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यादें: "खता तो जब हो हम हाल-ए-दिल"-दिव्या भारती के लिए उपवास और दोस्ती में दरार

उसके मामा की एक ड्राईक्लीनिंग शॉप, सिनेमा रोड में थी। इंटर कॉलेज से जो समय बचता, वह वहीं पर बिताता। उसका...
यादें:

उसके मामा की एक ड्राईक्लीनिंग शॉप, सिनेमा रोड में थी। इंटर कॉलेज से जो समय बचता, वह वहीं पर बिताता। उसका रविवार क्रिकेट मैच खेलने के लिए फिक्स था। मनोज, अपने मामा की दुकान, सिनेमा और क्रिकेट के अलावा साप्ताहिक नियम से श्याम सिनेमा के सामने वाली गली के वातानुकूलित सैलून में भी समय देता था। सलून वाला दिघवा दुबौली के तरफ का ही था, जहाँ का मनोज खुद था। सिनेमची तो खैर अव्वल दर्ज़े का था ही।


मनोज ने जबसे 'विद्रोही' देखी थी, उसको यह लगने लगा था कि वह अरमान कोहली जैसा दिखता है। उसके इस भरोसे को 'दुश्मन जमाना' ने और पुष्ट कर दिया था, सो आत्ममुग्धता में डूबा नायक हमारी क्या सुनता।

मनोज दिघवा से नबीगंज वाले इंटर कॉलेज में पढ़ने न जाकर गोपालगंज के कमला राय कॉलेज में क्यों आया, उसकी वजह व्यक्तिगत नहीं, राष्ट्रीय थी। वह समय किशोरों के अपने नैसर्गिक गुणों को भूल पर्दे के नायकों को ओढ़कर जीने का था। अजय देवगन आये तो सबके बालों में चिक शैम्पू का पाउच रोजमर्रा में आ गया और उनका एक ओर गर्दन झुकाकर उचकते हुए चलना फैशन में आ गया था। बालों का झुकाव एक आँख के ऊपर इतना होता गोया एक आँख में बालों का पर्दा होता और दूसरी अकेली आँख से देखने का मामूली-सा काम किया जाता। दिघवा कहें कि गंज, वह पूरी पीढ़ी दो किस्म के फैशनेबल बालों में नहाई हुई थी अजय देवगन या संजू बाबा।

लड़कियों की बात करूँ तो गाँव की लड़कियों में ममता कुलकर्णी कट अधिक चल रहा था। वैसे कुछ-कुछ रवीना, सोनाली, दिव्या भारती का मामला भी चलन में था पर वह शहर वाली लड़कियों के फ्लेवर का मसला अधिक था। हिसाब साफ था, ममता का एरिया गाँव का था और बाकी दोनों का जिला मुख्यालय या प्रखंड स्तर पर।

इस दौर में संजय दत्त, शाहरुख, सलमान, आमिर, अजय, अक्षय, यहाँ तक कि सुनील शेट्टी और मिथुन तक के फॉलोवर्स थे पर मनोज ने लीक से हटकर अरमान कोहली को ओढ़ा था। उसने भले न सुना हो पर उस पर यह बात (उसके बालों के विशेष संदर्भ में) लागू होती थी - "लीक लीक तीनो चलें, कायर कूत कपूत/बिना लीक तीनो चलें, शायर सिंह सपूत।"- वह लीक पर चलने वाले नहीं थे, न अजय देवगन, न सलमान, आमिर, शाहरुख, न सुनील शेट्टी कोई नहीं, सो लीक से हटकर उसका मन अरमान कोहली में रमा था।

