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किसान यूनियन की ‘वापसी’

हरिद्वार से चली किसान यात्रा पर सरकार की सख्ती से उपजी नाराजगी लोकसभा चुनावों के पहले किसान एजेंडे की भी जोरदार वापसी के संकेत
किसान क्रांतिः दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर दिल्ली में घुसने से रोकने के लिए पुलिस का बल प्रयोग

भारतीय किसान यूनियन के नेतृत्व में अपनी मांगों के लिए हरिद्वार से 23 सितंबर को चलकर दो अक्टूबर को दिल्ली में राजघाट पहुंचने वाली किसान क्रांति यात्रा को दिल्ली बॉर्डर पर रोका गया। देश के आठ राज्यों से करीब तीस हजार किसानों की यह यात्रा जब दिल्ली-उत्तर प्रदेश बॉर्डर पर पहुंची तो उसे रोकने के लिए पुलिस ने आंसू गैस, वाटर कैनन, रबर बुलेट और लाठी चार्ज का उपयोग किया। यह एक बड़ी विडंबना ही रही कि जो महात्मा गांधी किसानों के आंदोलनों की अगुआई करते रहे थे और कई मौकों पर खुद की पहचान किसान के रूप में देते थे, उनकी 150वीं जयंती की शुरुआत के दिन किसानों को उनके समाधि स्थल पर जाने से रोकने के लिए सरकार ने बल प्रयोग किया।

हालांकि यहां इतिहास खुद को दोहरा रहा था। बात करीब 30 साल पहले 1988 की है। दिवंगत महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन किसानों की मांगों के लिए दिल्ली में बोट क्लब पर रैली करने वाली थी। उसके लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश से बड़ी संख्या में किसान दिल्ली आ रहे थे। उनको दिल्ली के लोनी बॉर्डर पर रोकने की कोशिश की गई। किसान नहीं रुके पुलिस ने फायरिंग की और दो किसानों की जान चली गई। इसके बावजूद किसान वोट क्लब पर आए और 1988 की वह रैली किसानों की अब तक की दिल्ली में सबसे बड़ी रैली थी। सप्ताह भर से ज्यादा तक किसानों ने राजपथ को अपने कब्जे में रखा था। उस रैली के चलते उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी को अपनी मां इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि पर रैली का स्थान बदलना पड़ा और रैली लालकिला के पीछे के मैदान में करनी  पड़ी थी।

यह भी संयोग है कि 1984 में राजीव गांधी 415 लोकसभा सीटें जीतकर सत्ता में आए थे। फिर भी 1989 के चुनाव में कांग्रेस की सरकार चली गई थी। उसके 30 साल बाद 2014 में पहली बार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में किसी एक दल को लोकसभा में बहुमत मिला। उनकी सरकार ने भी अपने अंतिम साल में किसानों पर बल प्रयोग कर नाराजगी मोल ले ली। इस पूरे घटनाक्रम को जोड़ें तो पिछले दो दशकों में कमजोर पड़ गए किसान आंदोलन के लिए 2 अक्टूबर की किसान क्रांति यात्रा से नए संदेश उभरते हैं। पुलिस के बल प्रयोग के बावजूद अपनी मांगों के लिए अड़े रहना और आधी रात के बाद सरकार की उन्हें दिल्ली में प्रवेश कर किसान घाट पर जाने की इजाजत के मायने साफ हैं कि भारतीय किसान यूनियन की वापसी हो गई है।

सरकार ने पिछले कुछ बरसों में किसान संगठनों की ताकत को काफी हल्के में लेना शुरू कर दिया था। इसकी वजह भी थी कि पिछले धरने-प्रदर्शनों में किसानों की उतनी ताकत दिख नहीं रही थी। लेकिन दस दिन में दिल्ली के दरवाजे पर पहुंची इस यात्रा में किसानों की तादाद लगातार बढ़ती गई। साथ ही सरकार की कथाकथित किसान हितैषी नीतियों और फैसलों की पोल भी किसानों की नाराजगी से खुलती दिखी। इसमें उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, पंजाब, तमिलनाडु, राजस्थान और दिल्ली के साथ तमाम राज्यों के किसान शामिल थे। लेकिन मांगों के चार्टर में कई बड़ी मांगें उत्तर प्रदेश से थीं। इसमें गन्ने के बकाया भुगतान में तेजी, एम.एस. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक सी-2 लागत पर 50 फीसदी मुनाफे के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करना, दस साल से पुराने ट्रैक्टरों पर एनजीटी के आदेश को हटाना, डीजल की कीमतों में कमी, फसल बीमा योजना में बदलाव, मनरेगा को खेती से जोड़ना, बिजली की दरों को कम करना, कृषि इनपुट व उपकरणों पर जीएसटी दरों को कम करना, साठ साल की उम्र के बाद किसानों को पेंशन देना जैसी 11 मांगें शामिल थीं। जाहिर है, सरकार सभी मांगें मानने की न तो स्थिति में थी और न ही तैयार थी। इसलिए उसने बीच का रास्ता निकाला और कुछ मांगों पर सहमति और कुछ पर कमेटी बनाने की बात की। मौजूदा सरकार में किसानों के साथ बेहतर रिश्ते रखने वाली छवि के चलते केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के आवास पर उनकी मौजूदगी में दोनों पक्षों की बैठक हुई। बैठक के बाद केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत और उत्तर प्रदेश के दो मंत्री सुरेश राणा और लक्ष्मीनारायण चौधरी को किसानों के बीच भेजा गया। वहां गजेंद्र सिंह शेखावत ने बैठक के फैसलों की जानकारी तो दी लेकिन अपनी सरकार का गुणगान भी शुरू कर दिया।

