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मोदी-2.1: उपलब्धियों पर भारी चुनौतियां

“मौजूदा दौर में कोविड महामारी और लॉकडाउन से बदहाली के अलावा मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले साल...
मोदी-2.1: उपलब्धियों पर भारी चुनौतियां

“मौजूदा दौर में कोविड महामारी और लॉकडाउन से बदहाली के अलावा मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले साल में खट्टे-मीठे अनुभव”

मई 2019 की 30 तारीख और 30 मई 2020 का फर्क क्या है? तब राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल की शपथ ली तो इतिहास दोहराया जा रहा था। आजाद भारत के इतिहास में जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद लगातार दूसरे कार्यकाल के लिए शपथ लेने वाले मोदी पहले गैर-कांग्रेसी और गांधी-नेहरू परिवार से अलग पहने नेता भी बने। स्वाभाविक है कि इसकी तुलना इंदिरा  गांधी के मार्च 1971 के चुनावों में जीत से भी की जाती, क्योंकि उस चुनाव में इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’, बैंकों के राष्ट्रीयकरण समाप्त करने जैसे बड़े फैसलों के बूते कांग्रेस (आर) को लोकसभा की 352 सीटों पर जीत दिलाई थी। नरेंद्र मोदी ने भी अपने पहले कार्यकाल में कुछ गरीबोन्मुखी योजनाओं पर अमल किया और उनकी लोकप्रियता के सामने लोकसभा चुनाव में विपक्ष टिक नहीं सका। नतीजतन, 2019 में पहली बार भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा की 303 सीटें और उसके गठबंधन एनडीए को 353 सीटों पर जीत हासिल हुई। शपथ ग्रहण समारोह में देश भर से भाजपा पदाधिकारी और कार्यकर्ता बुलाए गए थे और पार्टी का आत्मविश्वास चरम पर था। लेकिन साल भर बाद 30 मई 2020 को वह उत्साह और आत्मविश्वास कमजोर दिख रहा है। पार्टी दूसरे कार्यकाल के एक साल की बजाय मोदी सरकार के छह साल का जश्न मना रही है। इस विडंबना की वजहें भी जाहिर हैं।

आखिर कोविड-19 महामारी के चलते लागू देशव्यापी लॉकडाउन के बाद पैदा हुई प्रतिकूल सामाजिक और आर्थिक स्थितियां भयावह मुकाम पर जा पहुंची हैं। मुख्यधारा के समाचार माध्यमों और सोशल मीडिया में पैदल, साइकिल, ट्रकों-टेंपू, बसों और कुछेक श्रमिक स्पेशल ट्रेनों से जैसे-तैसे, मरते-जूझते हजारों किलोमीटर दूर अपने गांव-घर जाते गरीब और  मजदूरों की विचलित करने वाली तसवीरें और वीडियो भरे पड़े हैं। शायद यह भी एक वजह है कि शुरू में उनकी मदद से जुड़ी याचिकाओं को सुनने योग्य न मानने वाले सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर 26 मई को इस मुद्दे पर केंद्र और राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया (हालांकि ये भी खबरें हैं कि तकरीबन 20 नामी-गिरामी वकीलों की तीखी चिट्ठी के बाद सुप्रीम कोर्ट का दिल पसीजा)। लेकिन इन छवियों के बावजूद भाजपा छह साल की उपलब्धियों का जश्न मनाने के लिए 750 वर्चुअल रैलियां आयोजित कर रही है।

