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2019 के पहले...

चुनावी जीत के लिए किसी भी हद तक जाने के राजनीतिक दलों के तरीके खतरनाक उन्माद और कटुता का माहौल बना रहे...
2019 के पहले...

चुनावी जीत के लिए किसी भी हद तक जाने के राजनीतिक दलों के तरीके खतरनाक उन्माद और कटुता का माहौल बना रहे हैं। यही बदलता परिदृश्य 2019 के लोकसभा चुनावों की दिशा तय करेगा।

हाल के दिनों में राजनीतिक और आर्थिक मोर्चे पर बहुत कुछ तेजी से घटा है और  जो स्थिति छह माह पहले दिख रही थी वह दिन-पर-दिन तेजी से बदलती जा रही है। त्रिपुरा और पूर्वोत्तर के राज्यों नगालैंड और मेघालय के चुनाव नतीजों ने भी इस बदलते घटनाक्रम में बड़ी भूमिका निभाई है। इन राज्यों में भाजपा और उसके सहयोगी दलों की सरकारें बन रही हैं। इनमें त्रिपुरा ही सही मायने में वह राज्य है जहां भाजपा ने चमत्कारिक नेतृत्व के जरिए जबरदस्त बहुमत हासिल किया है। बाकी दो राज्यों में वह सहयोगी दलों के जूनियर पार्टनर की तरह है। लेकिन त्रिपुरा के नतीजों के बाद जो घटा है वह बहुत चौंकाने वाला है। देश में लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता का बदलाव होता रहा है और आगे भी होता रहेगा क्योंकि हमारा देश एक परिपक्व लोकतंत्र के लिए दुनिया भर में सराहा जाता है। लेकिन त्रिपुरा के नतीजों के बाद जो हिंसा और मूर्ति तोड़ो अभियान शुरू हुआ वह देश के लिए चिंताजनक है और वहां की नई सरकार के साथ ही केंद्र सरकार के लिए नई चुनौती खड़ी कर गया है।

लोकतांत्रिक तरीके से होने वाले सत्ता बदलाव में हिंसा का कोई स्थान हमारे देश में नहीं है। लेकिन जिस तरह से त्रिपुरा में अतिउत्साही और उन्मादी भीड़ ने लेनिन की मूर्ति को गिराया और उसके बाद भाजपा के वरिष्ठ नेताओं और संवैधानिक पद पर बैठे एक व्यक्ति ने इस कृत्य को जायज ठहराया, वह चिंताजनक है। जब इस तरह के काम को समर्थन दिया जाने लगता है तो उसकी चिंगारी के आग में बदलने का डर पैदा हो जाता है। हुआ भी यही। तमिलनाडु में भाजपा के एक नेता ने द्रविड़ आंदोलन के जनक पेरियार की मूर्ति को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी कर दी। दलित अस्मिता और दलित आंदोलन को खड़ा करने वाले पेरियार के लिए इस तरह के विचार कैसे स्वीकार्य हो सकते हैं? नतीजा तमिलनाडु में बड़े आंदोलन के साथ पश्चिम बंगाल में जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मूर्ति पर हमले के रूप में सामने आया।

बात यहीं नहीं रुकी, उत्तर प्रदेश के मेरठ में आंबेडर की मूर्ति को नुकसान पहुंचाया गया। एक छोटे से राज्य और एक लोकसभा सीट वाले राज्य की राजनीतिक उपलब्धि को बेहतर प्रशासन और चुनावी वादों को पूरा करने में लगाने के बजाय जो उन्‍माद सामने आया, वह भाजपा या किसी भी दल के लिए शुभ तो नहीं कहा जा सकता। हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इस कृत्य की निंदा की है और हर विचारधारा के लिए देश के सभी नागरिकों को स्वतंत्र विचार रखने की बात दोहराई। लेकिन नुकसान तो हो चुका है।

असल में चुनावी जीत के लिए किसी भी हद तक जाने और राजनैतिक कटुता को बढ़ाकर लोगों को गोलबंद करने का तरीका आजकल राजनीतिक दल अपनाने लगे हैं, उससे सीमाएं तय नहीं होतीं, बल्कि टूटती ज्यादा हैं। यह बेहद घातक है। सत्ताधारी भाजपा और एनडीए हो या फिर विपक्षी दल, सभी का लक्ष्य अब 2019 का लोकसभा चुनाव है और उन चुनावों तक बीच में चार राज्यों के विधानसभा चुनाव भी होने हैं। ऐसे में आरोप-प्रत्यारोप के दौर तीखे होते जाएंगे।

हालांकि, छह माह पहले तक जिस तरह नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की दोबारा वापसी तय मानी जा रही थी, उसको लेकर अब कुछ सवाल उठने लगे हैं। आने वाले दिनों में गठबंधनों का नया दौर शुरू होने वाला है। चुनावी राजनीति की हवा राकांपा प्रमुख शरद पवार से ज्यादा कौन भांप सकता है। करीब छह माह पहले तक उनके भाजपा के करीब दिखने के कयास लगाए जा रहे थे। लेकिन अब यह लगभग तय है कि राकांपा का गठबंधन कांग्रेस के साथ होगा और शिवसेना भी उसमें शामिल हो जाए तो बहुत आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इसी तरह तेलंगाना राष्ट्र समिति के प्रमुख के. चंद्रशेखर राव भी तीसरे मोर्चे की बात करने लगे हैं। तेलुगु देशम पार्टी भी कब तक एनडीए का हिस्सा रहती है, यह देखना होगा, क्योंकि पार्टी के अधिकांश विधायक आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा नहीं देने के केंद्र के रवैए से खफा बताए जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने दो लोकसभा उपचुनावों में समाजवादी पार्टी के समर्थन की घोषणा की है, इससे नए राजनीतिक समीकरणों की जमीन तैयार हो सकती है। कर्नाटक से शुरू होने वाले विधानसभा चुनावों से लेकर दिसंबर में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के चुनावों के नतीजे चाहे जैसे आएं, यह तय है कि 2019 भाजपा और नरेंद्र मोदी के लिए 2014 से बहुत अलग होगा।

दूसरे, बड़े चुनावी वादों को लेकर खड़े हो रहे सवालों का जवाब देने के रास्ते में तीन बड़े आर्थिक मसले हैं। ये हैं तेल के बढ़ते दाम, ब्याज दरों का बढ़ना,  जिसकी शुरुआत रिजर्व बैंक के पहले ही निजी और सरकारी बैंकों ने पिछले दिनों कर दी है और बांड यिल्ड जो सितंबर, 2017 की 6.5 फीसदी से बढ़कर अब 7.85 फीसदी तक पहुंच गई है वह ब्याज दरों में बढ़ोतरी का साफ संकेत है। इसके अलावा बैंकों की एनपीए चुनौती तो मौजूद है ही। यानी राजनैतिक परिदृश्य के साथ ही जिस तेजी से आर्थिक परिदृश्य बदल रहा है वह 2019 की दिशा तय करेगा।  

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