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‘सुदामा पांडे ‘धूमिल’ - क्रांतिकारी विचारधारा वाले हिंदी कविता के ‘एंग्री यंग मैन’

सुदामा पांडे ‘धूमिल’ क्रांतिकारी विचारधारा वाले कवि थे जिन्हें ‘विरोध-कविताएं’ लिखने के कारण...
‘सुदामा पांडे ‘धूमिल’ - क्रांतिकारी विचारधारा वाले हिंदी कविता के ‘एंग्री यंग मैन’

सुदामा पांडे ‘धूमिल’ क्रांतिकारी विचारधारा वाले कवि थे जिन्हें ‘विरोध-कविताएं’ लिखने के कारण ‘हिंदी कविता के ‘एंग्री यंग मैन’ का ख़िताब मिला। उन्होंने कविताओं का एकमात्र संग्रह प्रकाशित किया, ‘संसद से सड़क तक।’ मृत्योपरांत ‘कल सुनना मुझे’ कविता संग्रह प्रकाशित हुआ जिसके लिए उन्हें मरणोपरांत, १९७९ का ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ दिया गया। उनके बेटे रत्नशंकर ने उनकी कविताओं का संग्रह ‘सुदामा पांडे का प्रजातंत्र’ प्रकाशित कराया।

धूमिल के दिल-दिमाग में, जनतंत्र के नाम पर होने वाले पाखंड, उच्चवर्गों की दबंगई, आपराधिक चरित्रों की पहचान, सामंतों, पूंजीपतियों, सत्ताशाहों, धर्म के ठेकेदारों द्वारा प्रायोजित लोकतंत्र की ऐसी-तैसी करने वाली कारस्तानियों के वो अंदेशे थे, जिनको आज भी जनता भुगतने पर विवश है। जनता के ज़रूरी सवालों पर मौन साधने वाली संसद से चुटीले तंज़ों के लिए मशहूर, आक्रोशित अंदाज़ में धूमिल ने सवाल किया था कि, ‘क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है, जिन्हें एक पहिया ढोता है या इसका कोई मतलब होता है?’

‘धूमिल’ का जन्म 9 नवंबर, 1936 को वाराणसी के खेवली गांव में हुआ था। इनकी माता रजवंती देवी और पिता शिवनायक पांडे थे। धूमिल 11 वर्ष के थे तब पिता परलोक सिधारे, फिर भी अभावों के बावजूद वे गाँव के पहले हाईस्कूल उत्तीर्ण लड़के थे। 12 वर्ष की वय में मूरत देवी से विवाह हो गया अतः पारिवारिक दायित्व निभाने हेतु उन्होंने कलकत्ते का रुख किया जहां बोझा ढोया और मज़दूरी की। पता चलने पर मित्र तारकनाथ ने धूमिल को एक लकड़ी व्यापारी के यहां नौकरी पर रखवाया जहां करीब डेढ़ वर्ष तक कार्यरत रहने के बाद अस्वस्थ होने पर वे घर लौट आए। मालिक ने उन्हें मोतिहारी से गुवाहाटी जाने को कहा लेकिन धूमिल ने इंकार कर दिया। क्रोधित मालिक ने कहा, ‘आई एम पेइंग फॉर माइ वर्क, नॉट फॉर योर हेल्थ’, जिसके जवाब में अपमानित धूमिल ने खरी-खरी सुनाई कि, ‘बट आई एम वर्किंग फॉर माइ हेल्थ, नॉट फॉर योर वर्क’ और साढ़े चार सौ की तनख्वाह और बाकी लाभ छोड़कर घर चले आए। इस घटना ने धूमिल के समक्ष पूंजीपतियों और मज़दूरों के बीच की दूरी के कारणों का सत्य उद्घाटित किया जिसने क्रांतिकारी कवि बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने 1957 में काशी विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, 1958 में विद्युत संबंधी कार्यों का डिप्लोमा किया और वहीं अनुदेशक नियुक्त हो गये। नौकरी के सिलसिले में वे बलिया, सहारनपुर, सीतापुर आदि जगहों पर रहे पर मन बनारस या गांव खेवली में ही रमता था। 