मनोज बाबू ने हाई स्कूल पास करने के साथ ही दिव्या भारती को चुन लिया था और फिर जब ये जवान हो रहे थे उस वक़्त इनके आदर्श नायक अरमान कोहली ने 'दुश्मन जमाना' की थी। अरमान में खुद को ढूंढते और हीरोइन के रूप में दिव्या भारती को याद करते दिघवा में मनोज की जिंदगी रंग, दीवाना, विश्वात्मा वाली दिव्या के साथ आराम से कट रही थी। कुछ लोग तो अपने सरस्वती पूजन के भसान और किसी भी तरह के रंगारंग कार्यक्रम में 'सात समुंदर पार मैं तेरे पीछे' पर मनोज को फ्री में नचवा सकती थी। दिव्या का यह असर था उस पर। पर तभी एक रोज वह हादसा हो गया। दिव्या भारती एक संदिग्ध मृत्यु का शिकार हो गयी। यह खबर मनोज को दिघवा बाजार पर मिली थी, उसको यकीन न होना था, न हुआ! पर बात तो सच थी। अपने अरमान कोहली से गाँव की ओर सायकिल नहीं चल पा रही थी। उसको लग रहा था जैसे उसके गाँव के रास्ते में बड़े-बड़े गड्ढे थे और पैडल में मन भर वजनी पत्थर बाँध दिया गया है। साँस ऊपर-नीचे चल रही थी। वह एक जगह रुक गया। बगीचे में आमों पर मोजर लगने लगे थे। वह बगीचे में लगे चाँपाकल से भर पेट पानी पीकर एक पेड़ के पास बैठ गया। उसकी दुनिया उजड़ चुकी थी और उसका मन एकाएक एक बड़ी राष्ट्रीय समस्या/घटना में गुजरने लगा था, जिसमें हिंदी पट्टी के कई जवान होते लड़के तब डूबकर गुजरे थे। जेहन में स्लो मोशन में दिव्या का 'जाने जाना दीवाना, तेरा नाम लिख दिया', 'छोड़ के सारे बाग बगीचे तेरे पीछे पीछे आ गयी', 'एक तमन्ना जीवन की' और 'तुझे देखे मेरी आँखें जैसे गाने ही चल रहे थे। कलेजे में रह-रहकर कोई हूक-सी उठ रही थी। क्या करे वह? उसने अब तक दुनिया उजड़ना सुना था, आज उसके साथ ही यह हो गया। उसकी जिंदगी तहस-नहस हो गयी थी। सामने गेहूँ की खड़ी फसलों के खेत बंजर रेगिस्तान सरीखे लग रहे थे और गेहूं की बालियाँ कैक्टस।
मनोज का मन हुआ कि जोर से चिल्लाकर दिव्याsssss कहकर छाती पीट ले, रो ले! पर यह समाज उसके प्रेम की पीर क्या समझता, वैसे भी दिन ढल रहा था। सो वह अपना ग़म कलेजे में भरकर घर लौटा। अनपढ माँ ने बेटे को आते देखा। माँ का मन बेटे की चाल से भाँप गया कि बेटे को कुछ हो गया है। मनोज ने कुछ नहीं खाया, ओसारे में जाकर चौकी पर पेटकुनिया लेट गया। अभी पिछली ही फ़िल्म में तो दिव्या ने उससे कहा था -'आप जो मेरे मीत न होते'- उफ्फ़ दिव्या sss!!

उधर बेचारी माँ को लगा डीह वाले पीपल से कहीं चिरईता का भूत तो नहीं लग गया? हाय राम! वह भागती गाँव के ओझा के पास गई, वहाँ से लौंग फूँकवा कर लायी। लड़के ने रात में भी उपवास रखा। कई घंटे बीत चुके थे पर कमबख्त दर्द था कि पिघलने का नाम नहीं ले रहा था - 'एक तमन्ना जीवन की' कानों में बज रहा था। उसे याद आ रहा था कैसे 'शोला और शबनम' की टिकट लेते जनता सिनेमा में उसका हाथ छिल गया था और कैसे उसने कूद-फांद कर सीट लूटी थी। हाय दिव्याsss!!