अब फिर जरा पीछे लौटिए। 1971 में इंदिरा गांधी देश में करिश्माई और सर्वाधिक लोकप्रिय नेता बन चुकी थीं। मार्च में लोकसभा चुनाव विशाल बहुमत से जीतने के बाद दिसंबर, 1971 में पाकिस्तान से युद्ध में निर्णायक जीत और उसके परिणामस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश नामक नया राष्ट्र बनाने की उपलब्धि ने इंदिरा गांधी के प्रशंसकों में विपक्ष को भी खड़ा कर दिया था। उत्तर प्रदेश में जनवरी, 1972 में चौधरी चरण सिंह की पार्टी बीकेडी के कई विधायक और कद्दावर नेताओं ने पार्टी छोड़ते वक्त तर्क दिया कि कांग्रेस एक प्रोग्रेसिव फोर्स है और बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रिवीपर्स की समाप्ति जैसे मुद्दों पर चरण सिंह ने इंदिरा गांधी का समर्थन नहीं किया। तब भारतीय जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को “दुर्गा” कहा था। लेकिन 2019 में लोकसभा में निर्णायक जीत हासिल करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फैसलों को दो हिस्सों में रखा जा सकता है। एक, राजनैतिक और दूसरा आर्थिक। राजनैतिक फैसलों के मामले में वे संघ की विचारधारा और पार्टी के घोषणापत्र को अमलीजामा पहनाने की तेजी से कोशिश करते दिखते हैं लेकिन आर्थिक मोर्चे पर वे नाकाम होते एजेंडे को लेकर आगे बढ़ते दिखते हैं।

राजनैतिक एजेंडे की बानगी

पांच अगस्त 2019 का नरेंद्र मोदी सरकार का फैसला कुछ इसी तरह का माहौल बना रहा था। जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को बेमानी बनाकर उसे दो केंद्रशासित क्षेत्रों में तब्दील कर दिया गया। इस फैसले की आलोचना विपक्ष भी खुलकर नहीं कर सका, बल्कि कई विपक्षी दलों के नेता समर्थन में बयान दे रहे थे। इनमें मोदी के कटु विरोधी, दिल्ली की सत्ता पर काबिज अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी शामिल थी, तो कई कांग्रेसी दिग्गज भी थे। यह घटनाक्रम और माहौल यह साबित करने के लिए काफी था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता चरम पर पहुंच गई थी।

नोटबंदी-जीएसटी का असर जारी

पहले कार्यकाल में नरेंद्र मोदी सरकार का सबसे कड़ा फैसला नोटबंदी को माना जा सकता है। एक झटके में किए गए इस फैसले ने देश के करोड़ों लोगों को बेरोजगार करने के साथ ही उनके जीवन में भारी अनिश्चितता की स्थिति खड़ी कर दी थी। इतना ही बड़ा फैसला माल व सेवा कर (जीएसटी) लागू करना था, जिससे कारोबार पर भारी असर पड़ा। इन दोनों फैसले के असर आर्थिक क्षेत्र में आज भी दिख रहे हैं। लेकिन मतदाताओं की नब्ज पहचानने वाले और लोगों की भावनाओं को समझने में दक्ष नरेंद्र मोदी ने इस फैसले को गरीब हितैषी दिखाकर राजनीतिक नुकसान नहीं होने दिया। यही वजह रही कि इस फैसले के कुछ माह बाद ही उनके जबरदस्त कैंपेन की बदौलत उत्तर प्रदेश में भाजपा भारी बहुमत से सत्ता में आ गई। साथ ही, पहले कार्यकाल में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में आई भारी कमी के चलते सरकार को करों के मोर्चे पर भारी कमाई हुई और उसका फायदा उन्होंने जनधन योजना, स्वच्छ भारत मिशन के तहत घर-घर शौचालय के निर्माण, गरीबों को मुफ्त में रसोई गैस की उज्‍ज्वला योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण), जीवन बीमा और दुर्घटना बीमा के साथ स्वास्थ्य बीमा की आयुष्मान योजना, प्रधानमंत्री किसान कल्याण निधि जैसे दर्जनों कार्यक्रम चलाए। ये उनके लिए राजनीतिक रूप से फायदेमंद साबित हुए और उनको दोबारा भारी बहुमत हासिल करने में सफलता के सूत्र बन गए।

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आर्थिकी बदहाल, राजनीति सुर्खरू

