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अब परीक्षा का अंतिम दौर

लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार को मतदाता पांच साल देता है उन वादों को पूरा करने के लिए जो सत्ताधारी दल ने...
अब परीक्षा का अंतिम दौर

लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार को मतदाता पांच साल देता है उन वादों को पूरा करने के लिए जो सत्ताधारी दल ने मतदाता से किए थे। ऐसे में किसी भी सरकार के लिए चार साल तो उन वादों को हकीकत में बदलने का समय होता है और अंतिम साल में वह अपने काम को लोगों के सामने रखकर अगली बार फिर से जनादेश मांगती है। केंद्र की 2014 में चुनी गई राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के चार साल पूरे होने जा रहे हैं। अब अंतिम साल ही बचा है। वैसे तो खुद प्रधानमंत्री, उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी और उनकी पार्टी भाजपा के दूसरे नेता सरकार की उपलब्धियों को लगातार देश की जनता के सामने रख रहे हैं और कई मामलों में उपलब्धियों को ऐतिहासिक बता रहे हैं। विपक्ष भी अब सरकार की आलोचना में आक्रामक होता जा रहा है। जाहिर है, अब सब की रणनीति और तैयारी 2019 के आम चुनाव के लिए है। सत्ता और विपक्ष के अलावा सबसे अहम पक्ष देश का आम आदमी है। इसलिए अब वह भी सरकार के कामकाज की समीक्षा करेगा और उसे करना भी चाहिए।

हमने इस अंक की आवरण कथा में सरकार के चार साल के कामकाज और चुनावी साल की चुनौतियों पर फोकस किया है। इसमें जाने-माने चुनाव विश्लेषक और राजनैतिक टिप्पणीकार प्रोफेसर संजय कुमार ने तमाम सर्वेक्षणों और तथ्यों के साथ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार और उनकी पार्टी के लिए 2019 की संभावनाओं पर विस्तार से बात की है। इस सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती बने रोजगार के मोर्चे पर प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा ने तमाम तथ्यों के साथ आकलन पेश किया है। इस मसले पर वे देश और दुनिया के बड़े विशेषज्ञों में शुमार किए जाते हैं। विदेश नीति में आमूल-चूल परिवर्तन लाने के प्रधानमंत्री मोदी के कदमों की समीक्षा पूर्व राजदूत पिनाक रंजन चक्रवर्ती ने की है जो विदेश मंत्रालय में सचिव भी रह चुके हैं। प्रोफेसर अरुण कुमार का देश में काले धन पर सबसे अधिक काम है और उन्होंने मोदी के काला धन वापस लाकर हर व्यक्ति के खाते में 15 लाख रुपये जमा करने के वादे और काले धन पर अंकुश लगाने के कदमों की पड़ताल की है। फिर, तमाम राजनैतिक दलों के लोगों ने अपने नजरिए से सरकार के कामकाज का आकलन किया है।

असल में अब 2019 के लोकसभा चुनावों तक सरकार के वादों, उसके कामकाज और अगले कार्यकाल के लिए जनादेश की तैयारियों पर ही ज्यादातर विमर्श होगा। कई विवादों, दावों-प्रतिदावों और बनते-बिगड़ते राजनैतिक समीकरणों पर भी चर्चा होगी। जब यह अंक आपके हाथ में होगा तो कर्नाटक विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार चरम पर होगा और 15 मई को नतीजे आ जाएंगे। यह चुनाव अहम है। इसमें राज्य की कांग्रेस सरकार और केंद्र की सरकार के चार साल के कामकाज पर भी लोगों की मुहर लगेगी। ऐसा इसलिए भी होगा क्योंकि कर्नाटक चुनाव में भाजपा की जीत के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद को झोंक दिया है और उनकी पार्टी भी स्थानीय नेतृत्व के बजाय उन्हीं पर भरोसा कर रही है। इसलिए कर्नाटक चुनाव के नतीजे देश के मूड का संकेत भी देंगे। उसके बाद दिसंबर के आसपास राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम विधानसभा चुनावों के रूप में 2019 के पहले सेमीफाइनल होगा, जो बहुत हद तक 2019 की दिशा तय कर देगा।

जहां तक केंद्र सरकार के कामकाज की बात है तो ताबड़तोड़ योजनाएं लागू करने में इस सरकार ने रिकार्ड बनाया है। इनमें कई कामयाब भी रही हैं लेकिन ऐसी योजनाओं और घोषणाओं की भी लंबी फेहरिस्त है जो नाकाम रही हैं या फिर गुमनामी में चली जाने दी गई हैं। मगर सबसे बड़े मुद्दों में रोजगार है और उस मोर्चे पर कामयाबी दिखाने के लिए हाल में जो आंकड़े पेश किए जा रहे हैं, उन पर विवाद पैदा हो गया है। ऐसा ही मसला किसानों की खराब माली हालत का है। इस मोर्चे पर सरकार का रुख पहेली बनता जा रहा है, जिसे उसे चुनावों के पहले साफ करना होगा। कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर भी कई चुनौतियां खड़ी हैं और स्वच्छ भारत अभियान के लिए उठाए क्रांतिकारी कदमों के बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट कहती है कि दुनिया के सबसे 15 प्रदूषित शहरों में 14 भारत के हैं और इनमें देश की राजधानी दिल्ली भी है। कुछ इसी तरह के तथ्य दूसरी उपलब्धियों के मामले में भी सामने आ सकते हैं।

बात केवल आर्थिक मोर्चे पर प्रगति की ही नहीं है। हमें यह भी देखना होगा कि एक बेहतर समाज, एक बेहतर देश बनाने और जीवन को बेहतर करने के मोर्चे पर सरकार का कामकाज कैसा रहा है। सही मायने में तो बेहतर जीवन ही आकलन का सही सूचकांक है और सत्ताधारी दल को अपनी कामयाबी की फेहरिस्त भी इसी आधार पर तैयार करनी चाहिए। वहीं उसे बेदखल करने की कोशिश करने वाले विपक्ष को भी इन मानकों को ही केंद्र में रखकर सरकार की आलोचना करनी चाहिए। जहां तक आम आदमी का सवाल है तो वह तो इसी उम्मीद में सरकार चुनता है कि उसका जीवन बेहतर होगा।

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