सुबह तक माँ का खरगोश मन बेचैन रहा पर एक गलती हो गयी। बेटे की बिगड़ी हालत देख माँ ने बेटे के लँगोटिया मित्र पंकज को बुलवा भेजा और उस खलनायक दोस्त पंकज दातुन चबाते हुए आया और आते ही उसने मनोज को देखा और मुँह से दातुन की चबाई थूकते हुए बीमार का राजफाश कर दिया - "बै चाची, कुछु नहीं हुआ है, कल दिव्या भारती मर गयी है न! उसी वजह से यह दु:खी है।"- दिव्या भारती? कौन ?? हीरोइन!! - हीरोइन सुनते ही जो माँ रात से पुत्रमोह में हलकान थी, वह सुबह के भोजन की तैयारी छोड़, क्रोध में उठी और उसने चूल्हे से चईली निकाल कर लेटे हुए मजनू बेटे पर मिजाज से धर दिया। ग़म का उपवास दर्दनाक तरीके से टूटा। मनोज दिल के दर्द को खटिए पर ही छोड़कर बाहर भागा।

मनोज ने उस रोज जाना कि माँए जब क्रोध में आती हैं तो बाप के बापत्व पर भारी पड़ जाती हैं। सो, इस तरह के और लक्षणों को देखते हुए, मनोज को आगे की पढ़ाई के लिए जिला मुख्यालय में मामा के पास भेजा गया था। यह बैकग्राउंड है, मनोज के गोपालगंज आने का।

