्राथमिकताएं सरकारी नीतियों में कम ही दिखती हैं। लेकिन बिना सहयोग के इस लॉकडाउन में इन जरूरतों को खुलेआम कुचला जा रहा है। 

(लेखिका अमेरिका की एमोरी यूनिवर्सिटी में शोधकर्ता हैं और भारत में स्वास्थ्य और गैर-बराबरी पर काम करती हैं)

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लॉकडाउन के कारण भारत में 11 मई तक 418 से ज्यादा मौतें दर्ज की गईं। इनमें ज्यादातर मजदूर या हाशिए पर रह रहे लोग हैं। अव्यवस्था ने इनकी जान ले ली

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