Advertisement

नोटबंदी: सवाल जिनके जवाब सरकार और रिजर्व बैंक को देने होंगे

30 और 31 अगस्त के सरकारी आंकड़े आर्थिक मोर्चे पर सरकार के लिए कई सवाल लेकर आये हैं और यह सवाल नोटबंदी से जुड़े हैं जिन पर सरकार और रिजर्व बैंक को सफाई देनी चाहिए।
नोटबंदी: सवाल जिनके जवाब सरकार और रिजर्व बैंक को देने होंगे

पिछले साल आठ नवंबर की शाम को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र को संबोधित करने का फैसला लिया और 500 और एक हजार रुपये की वैल्यू के करेंसी नोट अवैध घोषित कर दिये गये। काले धन को वापस लाने की दावे के साथ सत्ता में आये मोदी ने इस कदम का काले धन को समाप्त करने की दिशा में सबसे बड़ा कदम बताया। जबकि इस घोषणा के साथ ही देश और दुनिया के अर्थविदों ने इसे एक घातक आर्थिक कदम बताया था। लेकिन सैकड़ों लोगों को कतार में लगकर अपनी मेहनत की कमाई को बैंक से निकलाने में जान गंवानी पड़ी। करोड़ों मानव श्रम दिन बरबाद हुए और देश की अर्थव्यवस्था लगातार कमजोर होती गई। नतीजा हमारे सामने है लेकिन तथ्यों को झुठलाने के लिए नये मानक तय कर दिये जाते रहे हैं। यही वजह है कि नोटबंदी के बाद करीब दो दर्जन अधिसूचनाएं जारी की गई थी जो आये दिन लोगों को भ्रमित कर रही थी। लेकिन इस सबका असर लोगों की रोजी रोटी और कारोबार पर साफ दिख रहा था।

अब दो दिन में दो तरह के आंकड़े इस बात के गवाह बन गये हैं कि सरकार और रिजर्व बैंक का नोटबंदी का फैसला किस तरह से घातक बन गया। तमाम तरह की टेक्नोलॉजी के दौर में भारतीय रिजर्व बैंक को यह बताने में करीब दस माह लग गये कि पुरानी करेंसी के कितने नोट वापस आये। लेकिन देर से ही सही 30 अगस्त को उसने बताया दिया कि करीब 99 फीसदी पुराने नोट वापस आ गये और करीब 16 हजार करोड़ रुपये के नोट नकली पाये गये। लेकिन इसे पकड़ने के लिए करीब 21 हजार करोड़ रुपये खर्च कर दिये गये। यह कौन का इकोनामिक्स का सिद्धांत है। साथ ही हो सकता है कि कुछ पैसा पाइपलाइन में रह गया हो और कुछ लोग ऐसे हैं जो जायज करेंसी भी सरकार के हर रोज बदलने नियमों के चलते जमा नहीं करा सके हों। यह बातें बहस के बीच बनी रहेगी।

लेकिन जिस इकोनॉमी की गुलाबी तसवीर बताये हुए प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री नहीं थकते हैं और हार्ड वर्क को हार्वर्ड के ज्ञान से बेहतर समझते हैं। वह इस समय सबसे कम विकास दर के दौर से गुजर रहा है। चालू वित्त वर्ष (2017-18) की पहली तिमाही (अप्रैल से जून) के 31 अगस्त को जारी हुए आंकड़े इस हकीकत पर मुहर लगाते हैं। इस दौरान सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर 5.7 फीसदी रही है। जो पिछले वित्त वर्ष की अंतिम तिमाही की 6.1 फीसदी की दर से भी काफी कम है। यानी रिकवरी काफी दूर है। वैसे भी अर्थविदों ने साफ किया था कि  नोटबंदी का असर दो से तीन तिमाही तक रहेगा। इकोनामिक सर्वे में भी नोटबंदी के नुकसान की बात कही गयी। इस लेखक के साथ एक बातचीत में मुख्य आर्थिक सलाहकार ने स्वीकार किया था कि यह असर पड़ना तय है। वैसे जीडीपी पर एक फीसदी तक प्रतिकूल असर बात कही जाती रही है। जो करीब सवा लाख करोड़ रुपये बैठती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले साल समान अवधि में विकास दर 7.9 फीसदी रही थी। यानी पिछले साल की पहली तिमाही के मुकाबले इस साल की विकास दर करीब दो फीसदी कम रही है।

असल में पूरी अर्थव्यवस्था से अनाचक कैश हटा लेने का नतीजा यह हुआ असंगठित क्षेत्र का ढांचा पूरी तरह से चरमरा गया। यही नहीं कृषि जैसा क्षेत्र जो अधिकांश धंधा की कैश पर करता है वहां कीमतों में भारी गिरावट का दौर शुरू हो गया क्योंकि कारोबारियों के पास कैश नहीं था और नतीजा यह हुआ कि खरीदार कम रह गये। छोटे-छोटे कस्बो में कारोबार महीनों तक के लिए ठप्प हो गया और दैनिक मजदूरी करने वाले लोगों के ऊपर बड़ा संकट आया। इन परिस्थितियों ने अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी कर दी। भले  ही सरकार कुछ भी दावा करे लेकिन यह सच है कि देश में क्रेडिट ग्रोथ कई दशकों ने न्यूनतम स्तर पर है। वहीं मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र दशकों के निचले स्तर पर चल रहा है। रियल एस्टेट और कंस्ट्रक्शन जैसे रोजगार पैदा करने वाले क्षेत्र सबसे बड़े संकट का सामना कर रहे हैं। इन कारकों को रोजगार के सरकारी आंकड़े भी साबित कर रहे हैं जो दर्शाते हैं कि अधिकांश क्षेत्रों में रोजगार सृजन की गति बहुत धीमी हो गयी है।

इसलिए 30 और 31 अगस्त के सरकारी आंकड़े आर्थिक मोर्चे पर सरकार के लिए कई सवाल लेकर आये हैं और यह सवाल नोटबंदी से जुड़े हैं जिन पर सरकार और रिजर्व बैंक को सफाई देनी चाहिए।

 

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement