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अड़चनों में अटकने वाली सरकार नहीं यह

"अगर किसी प्रोजेक्ट में विवाद है तो उसे सुलझाना ज्यादा जरूरी है, न कि मुकदमेबाजी में उलझना। कोर्ट में...
अड़चनों में अटकने वाली सरकार नहीं यह

"अगर किसी प्रोजेक्ट में विवाद है तो उसे सुलझाना ज्यादा जरूरी है, न कि मुकदमेबाजी में उलझना। कोर्ट में जाने से जहां समय बरबाद होता है, वहीं लागत बढ़ती है।"

केंद्र की मोदी सरकार में कामकाज के प्रदर्शन के लिहाज से सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी का नाम सबसे ऊपर आता है। महाराष्ट्र में लोक निर्माण मंत्री रहते हुए भी गडकरी के नाम मुंबई-पुणे एक्सप्रेसवे जैसी उपलब्धियां रहीं। लेकिन नए कार्यभार में उनके सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा था। लाखों करोड़ रुपये की अटकी परियोजनाओं की भरमार थी। फिर भी, उन्होंने ढांचागत विकास के मामले में सबसे अहम माने जाने वाले सड़क और राजमार्ग क्षेत्र की कायापलट कर दी है। इस क्षेत्र में अभी तक करीब छह लाख करोड़ रुपये के निवेश को संभव बनाने और सड़क तथा हाइवे निर्माण क्षेत्र को गति देने के लिए उठाए गए कदमों और नीतिगत बदलावों से जुड़े तमाम मुद्दों पर नितिन गडकरी से आउटलुक के संपादक हरवीर सिंह ने विस्तार से बातचीत की। कुछ अंश:

 तीन साल पहले की तुलना में देश में हाइवे निर्माण की गति और सड़क परियोजनाओं की स्थिति को आप कहां पाते हैं?

तीन साल पहले जब हम सत्ता में आए तो कोई हाइवे बनाने को तैयार नहीं था। इन्फ्रास्ट्रक्चर का यह अहम सेक्टर बुरी तरह धराशायी था। चारों तरफ अटकी हुई हाइवे परियोजनाओं और बैंकों का पैसा डूबने की चर्चाएं होती थी। हमें यह सब विरासत में मिला। वहां से चलकर 2016-17 में हमने 8231 किलोमीटर के राजमार्गों का निर्माण किया है। हम करीब 28 किलोमीटर प्रतिदिन के औसत तक पहुंच चुके हैं। इसे हम 40 किलोमीटर प्रतिदिन के स्तर तक लेकर जाएंगे। पिछले तीन साल में हाइवे निर्माण की गति बढ़ाने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण काम हुआ है। करीब तीन लाख करोड़ रुपये के 300 से ज्यादा हाइवे प्रोजेक्ट अटके पड़े थे। आज एनपीए बैंकों के लिए इतनी बड़ी समस्या है। हम इस सेक्टर को नहीं उबारते तो सोचिए एनपीए में तीन लाख करोड़ रुपये का इजाफा हो जाता। हम केवल राजमार्गों के निर्माण और नए प्रोजेक्ट अवार्ड करने में ही तेजी नहीं लाए बल्कि समूचे हाइवे सेक्टर को उबारने का काम किया है। अहम नीतिगत फैसलों के साथ-साथ नई तकनीक, इनोवेशन और फंडिंग के नए उपायों के बगैर यह संभव नहीं था।

पिछले करीब तीन साल में हाइवे निर्माण और प्रोजेक्ट मंजूरी में तेजी आई है। इस टर्न अराउंड की क्या वजह रही है?

पॉजिटिव एप्रोच इसकी सबसे बड़ी वजह रही है। असल में 75 फीसदी गलती सरकार की रही है। उसे हमने स्वीकार किया और सुधार की ओर कदम बढ़ाए। सभी संबंधित पक्षों, जिनमें बैंक भी शामिल हैं, के साथ हमने बैठकें कीं। समस्या को सुलझाने की नीयत से काम किया। इसके चलते हमने 3.85 लाख करोड़ रुपये के 403 हाइवे प्रोजेक्ट को पटरी पर ला दिया। वहीं 50 ऐसे प्रोजेक्ट जहां सुधार संभव नहीं था, को टर्मिनेट कर दिया। आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति और मंत्रालय के स्तर पर कई ऐसे फैसले किए गए जिससे परियोजनाओं की राह आसान हुई। मिसाल के तौर पर 2009 से पहले पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप में परियोजनाओं को 100 फीसदी पूरा किए गए बगैर डेवलपर इससे बाहर नहीं निकल सकता था। हमने इस नीति को बदला और नए निवेशकों के आने की राह आसान की। ऐसे छोटे-बड़े कई फैसले किए गए।