लेकिन यह भी सच है कि उनके पहले कार्यकाल के अंतिम साल में अर्थव्यवस्था लगातार नीचे जा रही थी, रोजगार के अवसर घट रहे थे और बेरोजगारी कई दशकों के रिकार्ड बना ऱही थी। इसी के मद्देनजर सरकार ने रोजगार की स्थिति के आंकड़े जारी नहीं किए। मीडिया में लीक होने पर उसे अधूरा बताया जबकि दूसरी बार सरकार बनने के कुछ दिनों के भीतर ही वे आंकड़े जारी कर दिए गए। तमाम राजनीतिक विश्लेषक और प्रशासकीय मामलों में अनुभवी व्यक्ति और नीतिगत मामलों के जानकार इस बात पर एक राय हैं कि दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार की प्राथमिकता लगातार कमजोर होती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना होना चाहिए था। लेकिन उन्होंने राजनैतिक एजेंडा को प्राथमिकता दी, जो दरअसल संघ के ही एजेंडे के रूप में देखा गया।

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कश्मीर कथा

यही वजह है कि कश्मीर में अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के फैसले पर अमल के खातिर बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की मौजूदगी में वहां कर्फ्यू लगा दिया गया। बड़ी संख्या में राजनीतिक और गैर-राजनीतिक गिरफ्तारियां की गईं, जिनमें तीन पूर्व मुख्यमंत्री भी शामिल थे। हालांकि, दो की हिरासत समाप्त कर दी गई है लेकिन लोकसभा चुनावों से कुछ माह पहले तक वहां की भाजपा-पीडीपी गठबंधन का नेतृत्व कर चुकीं पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती अभी भी हिरासत में हैं। कश्मीर में राजनीतिक गतिविधियां कब सामान्य होंगी, वह अभी भी अनिश्चितता के भंवर में है।

दूसरा फैसला मुस्लिम समाज में प्रचलित तीन तलाक की प्रथा को गैर-कानूनी बनाने का है। यह कानून मुस्लिम वुमन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) बिल के नाम से लाया गया। हालांकि यह विधेयक कश्मीर से जुड़े पांच अगस्त के फैसले के पहले 30 जुलाई को ही लाया गया था।

सीएए-एनआरसी विवाद

उसके बाद दिसंबर में सबसे बड़ा फैसला आया नागरिकता अधिनियम में संशोधन का, जिसे नागरिक संशोधन अधिनियम (सीएए) कहा गया। इसके तहत पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आने वाले धार्मिक रूप से प्रताड़ितों के लिए भारत की नागरिकता देने के प्रावधान आसान बनाए गए हैं। इसके तहत हिंदू, बौद्ध, जैन, ईसाई और सिख धर्म के लोगों को शामिल किया गया है। सरकार ने नेशनल पापुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) और नेशनल रजिस्टर आफ सिटिजनशिप (एनआरसी) लागू करने का भी फैसला किया। दिलचस्प बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत असम में एनआरसी लागू की गई थी और लंबी तथा जटिल प्रक्रिया के बाद उसकी जो सूची आई थी उसमें करीब 19 लाख लोग बाहर रह गए थे।

पहले पूर्वोत्तर के राज्यों में सीएए का विरोध शुरू हुआ और उसके बाद देश के अलग-अलग हिस्सों में इसका विरोध तेज हो गया। सरकार की तमाम सफाई के बावजूद लोगों ने इसे संविधान के प्रावधानों के खिलाफ बताकर इसका विरोध किया। तमाम एक्सपर्ट्स का मानना है कि भारतीय संविधान धर्म के आधार पर नागरिकता की अनुमति नहीं देता है। फिलहाल, यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है। लेकिन इसने पूरे देश में उबाल ला दिया और देश भर में सीएए के खिलाफ धरने प्रदर्शन शुरू हो गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सफाई देनी पड़ी कि देश में एनआरसी लागू करने की कोई योजना नहीं है। लेकिन केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में बयान दिया था कि देश में एनआरसी लागू किया जाएगा। हालांकि बाद में उन्होंने भी इससे इनकार कर दिया। साथ ही देश के कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने एनआरसी लागू नहीं करने की बात कही। इसके चलते एनपीआर का काम भी अटक गया।

यूनिवर्सिटी और शाहीन बाग

असल में नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला साल कई तरह की अनिश्चितताओं और राजनीतिक उथल-पुथल से भरा रहा है। इस बीच दशकों के बाद देश के विश्वविद्यालयों में सरकार विरोधी प्रदर्शन शुरू हो गए। दिल्ली ने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) का छात्र आंदोलन काफी उग्र रहा और उसके चलते कई बार दिल्ली के बड़े हिस्से प्रभावित हुए। दिल्ली की जामिया मिल्लिया इस्लामिया का सीएए के खिलाफ आंदोलन खड़ा हो गया और दिल्ली में ही सीएए के खिलाफ शाहीन बाग में महिलाओं का ऐसा धरना-प्रदर्शन शुरू हो गया, जो आजाद भारत में अपनी तरह का अनूठा आंदोलन बन गया।

लेकिन इस बीच सरकार के लिए सबसे बड़ी राहत बना कमजोर और बिखरा हुआ विपक्ष। सरकार के किसी बड़े फैसले के विरोध में विपक्ष देश भर में कहीं मजबूत नहीं दिखा और न ही वह लोगों के साथ खड़ा दिखा। संसद हो या संसद के बाहर पूरा साल लगभग विपक्षविहीन बना रहा।

चुनावी विफलताएं और ऑपरेशन

हां, इस दौरान कुछ राजनीतिक घाटा भी भाजपा को हुआ। दिल्ली के हाई वोल्टेज चुनाव में आम आदमी पार्टी ने 63 सीटें जीतकर भारी बहुमत से वापसी की, जबकि कुछ माह पहले ही हुए चुनाव में दिल्ली की सातों लोकसभा सीटें भाजपा जीत चुकी थी। लेकिन कर्नाटक में ‘ऑपरेशन कमल’ के तहत विधायकों के इस्तीफों के रास्ते भाजपा ने कांग्रेस और जेडीएस की एच.डी. कुमारस्वामी सरकार को बेदखल कर सत्ता हासिल कर ली। एक बार फिर बी.एस. येदियुरप्पा के नेतृत्व में वहां भाजपा की सरकार बन गई। इसी ऑपरेशन के तहत पार्टी ने मार्च, 2020 में मध्य प्रदेश में भी दोबारा सत्ता हासिल कर ली। लेकिन देश के बड़े राजनैतिक महत्व के राज्य महाराष्ट्र में बाजी उसके हाथ से निकल गई। सरकार बनाने की एक नाकाम कोशिश के बावजूद भाजपा को एनसीपी प्रमुख शरद पवार के राजनैतिक कौशल के चलते वहां सत्ता से बाहर होना पड़ा। देश की आर्थिक राजधानी वाले राज्य में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी की गठबंधन सरकार काबिज हो गई। इसे नरेंद्र मोदी की करिश्माई छवि और गृह मंत्री अमित शाह के राजनैतिक कौशल की पराजय के रूप में देखा गया।

दिसंबर में जो आंदोलन का माहौल शुरू हुआ, वह मार्च तक जारी रहा। इस बीच दिल्ली में भारी सांप्रदायिक तनाव के चलते उत्तर-पूर्वी दिल्ली में 22 से 24 फरवरी के बीच तीन दिन तक भयानक सांप्रदायिक हिंसा हुई और 50 से ज्यादा लोगों की जान चली गई। यह घटना उस दौरान हुई जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप दौरे पर आए थे।

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आर्थिक बहाली के उपायों का टोटा

आर्थिक मोर्चे पर जहां सरकार को तेजी से काम करना चाहिए था, वहां उसके फैसले कारगर साबित नहीं हुए। पांच जुलाई को 2019-20 के लिए पूर्ण बजट पेश किया गया और उसमें देश की अर्थव्यवस्था को 2024 तक पांच ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य घोषित करने के साथ ही बजट को इसे हासिल करने का रोडमैप बताया गया। हालांकि, यह बजट फरवरी, 2019 में पेश अंतरिम बजट का विस्तार ज्यादा और नया बजट कम था। इसके बाद फरवरी, 2020 में चालू साल (2020-21) का बजट पेश किया गया, जिसमें अर्थव्यवस्था को मंदी से उबारने की कोई मजबूत रणनीति नहीं दिखी। इसके राजस्व और विकास दर के लक्ष्यों पर भी सवाल खड़े हुए, क्योंकि पिछले वित्त वर्ष से ही आर्थिक विकास दर गिरावट के नए रिकार्ड भी बन रही है। वहीं, 25 मार्च से लागू देशव्यापी लॉकडाउन ने आर्थिक मोर्चे पर स्थिति को संभालने की नई चुनौती खड़ी कर दी है। रिजर्व बैंक ने भी मान लिया है कि चालू साल में अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आ गई है। एसबीआइ रिसर्च के ताजा अनुमान में कहा गया है कि इस सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में पांच फीसदी की गिरावट आ सकती है जबकि पहली तिमाही में यह गिरावट 40 फीसदी की हो सकती है। तमाम रेटिंग एजेंसियां और वैश्विक संगठन इसी तरह के अनुमान जारी कर रहे हैं। कोविड-19 महामारी से पैदा आर्थिक संकट ने करोड़ों लोगों को बेरोजगार कर दिया है और तमाम कंपनियां बंद होने के कगार पर हैं। साथ ही सरकार की सलाह के बावजूद कंपनियों में छंटनी जोरों पर है।

इस बीच सरकार ने मई में कोविड-19 महामारी के संकट से अर्थव्यवस्था को निकालने के लिए 20 लाख करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज घोषित किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा के बाद लगातार कई किस्तों में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस पैकेज के बारे में विस्तार से जानकारी दी। हालांकि एक्सपर्ट्स का मानना है कि यह पैकेज सीधे मदद की बात कम करता है और सरकार की भावी योजनाओं और कर्ज की सुविधाओं पर ज्यादा फोकस्ड है। अलग-अलग अनुमानों में सरकार पर पैकेज के बोझ को जीडीपी के एक से डेढ़ फीसदी के बराबर बताया गया है जबकि सरकार ने इसे जीडीपी के दस फीसदी के बराबर होने का दावा किया है। यही वजह है कि पैकेज को लेकर स्थिति बहुत साफ नहीं है कि यह संकट में फंसी अर्थव्यवस्था को कैसे पटरी पर लाएगा क्योंकि मांग की कमी के संकट से जूझ रही अर्थव्यवस्था में मांग पैदा करने का कोई बड़ा कदम इस पैकेज में नहीं दिखता। साथ ही, बड़े पैमाने पर खत्म हो रहे रोजगार बचाने की कोई पुख्ता रणनीति इसमें नहीं है। 

कोविड का संकट

सरकार को आर्थिक मोर्चे पर हालात संभालने का कुछ मौका मिलता उसके पहले ही दुनिया भर में कोविड-19 महामारी फैल गई और केरल में जनवरी, 2020 में पहले मरीज के रूप में भारत में दस्तक दे दी थी। लेकिन सरकार पहले दो माह तक इस महामारी को हल्के में लेती रही। आखिर मार्च के तीसरे सप्ताह में कदम उठाने शुरू किए, जिसके तहत 25 मार्च से देशव्यापी लॉकडाउन किया गया। 24 मार्च की रात आठ बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को संबोधित किया और चार घंटे के नोटिस पर पूरा देश बंद हो गया। जो जहां था उसे वहीं रहने की हिदायत दी गई। इसमें सरकार को देश में अंग्रेजों के बनाए 1897 के महामारी रोग कानून और 2005 में बने डिजॉस्टर मैनेजमेंट एक्ट (एनडीएमए) से मदद मिली। ये दोनों कानून केंद्र को असीम शक्तियां देते हैं और देश का कोई भी राज्य उसके फैसलों को मानने के लिए बाध्य होता है। जाहिर है, अचानक लागू लॉकडाउन के लिए राज्य पूरी तरह तैयार नहीं थे। उसके चलते पहले चरण के ल़ॉकाडाउन के शुरुआती दिनों में गरीब मजदूरों को अपने घरों को जाने का सैलाब सड़कों पर उमड़ आया, जिसे सख्ती से कुछ दिनों में रोक दिया गया। लेकिन उसके बाद ल़ॉकडाउन के चरण बढ़ते गए और अब चौथा चरण चल रहा है। इसमें चरणबद्ध तरीके से ढील भी दी गई। मजदूरों को उनके गृह राज्यों में भेजने के लिए ट्रेन और बसें चलाई गईं, जिनकी दुर्दशा भी एक अलग कहानी है (40 ट्रेनें रास्ता भटक गईं और 18-20 घंटे का गंतव्य 60-70 घंटे में पूरा कर पाईं)। आर्थिक गतिविधियां शुरू की गई। लेकिन हर चरण के साथ देश में कोरोनावायरस संक्रमितों की संख्या बढ़ती जा रही है।

राज्यों से टकराव

वहीं, इस दौरान केंद्र और राज्यों के बीच के रिश्तों में काफी तीखापन भी आया है। राज्यों की आर्थिक बदहाली नई चुनौतियां खड़ी कर रही हैं।वहीं, देश की अर्थव्यवस्था इस लॉकडाउन के चलते लगभग थम गई थी और कृषि तथा आवश्यक सेवाओं को छोड़कर करीब दो माह तक आर्थिक गतिविधियों के ठप होने के चलते करीब 12 करोड़ लोगों के बेरोजगार होने की आशंका बन गई है।

मजदूरों की गांव-घर वापसी का त्रासद मंजर देश के इतिहास का हिस्सा बन गया है। ऐसी स्थितियां प्रशासकीय क्षमता और नीतिगत खामियों की ओर जैसे इशारा कर रही हैं, उसका राजनीतिक नुकसान प्रधानमंत्री की छवि पर पड़ना तय है।

कूटनीतिक चुनौती

इस संकट में फंसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के सामने कूटनीतिक स्तर पर भी गंभीर चुनौतियां पैदा हो गई हैं। इसमें सबसे बड़ी चुनौती चीन द्वारा लद्दाख में नियंत्रण रेखा के भीतर सैनिकों को भेजने का विवाद है। वहीं, पड़ोसी देश और ऐतिहासिक रूप से भारत के करीबी रहे नेपाल के साथ भी सीमा विवाद गहराता जा रहा है। नरेंद्र मोदी के लिए यह चुनौती बड़ी साबित होने जा रही है। अगर हम चीन को इस मामले में अपने अनुकूल फैसला लेने के लिए तैयार नहीं करते, तो नरेंद्र मोदी की एक मजबूत राष्ट्रवादी नेता की छवि को देश में नुकसान हो सकता है। 

जहां तक पार्टी का मसला है तो वहां यह साफ है कि भाजपा में या मंत्रिमंडल में केंद्रीय नेतृत्व के फैसले ही सुप्रीम हैं। अगर आप केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्यों की सक्रियता और फैसलों में भागीदारी का आकलन करें, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के फैसलों की छाप ही आपको नजर आएगी। यही हाल उनकी पार्टी भाजपा का है। जेपी नड्डा अध्यक्ष तो बन गए हैं लेकिन कमान पूरी तरह उनके हाथ है, यह कहना जल्दबाजी होगी।

