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यादें: रखना किताबों को गिरवी, देखना 'दलाल' और दोस्ती का लिटमस टेस्ट

जिले से बाहर "दलाल" खूब धमाका मचाकर आयी थी। उसके गीत पहले से सबकी ज़बान पर चढ़े हुए थे। अब इंतज़ार फ़िल्म का...
यादें: रखना किताबों को गिरवी, देखना 'दलाल' और दोस्ती का लिटमस टेस्ट

जिले से बाहर "दलाल" खूब धमाका मचाकर आयी थी। उसके गीत पहले से सबकी ज़बान पर चढ़े हुए थे। अब इंतज़ार फ़िल्म का था। फ़िल्म जनता सिनेमा में लगी और साथ ही स्कूल के पास के वीडियो हॉल में भी लग गयी थी। उस रोज स्कूल की प्रार्थना के बाद जब सारा स्कूल उस दिन की पढ़ाई के लिए अंगड़ाई ले ही रहा था कि महेश की छटपटाहट बढ़ गयी। वज़ह थी वह दलाल और उसकी नायिका । वह कृष्णा टॉकीज में कुर्बान, खिलाड़ी और गाँव में आई एक बारात में बलमा देखने के बाद आएशा जुल्का का मुरीद हुआ पड़ा था। पढ़ने में तेरह-बाईस, महेश की पसंद का पैमाना क्या था यह हम चारों को आज तक नहीं मालूम। यह तो उस दिन की उसकी बेचैनी से पता चला कि आखिर वह क्यों अपने एक कैसेट में केवल आएशा जुल्का के गाने 'बेशक तुम मेरी मोहब्बत हो', 'भींगी हुई है रात मगर' के साथ 'जीने की तमन्ना', 'बाँसुरिया अब यही पुकारे' और 'अगर जिंदगी हो' भरवाए हुए था। पंकज ने उसकी फ़िल्म देखने की इस बेचैनी को ताड़कर यह घोषित कर दिया कि 'साला इसके नियत में खोट है। कभी कहता है कि रवीना, कभी सोनाली और अब आएशा जुल्का आ गयी। ई ससुरा चरित्रहीन है। उधर देखो हर्षवर्धनवा को, वह रवीना तब्बू से कभी नीचे नहीं उतरता'- तभी आनंद धीरे से कान में बोला - ए सोनालियो है उसकी लिस्ट में।- तभी हर्षवर्द्धन ने उसको हड़का दिया - 'हमको न लपेटो इसमें, मूड ठीक नहीं है।' पहली क्लास की शुरुआत हो गयी थी।

महेश को दलाल देखना था और वह भी आज ही- पहला दिन पहला शो। लेकिन असल झंझट था पांच लोगों के लिए पैसे का था । वह किससे लिये जाएं? वित्तमंत्री हर्षवर्द्धन का मंथली कोटा गड़बड़ चल रहा था। पाँच लोगों में तीन रुपए कीमत की टिकट से काम न चलना था पर समय के साथ महेश की क्रमबध्द ढंग से लटकती सूरत देखकर तय हुआ वीडियो हॉल के मालिक गुप्ता से सेटिंग किया जाए, लग जाये तो ठीक वरना अगले दिन देखेंगे। महेश ने भी इस प्लान में हामी भरी। टीचर्स की नजर बचाते सिनेड़ियों का दल सदर अस्पताल के पीछे के टूटे दीवार से साइकिल समेत वीडियो हॉल पहुँचा। वहाँ गज़ब दृश्य था। सस्ते के चक्कर में वहाँ हमसे भी बड़े सिनेड़ी पहले ही पहुँचे हुए थे। 'चढ़ गया ऊपर रे अटरिया पे लोटन कबूतर रे' और 'ऐसा तीर चला मेरे दिल पर जिसकी मार सही न जाए' सबके दिलों दिमाग में जहर बोए हुए था। हम तो जुगाड़ तंत्र में आये हुए थे और वहाँ भीड़ ऐसी थी मानो वीडियो हॉल की पलानी गिर जाएगी और दीवार भी आज ही ढहेगी। महेश,2 जो हमारे लिए टिकट लेने में मोहम्मद अली और नागराज का कॉम्बो था, यहाँ वह भी एकबारगी तो बयाना फेरने के मूड में आ गया जबकि जोर उसी का था कारण पूरे पैसेक न होना। पर उसने पक्के तौर पर अगली पिछली रोटी नहीं खाई थी। वह शुरुआती लड़खड़ाहट के बाद किसी भी तरह फ़िल्म देखने पर टिक गया था। प्लान हुआ कि तीन टिकट लेते है फिर बाकी के लिए गुप्ता से जोर लगाएंगे। महेश ने अपने कौशल का परिचय देते हुए, टिकट ले लिया और जैसे ही हम तक आया, किस्मत से उसी वक़्त गुप्ता दर्शकों की भीड़ देख जोश में बाहर निकला। उसकी दुनिया बनियान और लुंगी में ही गुलज़ार रहती थी। अब यह मौका कैसे हाथ से जाने दिया जाता। मामला महेश ने बोया था सो वही काटे की तर्ज पर, वही गया और बोला - "भाई जी, एक काम है। आये हैं फिलिम देखने, तीन ठो टिकट ले लिए हैं हमलोग। बाकी दु गो का दिकत है।"- गुप्ता पूरी बात सुने बिना ही खैनी ठोंक के ऊपर वाले होंठ में सेट किया और बोला - "त का करें हम, इहाँ नगद नारायण चलता है।"- महेश का पारा बहुत देर तक ठंडा नहीं रहता था। वैसे भी वह कद काठी और रंग रूप में भी सामान्य छात्रों से अलग दिखता था। टाइट होकर धीरे से बोला - फिलिम देखने का मन है तो देखे बिना जाएंगे नहीं। हम लोग हमेशा देखने आते हैं, रेगुलर कस्टमर हैं। सीधा-साधी बात है।कि हमारे किताब को बान्हे (गिरवी) रखो और फिलिम देखने दो।'- महेश के सीधा-साधी कहने में विनती जैसा कुछ था जरूर, पर उसकी ध्वनि धमकी की शक्ल में निकल कर आई। गुप्ता भी चंट था, चिढ़कर बोला - 'रंगदार से बेसी रंगदारी ना ।'-तब तक हर्षवर्द्धन, जो पंकज के साथ टिकट लिए गेट पर था, उसने चिल्लाकर कहा - 'रे महेश ! क्या बहस किये हो, इधर सिनेमा का रील दिखा दिया। नाम लिखने लगा है।' - महेश ने इतना सुना और एक हाथ पॉकेट साइज के गुप्ता की गर्दन में डाला और दूसरे को अपनी जेब मे डालकर उसके कान में धीरे से कहा - 'लास्ट चांस है हमारा किताब बान्हे (गिरवी) रखो, फिलिम देखने दो वरना यही छुरी मार देंगे।' - छुरी? अब गुप्ता सकपकाया, इस बात से उसका भीतरिया रंगदार तेल लेने चला गया। तभी उसके पीछे से आनंद ने धीरे से कहा - 'ए गुप्ता जी! ये ठीक कह रहा है। स्कूल में इसका कांड मशहूर है और न भरोसा हो तो इसके डांर (कमर) में देख लीजिए बेल्ट की जगह बुलेट का चैन है और जेब मे छूरा।' - आनंद के इस तरह धीरे से कहने भर का असर था कि महेश का आकार, जो भी हो गुप्ता जी मान गए। हालांकि यह भी बड़ी सच्चाई है कि गुप्ता अड़ गया होता तो महेश का झूठ बाहर आ जाता। उसके पास कोई छुरा न था। पर आत्मविश्वास और बर्फानी ठंडक से चबाकर कहा गया वाक्य, गुप्ता को सत्य से दो इंच ऊपर का जान पड़ा था। अब मुख्य समस्या तो हल हो गयी थी पर तब तक हॉल ठस भर गया था। गुप्ता जी ने दीवार साइड एक एक्स्ट्रा बेंच लगवा दी। हमने उस दिन पाया कि महेश से भी कोई चंद मिनटों में दोस्ती गांठने की जुगत में लगेगा तो वह इस गुप्ता जैसा ही कोई आदमी ही हो सकता है। लेकिन नई गाँठी दोस्ती अपनी जगह थी। फिल्म के बदले में हम दो लोगों को किताबें गिरवी रखनी पड़ी थी। 'दलाल' ठाट से देखी गयी। 'अटरिया पे लोटन कबूतर', 'ठहरे हुए पानी में कंकड़ न मार' से लेकर 'चोरी चोरी मैंने भी तो' और 'ना उन्नीस से कम हो न इक्कीस से ज्यादा' सुन-गुन हम अपने-अपने घर लौटे।

पर कहानी का असल क्लाइमेक्स वहाँ शुरू हुआ जब मैं बिना किताबों के सायकिल दनदनाते हुए घर पहुँचा। आमतौर पर मैं स्कूल से किताबों को कैरियर में दबा कर ही लौटता था। दलाल के गीत जुबान पर थे जरूर पर किताबें कैरियर में नहीं दबी थी। आमतौर पर स्कूल से लौटानी के वक़्त सानी-पानी करने वाले पिताजी को भैंस और गायों के अत्तिरिक्त कुछ नहीं दिखता था पर उस रोज पूछ बैठे - 'क्या जी! किताब, कॉपी?'- मैंने आँख छुपाते कह दिया - 'आज स्कूल में ही रख आए हैं। सोचे क्या ढोकर ले जाना रोज।' - और तेजी से चाँपाकल पर हाथ-मुँह धोने चला गया। यह मेरे सामान्य लक्षण नहीं थे और फिर बाप का मतलब बाप ही होता है। पर आश्चर्यजनक ढंग से सब शांति से बीता। मैं रोज की तरह अगले दिन स्कूल गया। एक क्लास के खत्म होने और दूसरी के शुरू होने के गैप के बीच हेडमास्टर मोंछू बीरेंदर सर का बुलावा आया। चपरासी मेरे ही गाँव के पश्चिम टोले का था। क्लास में घुसते ही पुकारा - ऐ पांड़े, चलअ हेड मास्टर साहब बोलाए हैं।- मुझे यह अजीब लगा कोई पुरस्कार वाला काम तो नहीं किया, ले देकर स्कूल के स्काउट दल में हूँ पर वहाँ भी तिवारी सर मेरी लापरवाही के कारण डांटते रहते हैं। फिर हेड सर ने क्यों बुलवाया? मन में अज्ञात आशंका पनप गयी। खैर! प्रिंसिपल ऑफिस पहुंचा तो पाया आशंका निर्मूल न थी। स्कूल आने के मामले में परमानेंटली अमावस मेरे पापा, हेडमास्टर के सामने बैठे पूर्णिमा का चाँद बन चमक रहे थे। अब सब क्लियर हो गया था। पापा कुछ कहते इसके पहले ही हेड सर बोल पड़े - 'क्या जी! पढ़े में तो पहले ही तेरह-बाईस हो। अब गार्जियन से झूठ भी बोलने लगा है तुम? ऐसे क्या बनना चाहता है जी ? क्रिमनल बनेगा?' - अब पापा ने फिर पूछा - 'किताब-कॉपी किधर है, स्कूल में तो नहीं है?' - अब मैं क्या कहता। हिम्मत कसकर महेश के माथे धर दिया - 'महेश को दिये थे और आपके डर से कुछ का कुछ बोल दिए।' - बस भी बयान दर्ज कराया ही था कि स्कूली थानेदार हेड सर का बेंत तशरीफ़ पर पड़ गयी। हेड सर अपने साथ यह लम्बा सोंटा रखे रहते थे, जो स्कूल में उनके हाथों में सज कर पूरी धज के साथ उनकी तोंद से आगे-आगे तलवार की तरह झूलता चलता था। अब महेश भी हाजिर-नाजिर हुए पर इस बुरी घड़ी में भी मैंने उसको हिंट दे दिया कि कल हम जो किताब रखने को दिए थे वह किधर है? बताओ, हम पीटा गए।'