इन नीतिगत बदलावों में सबसे महत्वपूर्ण बदलाव आप क्या मानते हैं

हमने सबसे पहले प्रोजेक्ट के वित्तीय पक्ष और वॉयबिलिटी पर फोकस किया। हाइवे सेक्टर में बिल्ट ऑपरेट एंड ट्रांसफर (बीओटी) और पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) के मॉडल नाकाम हो चुके थे। इसलिए हम हाइब्रिड एन्नुअटी जैसे नए मॉडल लेकर आए। इसके तहत प्रोजेक्ट लागत की 40 फीसदी धनराशि सरकार कंस्ट्रक्शन के दौरान रोड डेवलपर को देती है। लागत का करीब 30 फीसदी प्रमोटर लेकर आता है और 30 फीसदी बैंकों के जरिए जुटाया जाता है। इससे परियोजना के दौरान फंड की किल्लत दूर करने में मदद मिली। इसमें टोल से आने वाला पैसा पहले सरकार के पास जाएगा, उसके बाद बैंकों का पैसा वापस होगा और बाद में प्रमोटर कमाएगा। इस दौरान हाइवे के रखरखाव और मरम्मत का पैसा कनशेसनर को मिलता है।

निवेश बढ़ाने के लिए आपके मंत्रालय ने कैसे-कैसे उपाय किए?

नए मॉडल से परियोजनाओं की फाइनेंशियल वॉयबिलिटी बढ़ाने के साथ-साथ निवेशक और बैंकों में भरोसा पैदा हुआ है। इसी का नतीजा है कि एचएएम के तहत बड़ी संख्या में परियोजनाओं पर काम शुरू हो गया है। पहले प्रोजेक्ट अवार्ड हो जाते थे और पर्यावरण मंजूरी मिलने का काम बरसों तक अटका रहता था। इससे विवाद भी बढ़ते थे। हमने अनिवार्य कर दिया कि 80 फीसदी भूमि अधिग्रहण हो जाए, तभी प्रोजेक्ट अवार्ड होगा। मंजूरी दिलाने के लिए संबंधित विभागों और मंत्रालयों के बीच तालमेल जरूरी था। भूमि अधिग्रहण और पर्यावरण समेत सभी मंजूरी का जिम्मा हमने लिया है। इससे कंपनियों को परियोजना पर काम करने में देरी नहीं होती है। हमने साफ किया कि अगर किसी प्रोजेक्ट में कहीं विवाद है तो उसे सुलझाना ज्यादा जरूरी है, न कि मुकदमेबाजी में उलझना। कोर्ट में जाने से जहां समय बरबाद होता है, वहीं प्रोजेक्ट की लागत बढ़ती है। कई बार नतीजा यह होता है कि इसके चलते प्रोजेक्ट की इकोनॉमिक वॉयबिलिटी ही समाप्त हो जाती है। इसलिए हमने समझाया कि सरकार या एनएचएआइ का काम सड़क बनवाना है, मुकदमे लड़ना नहीं। इस बात को समझकर आगे बढ़े और जो भी बाधाएं थीं, इसी सोच के साथ दूर करने के प्रयास किए।

लेकिन रोजाना 40 किलोमीटर सड़क निर्माण के लक्ष्य से हम अभी भी काफी पीछे हैं। यह लक्ष्य कितना उचित हैइतनी सड़कें बनवाने के लिए पैसा कहां से आएगा?

देखिए बड़ा सोचेंगे नहीं तो बड़ा करेंगे कैसे। यह सही है कि अभी हम 40 किलोमीटर रोजाना के लक्ष्य से बहुत दूर हैं लेकिन इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। बुनियादी दिक्कतें काफी हद तक इन तीन वर्षों में हमने दूर कर ली हैं। जहां तक पैसे का सवाल है, इस काम में पैसे की कमी नहीं आएगी। उसके बहुत से रास्ते हमारे पास हैं। लेकिन इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण सिर्फ धन से संभव नहीं है। इसके लिए जिस सोच और एप्रोच की जरूरत है, वह हमारे पास है। प्रोजेक्ट मंजूरी एक बड़ा मुद्दा रहा है। इसे तेज करने के लिए क्या बदलाव किए गए हैं।

