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इमरजेंसी बेअसर : इंदू सरकार

एक लंबे चौड़े डिस्क्लेमर के बाद बस पांच मिनट में ही दर्शकों को पता चल जाता है कि दरअसल असली "इंदू सरकार" कौन है। लचर नरैशन, उससे भी ढीली पटकथा और अपने पात्र को स्थापित करने के लिए ही मधुर भंडारकर आधा घंटा लेते हैं। मधुर ने फिल्म ऐसे बनाई है जैसे आपातकाल आज लगा हो और उन्हें हर कदम फूंक-फूंक कर रखना है। वरना सावधानी हटी और दुर्घटना घटी जैसा कुछ होगा और वह सीधे तिहाड़ दर्शन कर लेंगे।
इमरजेंसी बेअसर : इंदू सरकार

जो लोग आपातकाल के बाद जन्में हैं और जो उस वक्त थे, दोनों पीढ़ियां उसे अपने ढंग से देखने जाएंगी। बाद के लोगों में उत्सुकता होगी कि देखें उस वक्त क्या हुआ था। उस दौर के लोगों को लगेगा कि देखें फिल्म में कैसे दिखाया है। लेकिन दोनों ही पीढ़ीयां निराश हो कर लौटेंगी। इसलिए कि मधुर जानते हैं, राजनीति में कभी भी किसी के भी अच्छे-बुरे दिन आ सकते हैं। आज तो भाजपा है लेकिन कल को कांग्रेस हुई तो क्या वह उन्हें वह इंदू दिखाने के लिए माफ करेगी जो वह दिखाना चाहते होंगे पर साहस की कमी के चलते दिखा नहीं पाए।

मधुर भंडारकर ने आपातकाल के 21 महिनों को सिर्फ तुर्कमान गेट (पुरानी दिल्ली) के अतिक्रमण और नसबंदी तक समेट कर रख दिया। जैसे इन 21 महिनों में इसके अलावा कुछ हुआ ही नहीं। तुर्कमान गेट पर बस्ती पर बुलडोजर चलाने के दौरान इंदू (कीर्ति कुल्हारी) को दो बच्चे मिलते हैं। इंदू का पति नवीन सरकार (तोता रॉयचौधरी) सरकारी नौकर है और इमरजेंसी के दौरान वह भी और लोगों की तरह खूब पैसे बनाने की चाहत रखता है। लेकिन वह उन बच्चों को घर पर नहीं रख सकता जिन्हें उसकी ही सरकार ने बेघर कर दिया है। हकलाने वाली इंदू भले ही शब्द ठीक से न बोल पाती हो लेकिन उससे शब्दों में दम है। वह कविता लिखती है। भले ही उसकी टीचर ने उससे कहा था कि, ''अच्छे अच्छे कवियों की किताबें कौड़ियों के मोल बिकती हैं।'' अनाथ इंदू की टीचर उसे शादी कर घर बसाने, बच्चे पैदा करने के लिए प्रेरित करती है!

खैर तो बात सिर्फ इतनी सी है कि मधुर भंडारकर पूरी फिल्म को एक फैमिली मेलोड्रामा की तरह प्रस्तुत करते हैं और हर एंगल से यह दिखाने में बार-बार विफल हो जाते हैं कि वह भारत के काले अध्याय पर फिल्म बना रहे हैं। कीर्ति कुल्हारी कई जगह प्रभावित करती हैं लेकिन खराब स्क्रिप्ट के चलते वह जितना कर सकती थीं उससे ज्याद करती भी क्या। भंडारकर भूल गए कि फिल्म को पीरियोडिक दिखाने के लिए उसे मात्र सीपिया टोन में फिल्माने से ही बात नहीं बनती।

क्या यह फिल्म सिर्फ देश के मुसलमानों की याददाश्त में तुर्कमान गेट का हादसा दोबारा याद कराने के लिए बनाई गई थी। मौजूदा सरकार मुसलमानों को याद दिला सके कि देखो कांग्रेस ने तुम पर कितना अत्याचार किया था। इस फिल्म से बस नील नीतिन मुकेश को फायदा हुआ है, जो उन्हें अब तक का सबसे अच्छा रोल मिला है। उन्होंने इसे साबित भी किया है। संजय गांधी की छवि (भूमिका नहीं) को उन्होंने विश्वसनीयता दी है। दर्शक बहुत गौर से देखेंगे तो जगदीश टाइटलर, कमलनाथ, रुखसाना सुल्तान और जगमोहन की छवियों को भी आसानी से खोज लेंगे। सुप्रिया विनोद (इंदिरा गांधी) सिर्फ अंतिम दृश्य में आती हैं। इसकी भी कोई जरूरत नहीं थी। फिल्म उनके बिना भी चल ही गई थी दो घंटा कुछ मिनट। यदि भंडारकर ने इसे काटा है तो उन्हें एक अच्छा संपादक खोजना चाहिए था। फिल्म के अंत में वह शाह कमीशन की रिपोर्ट का हवाला  देते हैं। रिपोर्ट की ये चंद लाइनें कई जगह छप चुकी तो फिर दर्शक दो घंटे सिनेमाहॉल में भी क्यों खर्च करे। भंडारकर बाबू को समझना चाहिए समर्थन के मैदान में दृश्यों की बाजीगरी से ही काम नहीं चलता। 

आउटलुक रेटिंग दो स्टार

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