कथाकार ‘काशीनाथ सिंह’ के अनुसार, उच्च शिक्षा से महरूम धूमिल, कविता सीखने-समझने के लिए आजीवन विद्यार्थी बने रहे। अंग्रेज़ी की कविताएं पढ़ने-समझने के लिए उन्होंने पड़ोसी नागानंद और विभिन्न शब्दकोशों की मदद से अंग्रेजी सीखी। वामपंथी विचारधारा होने के बावजूद, अध्ययन की कमी के फलस्वरूप वो स्त्रियों के विषय में पुरुषवादी सोच से मुक्त नहीं थे, ना ही गांवों-शहरों के बीच पक्षधरता के चुनाव में सम्यक वर्गीय दृष्टि अपना सके। 

धूमिल को कई ‘अनौपचारिक जानकारियों’ ने पारंपरिक वाम धारणाओं की विचारधारा से मुक्त किया, फलस्वरूप वे किसानों के प्रवक्ता के तौर पर लेखनी के माध्यम से सामंती संस्कार वालों की खाल उधेड़ते रहे। लोकतंत्र के योद्धा कवि के रूप में वे सच्चे अर्थों में किसानों के दुःख-दर्द, समस्यायों, संघर्षों के हितैषी थे। धूमिल पर ‘दिशाहीन अंधे क्रोध के पैरोकार’ और ‘सामान्यीकरण’ करने जैसे आरोप लगे क्योंकि उन्होंने भ्रष्ट, पूर्ण अतृप्त, असंतुष्ट, खाने-पीने वाले लोगों की क्रांतिकारी बौद्धिक जुगालियों में गहरा ‘अविश्वास’ किया। पर आरोप झेलते हुए भी वो अडिग होकर सवाल पूछते थे कि ‘मुश्किलों व संघर्षों से ‘असंग’ लोग क्रांतिकारी हो सकते हैं क्या?’ धूमिल ने ‘अराजक’ होने का आरोप भी स्वीकार किया क्योंकि उनको विश्वास था कि टुच्ची सुविधाओं के लोभी अपराधियों के परिवारों के परिजन कभी तो खत्म होंगे। धूमिल ने पाखंडी व्यवस्थाओं द्वारा पोषित परम्पराओं, भद्रता-सभ्यता, सुरुचि-शालीनता की ऐसी-तैसी करने को परम लक्ष्य बनाया और कविताओं में वर्जित प्रदेशों की खोज की।

‘धूमिल’ उपनाम रखने की भी दिलचस्प कहानी है। बनारस के एक और कवि, धूमिल के हमनाम और समकालीन, ‘सुदामा तिवारी’ जीवित हैं और ‘सांड बनारसी’ के नाम से हास्य कविताएं लिखते हैं। चूँकि छायावाद के प्रमुख स्तंभों में एक, ‘जयशंकर प्रसाद’ के घराने से धूमिल के पुश्तैनी रिश्ते थे अतः कविता के संस्कार विरासत में मिले थे। सुदामा तिवारी और उनके समान नाम होने से कोई गड़बड़ ना हो इसलिए धूमिल ने छायावाद से प्रेरित उपनाम ‘धूमिल’ रखा।  

धूमिल की पहली रचना कहानी थी, जो ‘कल्पना’ पत्रिका में छपी, पर धूमिल ने कहानी लेखन के बजाए आक्रोशी, क्रांतिकारी विचारों वाली कविताएं लिखीं। बनारस के साहित्यकार उन्हें स्वाभिमान का प्रतीक मानते थे। धूमिल को वरिष्ठ आलोचक ‘नामवर सिंह’ का लठैत भी कहा जाता था क्योंकि वे नामवर जी की आलोचना या बुराई नहीं सुनते थे। पर अगर उन्हें लगता कि नामवर जी उनका इस्तेमाल कर रहे हैं तो वे अविलंब उन्हें छोड़ देते क्योंकि धूमिल जिसको भी ओछा, निकृष्ट विचारों का पाते, उसके विरुद्ध हो जाते थे।

उनकी दो लोकप्रिय कविताएं.. 