- तभी उस पर भी दो सोंटा गिरा और उसके जैसा मुर्गिया शैतान भी टूट गया। अब नाम पंकज पर गया। लेकिन तब तक चपरासी अटेंडेंस रजिस्टर देने क्लास में गया हुआ था, अब पंकज को बुलाया जाना था। उधर एक-एक उपस्थिति के बेंच से कम होते देख आनंद और हर्षवर्द्धन ने माजरा समझ लिया था। अब पंकज के बाद हमारी सामूहिक पिटाई की नौबत थी, पर बेइज्जती का डर पिटाई से अधिक था। किसी के गार्जियन स्कूल नहीं आते और देखो हमारी बेइज्जती के लिए आज...। पर कहानी खींचता देख हेडमास्टर साहब अधीर होकर पिताजी की ओर मुखातिब हुए - 'देखिए पांड़े जी, असल बात है ये जेनरेशन ही गड़बड़ है। ये पांच का गिरोह है। वैसे ई सब स्कूल में कोई उत्पात नहीं करता पर है सब का सब एक नंबर का अनेरिया (बदमाश) है ।' - तभी सुधांशु सर, जो हमलोगों को बहुत पंसद करते थे। वह बोले - 'इतना भी बुरा बच्चा नहीं है सब, थोड़ा स्लो लर्नर है।' - पर हेडमास्टर ने धीरे से कही उनकी बात का लोड न लिया। अब आगे की कार्यवाई सोची ही जा रही थी कि हर्ष और आनंद किताब लिए हाजिर हो गए। उस दिन हमने पाया कि भगवान कसम! ऐसे ही दोस्तों से दुनिया में दोस्ती का नाम अमर है। हर्षवर्द्धन गेट पर ही खड़े-खड़े किताबों को हाथ में लिए हाँफते हुए बोला - 'सर , यह सब किताब मेरे पास था। ये लोग कल टिफिन टाइम में मेरे साथ सुगर मिल वाला जलेबी खाने गए थे। पूछ लीजिए आनंद से।' - ऐसे कहते उसने आनंद को कोंचा - 'बताओ ना रे?' - आनंद भी तोता रटंत बोला - 'जी! जी!!जी!!! सर।'- लेकिन हेड सर इसके तीन 'जी' से समझ गए कि अब किताब वाला मुद्दा खत्म है। बहस के उरूज पर जाने तक उनके दु:खहरण ने मेरे साथ-साथ महेश और पंकज का भी दुःख हर लिया था। अब बारी इन दोनों की थी। हेड सर टेबल के पीछे से निकल कर सामने आ गए और अपनी पैंट को अपनी तोंद की ओर खींच कर बोले - 'अच्छा! अच्छा!! अच्छा!!! ये बात है। लेकिन पहले ये बताओ तुम दोनों चलती क्लास में से बाहर किससे पूछकर निकला है। स्कूल को धर्मशाला बूझ लिए हो?' - अब किताब का केस दूसरे ट्रैक पर जाकर स्कूल के अनुशासन से जुड़ गया था। कारण कि एक लड़के के गार्जियन यानी मेरे पापा प्रिन्सिपल रूम में मौजूद थे।

कहना न होगा उस रोज हेडमास्टर के सोंटे ने दो शिकार और किए। क्लास में किसी रोज रसायन विज्ञान वाले तिवारी सर ने लिटमस टेस्ट समझाया था, वह आज 'हरहूँ नाथ मम संकट भारी' की पुकार में हर्षवर्द्धन और आनंद की शक्ल में संकटमोचन बन प्रकट हुआ था। दोस्ती का लिटमस टेस्ट हो गया था।

टिफ़िन के समय में हम पांचों ने सायकिल वाले की दुकान पर बैठकर भूँजा फांका। उस रोज यह अहसास गहरा हुआ कि दलाल में मिथुन दा का किरदार हीरोइन रुपाली को बचा सकता है पर असल में अपने चाहने वालों को नहीं। केवल महेश के चाहत में ही तो खोट थी, बबुआ गए थे आएशा जुल्का को देखने, जिसने 'भींगी हुई है रात मगर जल रहे हैं हम' - कहकर बुलाया था और बदले में सोंटा मिला। खैर! उस रोज, दोस्ताना जिंदाबाद हुआ।


(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

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