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फिल्म समीक्षा: उलझनों का इत्तेफाक

आजकल की हिंदी फिल्मों में बिना भाषणबाजी फिल्म खत्म हो जाए तो खुद को भाग्यशाली ही समझना चाहिए। इस फिल्म...
फिल्म समीक्षा: उलझनों का इत्तेफाक

आजकल की हिंदी फिल्मों में बिना भाषणबाजी फिल्म खत्म हो जाए तो खुद को भाग्यशाली ही समझना चाहिए। इस फिल्म का अंत भी एक भाषण से ही है लेकिन यह भाषण फिल्म की परत-दर-परत खोलता है और उबाऊ नहीं लगता।

विक्रम सेठ (सिद्धार्थ मल्होत्रा) लेखक है, तीसरी किताब की लॉन्च में अपनी ब्रिटिश पत्नी और किताब की पब्लिशर के साथ भारत आया है। बुक लॉन्च वाली रात को ही उसकी पत्नी की हत्या, विक्रम का पुलिस से भागना, एक फ्लैट में शरण के लिए जाना और वहां एक और खून के इल्जाम में फंस जाना। कुल मिला कर यही कहानी है।

सस्पेंस और थ्रिलर कहानियों का फायदा यह होता है कि दर्शकों का दिमाग सोचना बंद कर देता है यदि कहानी रोमांच की रफ्तार पकड़ ले। एक उलझा हुआ गोला होता है जिसका सिरा सब खोज रहे होते हैं। दर्शक उस सिरे को खोजने से ज्यादा उसे कैसे सुलझा कर खोजा जा रहा है इसमें दिलचस्पी रखता है। इस मायने में निर्देशक अभय चोपड़ा बहुत हद तक सफल रहे हैं। बॉलीवुडिया स्टाइल से अलग इस फिल्म में नो आइटम सॉन्ग, नो गाना, नो झोल झाल।

माया की भूमिक में सोनाक्षी और पुलिसिया रोल में देव यानी अक्षय खन्ना ने सधा हुआ अभिनय किया है। पिछली कुछ फिल्मों से अक्षय पुलिस वाले की भूमिका में काफी दिखाई दे रहे हैं, लगता है वह फिल्मी इंस्पेक्टर इफ्तेखार का रेकॉर्ड तोड़ेंगे। जो इसी नाम से 1969 में बनी फिल्म में इंस्पेक्टर बने थे।

बढ़िया एडिटिंग, चुटीले संवाद, हल्का हास्य इस फिल्म की रेटिंग को बढ़ाता ही है। मुंबई की बारिश के तीन दिनों में केस सुलझने के बाद बहुत से सवाल दर्शकों के जहन में भी रह जाते हैं, फ्लाइट रुकवाना इतना कठिन काम भी नहीं, जबकि अपराधी खुद फोन पर इकबालिया बयान दे रहा हो। फोन रेकॉर्ड किया जा सकता था, ताकि बाद में सुबूत के तौर पर काम आ सके। इतना होशियार पुलिस वाला कैसे चूक गया। हो सकता है इसकी अगली कड़ी के ये उलझे धागे हों जिन्हें सीक्वेल में सुलझाया जाए।

बहरहाल आउटलुक रेटिंग तीन स्टार

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