‘‘एक आदमी रोटी बेलता है,

एक आदमी रोटी खाता है,

एक तीसरा आदमी भी है,

जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है,

वह सिर्फ रोटी से खेलता है,

मैं पूछता हूं,

यह तीसरा आदमी कौन है,

और मेरे देश की संसद मौन है’’

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शब्द किस तरह

कविता बनते हैं

इसे देखो

अक्षरों के बीच गिरे हुए

आदमी को पढ़ो

क्या तुमने सुना कि यह

लोहे की आवाज है या

मिट्टी में गिरे हुए खून

का रंग

लोहे का स्वाद

लोहार से मत पूछो

उस घोड़े से पूछो

जिसके मुँह में लगाम है

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दशकों बाद भी संसद का मौन साबित करता है कि भारत की विकल्प और विपक्ष रहित, जनविरोधी राजनीति का असल प्रतिपक्ष धूमिल की कविताओं में ही दृष्टिगोचर है। ‘धूमिल’ की कविताएं आज भी बेहद मुखर आवाज हैं और कविताओं की प्रासंगिकता के कारण धूमिल को नए सिरे से समझने की आवश्यकता है। अन्य विचारधारा वाले लोगों को उनसे और उनकी कविताओं से अत्यंत असुविधा थी और यही उनकी उग्र, विस्फोटक कविताओं का बल था। धूमिल की ‘मोचीराम’ कविता, जो एनसीईआरटी की एक कक्षा की पाठ्यपुस्तक में शामिल थी, उसे पुस्तक से हटवाने के लिए एक प्रमुख राजनीतिक दल, (जो आज सत्तासीन है) ने मोर्चा खोला था और उसे पुस्तक से हटवाने के बाद ही चैन की सांस ली थी। जन्म और विशेषताओं से खांटी बनारसी धूमिल ने निर्धन परिवार में पैदाइश के कारण, कविता ‘मोचीराम’ के नायक मोची द्वारा चमड़े की सिलाई के लिए इस्तेमाल की जाने वाली रांपी की तरह, जनपक्षधरता और आमजन को हाथों में संभाले रखा।

हिंदी साहित्य की भीषण विडंबना और त्रासदी कही जाएगी कि कई अद्भुत प्रतिभाशाली कवि-कवयित्री, लेखक-लेखिकाओं से समृद्ध होने के बावजूद, उन सभी के जीवनकाल में ना किसी प्रतिभा को पहचाना जाता, ना ही सम्मान मिलता है। अधिकतर रचनाकार अभावों और जीवन की जटिलताओं से जूझते हुए ही संसार से विदा हो जाते हैं। धूमिल भी घृणित रवैये के शिकार, ऐसे अभिशप्त कवि थे जिन्हें उनकी प्रतिभा के अनुरूप ना सम्मान मिला, ना प्रचार-प्रसार। प्रशंसकों के अलावा, आलोचकों ने भी उनके साहित्य को अनदेखा किया और बहुत विलंब से पहचाना, जो पाठकों का दुर्भाग्य कहा जाएगा।