प्रधानमंत्री ने मेरी अध्यक्षता में एक कमेटी बना दी। वहीं हमने 22 फैसले,  इसके लिए कैबिनेट की बैठकों में कराए हैं। इसमें प्रधानमंत्री का बहुत सहयोग रहा है। हम इस कमेटी में समीक्षा करते हैं। ऐसा पहली बार हुआ है कि इतने बड़े पैमाने पर प्रोजेक्ट मंजूर हुए हैं लेकिन एक रुपये के भी करप्शन का मामला सामने नहीं आया है। हम पूरी पारदर्शिता और पॉजिटिव एप्रोच से काम करते हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि जो भी विवाद रहे वह सुलझा लिए गए। आपने सीमेंट की सड़कें बनाने पर जोर दिया है, उसका क्या नतीजा रहा है? हम देश में सीमेंट का सबसे अधिक उपयोग कर रहे हैं। हाउसिंग सेक्टर में गतिविधियां घटने से यह उद्योग संकट में जा सकता था लेकिन रोड कंस्ट्रक्शन में सीमेंट के बड़े पैमाने पर उपयोग से सीमेंट सेक्टर को बहुत फायदा मिला है। साथ ही सीमेंट की सड़कें ज्यादा टिकाऊ होती हैं। इस्टर्न पेरीफेरल एक्सप्रेसवे जैसे नए हाइवे बनाने में सीमेंट का इस्तेमाल हो रहा है। इसका असर भी आने वाले दिनों में दिखाई पड़ेगा। 

अपने कार्यकाल के पांच साल के दौरान इस सेक्टर में कितने निवेश का लक्ष्य रख रहे हैं?

अभी तक हम छह लाख करोड़ रुपये का निवेश कर चुके हैं और मेरा मानना है कि हम 15 लाख करोड़ रुपये का निवेश इस दौरान हाइवे सेक्टर में कर सकेंगे। हमें विरासत में सैकड़ों अटके प्रोजेक्ट और समस्याओं का अंबार मिला था। लेकिन हम हाइवे निर्माण को 28 किमी प्रतिदिन पर ले आए हैं, जल्दी ही 40 किमी प्रतिदिन के स्तर पर ले जाएंगे। आगे हाइवे निर्माण की रफ्तार बढ़नी इसलिए भी संभव है क्योंकि बहुत सारी बुनियादी बाधाएं दूर कर ली गई हैं जिनकी वजह से प्रोजेक्ट अटके रहते थे।

नेशनल हाइवे में अभी कितनी सड़कें हैं और आपका इसके तहत कितनी सड़कें लाने का लक्ष्य है?

पहले नेशनल हाइवे के तहत 96 हजार किलोमीटर सड़कें थीं। वह अब 1.2 लाख किलोमीटर हो चुकी हैं। हम इसके तहत दो लाख किलोमीटर सड़कें लाने का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं। हाइवे सेक्टर में कुल 6 लाख करोड़ रुपये की परियोजनाओं पर काम चल रहा है, जिसमें देश के औद्योगिक गलियारों को जोड़ने वाली भारतमाला जैसी परियोजनाएं भी शामिल हैं। हम सभी पर आगे बढ़ रहे हैं।

सड़क निर्माण में ठोस कचरे के उपयोग को लेकर आपने फैसला किया थाउसका मामला कहां तक पहुंचा?

हम दिल्ली में इसके लिए समझौता कर चुके हैं। गाजीपुर में जो कचरे का पहाड़ है उसका पूरा उपयोग हम एनएच-24 के मेरठ एक्सप्रेसवे के निर्माण में इस्तेमाल कर लेंगे। वहां वेस्ट सेग्रीगेशन होगा जिसमें प्लास्टिक को अलग किया जाएगा। इसके अलावा ग्रीन हाइवे निर्माण का काम चल रहा है। नेशनल हाइवे के किनारे हाइवे नेस्ट और हाइवे विलेज नाम के सुविधा स्थल बनाने की योजना शुरू हो गई है। राजमार्ग हमारे लिए यातायात तक सीमित नहीं हैं, बल्कि आर्थिक गतिविधियों के गलियारे हैं।

हाइवे निर्माण में नई टेक्नोलॉजी पर क्या काम हो रहा है?

इसके लिए हमने बॉम्बे आइआइटी के एक प्रोफेसर की अध्यक्षता में कमेटी बनाई है। कमेटी के पास नई टेक्नोलॉजी का लोग प्रदर्शन करेंगे। जो टेक्नोलॉजी बेहतर होगी और काम में लाई जा सकेगी, उसे हम स्वीकार करेंगे। 

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