अगली चुनावी चुनौतियां

महामारी का प्रकोप बढ़ने और लॉकडाउन की तमाम कमियों के बीच भाजपा और मोदी को इसी साल बिहार और अगले साल पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल जैसे अहम राज्यों के विधानसभा चुनावों का सामना करना है। बिहार और बंगाल भाजपा के लिए अहम मुकाबले हो सकते हैं और वह वहां की सत्ता हासिल करने की कोशिश करेगी। यह इसलिए भी जरूरी है कि भाजपा लगातार कई राज्य हार चुकी है या जैसे-तैसे जीती है या फिर ऑपरेशन कमल के जरिए सत्ता हथियाई है। यह भी गौरतलब है कि दूसरे कार्यकाल में कश्मीर, सीएए जैसी कथित उपलब्धियां महाराष्ट्र और हरियाणा में लोगों को आकर्षित नहीं कर पाई थीं। यही वजह है कि महारष्ट्र में विपक्षी गठजोड़ को अस्थिर करने की सुगबुगाहटें भी तेज हैं।बहरहाल, अब देखना है कि मोदी का करिश्मा कितना काम करता है। लेकिन पहला साल तो उसके लिए मिलाजुला रहा है।  

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सालभर की इबारत

मोदी सरकार ने 30 मई 2019 को दूसरी बार देश की बागडोर संभाली। पिछले एक साल में पैदा हुए हालात और फैसलों की बानगी

31 मई- रिकॉर्ड बेरोजगारीः आखिर सरकार ने दिसंबर 2018 से रोकी रिपोर्ट जारी की जिसके मुताबिक, 2017-18 में बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी रही, जो 45 साल में सबसे ज्यादा थी

1 जून- विकास दर गिरीः वर्ष 2018-19 की आखिरी तिमाही में विकास दर 5.8 फीसदी रह गई जो 17 तिमाहियों में सबसे कम थी।

30 जुलाई- तीन तलाकः मुस्लिम वूमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) कानून के तहत तीन तलाक गैर-कानूनी

31 जुलाई- मोटर वाहन (संशोधन)ः यातायात नियमों का उल्लंघन करने वालों पर जुर्माना कई गुना बढ़ा।

2 अगस्त- गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम (संशोधन) अधिनियमः राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) को ज्यादा अधिकार। राज्यों के कानूनी अधिकार सीमित।

2 अगस्त- वेज कोड बिलः प्रस्तावित चार लेबर कोड में से एक वेज कोड बिल से न्यूनतम वेतन को पुनर्परिभाषित किया गया सरकार का दावा है।

5 अगस्त- जम्मू-कश्मीरः जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 के तहत जम्म- कश्मीर को विशेष दर्जा और वहां के स्थायी निवासियों को खास सहूलियत देने वाला संविधान का अनुच्छेद 370 और 35ए रद्द। इसके साथ ही जम्मू कश्मीर का का दर्जा खत्म करके विभाजित कर दिया गया। जम्मू कश्मीर और लद्दाख दो केंद्र शासित प्रदेश बने

11 दिसंबर- सीएए-एनआरसीः संसद से पारित नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) में भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में हिंदू, पारसी, इसाई, सिख, जैन और बौद्ध धर्म के नागरिकों को धार्मिक प्रताड़ना के आधार पर भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान

22 मार्च- जनता कर्फ्यूः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 23 मार्च को जनता कर्फ्यू की घोषणा करके कोविड-19 से बचाव के लिए जनता से पहला आह्वान किया

24 मार्च- देशव्यापी लॉकडाउनः कोविड-19 का संक्रमण फैलने पर 25 मार्च से 21 दिनों के लॉकडाउन का फैसला किया। उसके बाद नियमों में बदलाव करते हुए लॉकडाउन चार चरणों में लागू हो चुका है।

16 मई- कोविड राहत पैकेजः सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपये पैकेज की घोषणा की, लेकिन वास्तव में इसे दो-तीन लाख करोड़ रुपये का बताया जा रहा है

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