लिहाजा, किसान नाराज हो गए और मंत्री को असहज स्थिति का सामना करना पड़ा। उसके बाद ही किसान यूनियन अध्यक्ष नरेश टिकैत ने कहा कि सरकार ने हमारे ऊपर लाठी चार्ज कर अत्याचार किया है और हमारी सभी मांगें नहीं मानी गई हैं। उन्होंने यह भी कहा कि अगर सरकार हमारी मांगे नहीं मानती है तो हमारे सामने 2019 में सरकार को सबक सिखाने का विकल्प है। असल में वे यात्रा में आए किसानों की भावनाएं भांप कर ही बातें कर रहे थे।

खतौली से आए किसान विपिन ने आउटलुक को बताया, “राजनैतिक रूप से केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को खामियाजा भुगतना पड़ेगा। हमें बार्डर पर ऐसे रोक दिया गया जैसे यह भारत-पाकिस्तान का बार्डर हो। क्या हम पाकिस्तान से आए हैं और दिल्ली भारत है जहां हम नहीं जा सकते हैं? हम किसान हैं और इसी देश के नागरिक हैं। क्या हमें राजघाट तक जाने का हक नहीं है? उल्टे हमारे ऊपर लाठियां चलाई गईं।” विपिन का यह रुख वहां मौजूद हजारों युवा और बुजुर्ग किसानों की भावनाओं की अभिव्यक्ति थी। इसी मुद्दे पर भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने आउटलुक से कहा, “हम इस बेइज्जती को बरदाश्त नहीं कर सकते हैं। दस दिन पहले हरिद्वार से चली किसान क्रांति यात्रा शांतिपूर्ण तरीके से यहां तक पहुंची है तो राजघाट तक हमारे शांतिपूर्ण मार्च पर पाबंदी का कोई तुक नहीं है। हम उत्तर प्रदेश बार्डर से वापस नहीं जाएंगे। जहां तक मांगों का सवाल है तो कुछ मांगों पर सहमति है लेकिन सभी मांगों पर सहमति नहीं बनी है।”

दो अक्टूबर को देर रात तक चली रस्साकसी के बाद सरकार ने आधी रात के बाद किसानों को दिल्ली जाने की अनुमति दी। यूनियन के महासचिव युद्धवीर सिंह ने आउटलुक को बताया कि हम इस बात के लिए अड़े थे कि ट्रैक्टर-ट्रालियों पर ही किसान राजघाट जाएंगे। आखिर में तीन अक्टूबर की सुबह करीब एक बजे किसानों को दिल्ली में प्रवेश का रास्ता साफ हुआ और हम लोग किसान घाट पर पहुंचे वहां श्रद्धासुमन अर्पित कर किसान अपने घरों को चले गए। यूनियन अध्यक्ष नरेश टिकैत को किसानों के एक छोटे समूह के साथ राजघाट जाने की अनुमति दी। “किसानों की ताकत के चलते ही सरकार ने  दिल्ली में प्रवेश की अनुमति दी। यह बात भी साफ है कि हमारी मांगें अभी भी कायम हैं।”

इस पूरे घटनाक्रम में यह बात साफ हो गई है कि किसान सरकार के साथ अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिए संगठित हो रहा है। लंबे समय बाद इतनी संख्या में किसानों का दिल्ली आना नीति-निर्धारकों, राजनीतिक दलों और शहरी लोगों पर अपनी छाप छोड़ गया है। भले ही भाजपा के कुछ प्रवक्ताओं ने झेंप उतारने के लिए इसे राजनीति से प्रेरित भीड़ और इसमें असामाजिक तत्वों के होने जैसे आरोप लगाए हों, लेकिन दिल्ली-उत्तर प्रदेश बार्डर पर देश के दूर-दराज वाले स्थानों से आई महिला किसानों का वहीं ईंटों के चूल्हे बनाकर खाना बनाना शायद सरकार के उज्‍ज्वला वाले विज्ञापन की कलई खोलने जैसा तो था ही। साथ ही, दिन की झड़प और पुलिस की मार झेलने के बावजूद करीब 30 हजार किसानों का शांतिपूर्वक धरने पर बने रहना और फिर चुपचाप घर लौट जाना यह संकेत दे गया है कि किसान अपने हितों के लिए शांतिपूर्वक लड़ने की क्षमता रखता है। 2019 के लोकसभा चुनावों में इसके राजनीतिक परिणाम भी दिखना तय है।

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