उसे गोपालगंज में कमला राय कॉलेज में दाखिला मिला और मनोज को हम मिले। हम यानी हरेश्वर, अभय और जयेंद्र शास्त्री। मनोज देखने में ठीक था, टिपटॉप रहा भी करता था। पर जैसी उसकी माँ को आशंका थी, उसके गाँव के हिस्से का एक किस्सा यहाँ भी आ गया था। हुआ यूँ कि उसी के इलाके की एक लड़की भी अपनी बुआ के यहाँ महेंद्र महिला महाविद्यालय में इंटर आर्ट्स करने आ गयी थी। उससे मनोज का दिघवा में हाई स्कूल से थोड़ा परिचय था। यह बात हमें नहीं पता थी कि उस लड़की के बारे में वह कितना सीरियस था। लेकिन एक रोज हम उसके डेरा पर चाय पी रहे थे। उस रोज उसकी वजह से हमारा यह ज्ञानवर्द्धन हुआ कि चौदह फरवरी भी कोई स्पेशल तारीख है। उसका एक व्याकरण है कि उस रोज आप किसी लड़की को 'थ्री मैजिकल वर्ड्स' बोल सकते थे। उसको ठीक लगा तो ठीक, वरना केवल उस रोज भर वह बुरा नहीं मानेगी। यह कहने के लिए आपको एक ग्रीटिंग कार्ड के साथ उसके सामने जाना होगा। यह समस्त ज्ञान मनोज प्रदत था, जो पहली बार हमारे जानकारी में आया था। जी हुआ कि कहीं डूब मरें। यह दिघवा का देहाती मुझ सेंट जोसफ के लड़के को यह खास बात बता रहा है और मुझे इसका अब तक पता तक न था। उफ्फ़! अब तक क्या किया? जीवन क्या जिया? तभी मनोज ने एक और बम फोड़ा - "भाई, आज ही उस डूमरसन वाली का लभ लेटर आया है।"- हमारे जैसे किशोर उस समय बनना शाहरुख चाहते थे पर हो गए थे सिद्धार्थ - "जताना भी नहीं आता, छुपाना भी नहीं आता, हमें तुमसे मोहब्बत है बताना भी नहीं आता"। आधी किशोरावस्था तो एकतरफा हथेली पर उसका नाम लिखने और मिटाने में ही बीत गयी, बाकी का सुख की कल्पना में। प्रसाद ने हम जैसों पर स्थूलों पर ही लिखा है - "मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देख कर जाग गया, आलिंगन में आते आते मुस्किया कर जो भाग गया"- और यह कमबख्त दिघवा से आया मनोज! अब हम गिड़गिड़ाने की भूमिका में थे - "भाई हम आज तक लभ लेटर नहीं देखे हैं, एक बार दिखा दो ना? भाई नहीं हो? प्लीज दिखा दो यार, हम किसी से कहने जा रहे हैं क्या ? मने यही बात है न? यही दोस्ती है?" - अनुनय के हर शब्द पर मनोज चौड़ा हो रहा था। अंततः वह पिघला और गद्दे के नीचे से वैशाली अभ्यास पुस्तिका में से एक टह-टह लाल ग्रीटिंग पूरे ऐंठ से सामने रखा। उस पर गुलाब और दिल बने हुए थे।गज़ब की ईर्ष्या हुई और कसम से इतनी ईर्ष्या मैंने तब तक किसी से नहीं थी। मैंने जलन से भभकते हुए एक झूठी मुस्कान के साथ कार्ड खोला। ये क्या ! वहाँ दिव्या भारती वाला गीत लिखा था - "खता तो जब हो कि हम हाल-ए- दिल किसी से कहें, किसी को चाहते रहना कोई खता तो नहीं।" - मैंने आश्चर्य से मनोज को देखा - 'ये लभ लेटर है जी?'- मनोज आश्चर्य में - 'तो क्या है?' मैं कहाँ रुकना था जलन को बर्फीला सुकून मिलने लगा था, मैं ठठाकर हँस पड़ा, हँसते-हँसते उसके बिस्तर पर गिर पड़ा - "माने लड़की भी भारी फिलिमबाज है। इसको लभ लेटर नहीं, कागज़ी कैसेट कहो"- मनोज का आशिक मन मित्र की इस धृष्टता से छील गया। वह दिव्या भारती को खोकर अपने ग़म में गाँव-घर में अपमानित हो चुका था, अब दोस्त भी इस तरह से ? उसने तेजी से ग्रीटिंग कार्ड छीन लिया और प्रेम दिवस वैलेंटाइन डे हमारी दोस्ती का आखिरी दिन सिद्ध हुआ। प्रेम पत्र केवल श्रीलाल शुक्ल की रुपा ने नहीं लिखा था - "ओ सजना, बेदर्दी बालमा, तुमको मेरा मन याद करता है। पर… चाँद को क्या मालूम, चाहता उसको कोई चकोर... याद में तेरी जाग जाग के हम रात-भर करवटें बदलते हैं।..." बल्कि जी लगाके नब्बे के रुमानियत में कई लड़के-लड़कियों ने भी 'जब ना माना दिल दीवाना कलम उठाके जाने जाना, खत मैंने तेरे नाम लिखा, हाल-ए-दिल तमाम - लिखा था। मेरे जैसे ईर्ष्यालु तो मन में ही एकतरफा गाते रहे - 'कागज़ कलम दवात ला' और दूसरों का मधुमास देख कुढ़न में डूबे रहे। खैर तो जैसी गाँव कस्बों की रवायत है, उस लड़की की इंटर करते-करते बड़हरिया की ओर शादी हो गयी। हमारे यहाँ अधिकतर लड़कियां बी.ए. ब्याह पढ़ा करती थीं, यह इंटर में ही चल दी। मनोज उसके शादी में गया भी था। दोस्ती की दरार लंबे समय तक चौड़ी रही। मनोज ने मामा की ड्राईक्लीनिंग शॉप संभाल ली थी, जिले में शायद यह इकलौती दुकान होगी जिसमें टँगते तो कपड़े थे, पर दीवारो पर दिव्या भारती की अनगिनत मुस्कान पसरी पड़ी थी और हमारा लोकल अरमान कोहली ग्रेजुएशन की डिग्री लिए, दिन भर कुमार शानू के अलाप के सहारे बिजनेस करते और स्नातक स्तरीय परीक्षाओं के फॉर्म भरते। दोस्ती का क्या हुआ! अरे, इतनी भी क्या बड़ी बात थी, लड़की की शादी हुई तो उसके साथ हमारे बीच की कटुता भी विदा हो गयी थी।


(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

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