धूमिल की रचनाकृतियों को समग्र ग्रंथ के रूप में, पेपरबैक संस्करण में, राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। धूमिल के प्रशंसकों को उनके सम्पूर्ण साहित्य की प्रतीक्षा थी और अंततः धूमिल की रचनाओं को वो सम्मान और ख्याति मिली जिसके वो अधिकारी थे। धूमिल को बखूबी जानने के लिए चेतना को चैतन्य करने वाले अनिवार्य सोपान रुपी इस समग्र का अध्ययन आवश्यक है। धूमिल ने अल्पायु में जितना लिखा उसे तीन खंडों में प्रकाशित किया गया है और डॉ. रत्नाकर पांडेय ने बढ़िया संपादन किया है। पहले खंड में धूमिल की प्रकाशित, अप्रकाशित कविताएं, दूसरे खंड में गीत-लोकगीत, निबंध-नाटक, कहानियां, अनूदित कविताएं और तीसरे खंड में डायरी, हस्तलिखित पत्र और कुछ तस्वीरें संकलित हैं, जिनमें उनके समय के वरिष्ठ कवियों-साहित्यकारों की छवियां भी हैं। धूमिल की कवि वाली छवि सर्वाधिक प्रसिद्ध और सशक्त थी, अतएव अन्य विधाओं की रचनाएं यथा कहानियां, निबंध, गीत पढ़ते हुए उनकी डायरी और पत्रों के पृष्ठ पलटने पर ‘धूमिल’ आसपास कहीं बैठे प्रतीत होते हैं। उनकी कविताओं की बजाए उनको जानने की तीव्र जिज्ञासा तीसरा खंड पढ़ने पर पूरी होती है। 

धूमिल की रचनाएं पढ़ते हुए पाठकों का स्वयं को उन विचारों-भावों के निकटस्थ पाने की विशेषताओं के कारण ही धूमिल सच्चे जनकवि कहलाए। धूमिल पाखंड, बनावट, स्वांग, औपचारिकता से सर्वथा मुक्त कवि थे जिनमें निर्भीकता, बेबाकी तथा सच्चाई से कटु यथार्थ लिखने की सामर्थ्य थी। धूमिल स्वयं अभावों में पले-बढ़े थे इसलिए सप्रयास नहीं बल्कि सहजता से आमजन के दुःख-दर्द, पीड़ा-वेदना रच पाए। धूमिल ने प्रभावित हुए बिना पीड़ा लिखी और उनकी कविताएं पढ़के कभी कोई पाठक निराशा के गर्त में नहीं समाया। उनके पात्रों ने संघर्षरत, कठिनाइयों से जूझते हुए भी आनंद के अल्प, सूक्ष्म क्षणों को जीया। धूमिल की कविताओं के माध्यम से उनको समझना, सत्य से साक्षात्कार करना है। 

धूमिल स्पष्टवादी, अक्खड़, दबंग स्वभाव के कारण सदैव अधिकारियों के क्रोध का निशाना बने और अधिकारियों के भिन्न-भिन्न तरीकों का उत्पीड़न ही उनके मानसिक तनाव का कारण बना। 1974 में सीतापुर में अस्वस्थ होने पर अक्टूबर में उन्हें काशी विश्वविद्यालय के मेडिकल कॉलेज में भर्ती किया गया जहां चिकित्सकों ने ब्रेन ट्यूमर बताया। नवंबर में लखनऊ के किंग जॉर्ज अस्पताल में भर्ती किया गया जहां मस्तिष्क की सर्जरी हुयी पर वे कोमा में चले गए और अचेतन अवस्था में ही निधन हो गया। धूमिल आत्मकथ्यों में अक्सर जिस अनिश्चित मृत्यु को संभव बताते थे, वो दबे पांव आयी। धूमिल का रहन-सहन इतना साधारण था कि रेडियो पर उनके निधन की ख़बर प्रसारित होने पर उनके परिजनों को ज्ञात हुआ कि ‘धूमिल’ कितने बड़े कद के कवि थे। बनारस के मणिकर्णिका घाट पर अंत्येष्टि के समय सिर्फ कवि कुंवरनारायण और श्रीलाल शुक्ल पहुंचे थे। 10 फरवरी, 1975 को हिंदी साहित्याकाश का ये अनोखा जनप्रिय कवि सदा के लिए ब्रह्मलीन हो गया। 

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