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बहुत देर कर दी हुजूर!

केंद्र सरकार ने हाल में एक अच्छा फैसला किया लेकिन असल में यह अब से चार साल पहले लिया गया होता तो ज्यादा...
बहुत देर कर दी हुजूर!

केंद्र सरकार ने हाल में एक अच्छा फैसला किया लेकिन असल में यह अब से चार साल पहले लिया गया होता तो ज्यादा बेहतर रहता, और उसके नतीजे भी अब तक सामने आ जाते। यह फैसला है सरकारी बैंकों के विलय का। इसके तहत बैंक ऑफ बड़ौदा, विजया बैंक और देना बैंक का विलय किया जाएगा। जाहिर है, कमजोर बैंकों का किसी मजबूत बैंक में विलय होने से बैंकों की स्थिति सुधरेगी। फिर विजया बैंक का आधार दक्षिण में बेहतर है तो देना बैंक का गुजरात में। बैंक ऑफ बड़ौदा का पश्चिमी हिस्से के साथ देश भर में अच्छा आधार है और इसका विदेशी बिजनेस काफी मजबूत रहा है। जाहिर है, नए बैंक के बिजनेस संस्थान के रूप में बेहतर होने का आधार मौजूद है। इसके अलावा विलय किए जाने वाले बैंकों के पुनर्पूंजीकरण पर सरकारी निवेश के परिणाम भी बेहतर आ सकते हैं, यह ज्यादा कारगर साबित हो सकता है। यहां तक तो सब ठीक है लेकिन असल बात है कि यह किस वक्त किया गया।

सरकारी बैंकों की खराब हालत की वजह ट्विन बैलेंसशीट रही है। इसके तहत बैंकों ने कंपनियों को बड़े पैमाने पर कर्ज दिए और कारोबार में नाकाम होने पर ये कंपनियां घाटे में चली गईं यानी उनकी बैलेंसशीट कमजोर हो गई तो इन कंपनियों को दिए गए कर्ज के डूबने या डूबत कर्ज (एनपीए) में तब्दील होने से सरकारी बैंकों की बैलेंसशीट खराब हो गई। तब सरकार पर दबाव पड़ा कि इन बैंकों की हालत सुधारने के लिए वह इनमें इक्विटी निवेश करे। इसके लिए बजटीय प्रावधान किए गए, जो नाकाफी रहे। ऐसा नहीं है कि यह अचानक हो गया। आज बैंकों का 10 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का एनपीए है। कुछ बैंकों के मामले में यह कुल कर्ज के 20 फीसदी से अधिक हो गया। पिछले दिनों जैसे नतीजे सरकारी बैंकों के आए, उसमें घाटा रिकॉर्ड छूने लगा। इसकी ओर सबसे पहले भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने ध्यान दिलाया। उन्होंने बैंकों के एनपीए के नियमों को ज्यादा पारदर्शी बनाने के साथ सख्त किया तो बीमारी सामने दिखने लगी। उसके बाद हाल तक देश के चीफ इकोनॉमिक एडवाइजर अरविंद सुब्रह्मण्यन ने कई साल पहले इकोनॉमिक सर्वे में इस समस्या को प्रमुखता से रखा और हल सुझाया। एक हल बैकों के विलय का था। खास बात यह है कि सरकार शुरुआती वर्षों में यह कदम उठा लेती तो उसके लिए परिस्थितियां अनुकूल थीं। राजस्व की स्थिति बेहतर थी और कच्चे तेल की गिरती कीमतों के चलते उसके पास अतिरिक्त संसाधन थे, जो बैंकों के बेहतर रिकैपिटलाइजेशन को आसान कर सकते थे। लेकिन उस समय सरकार ने इन सुधारवादी कदमों को उठाने के बजाय बैंकों के ऊपर वित्तीय दबाव बढ़ाने वाले दो बड़े फैसले किए। पहली थी नोटबंदी। नोटबदली के भारी दबाव के साथ ही बैंकों में जमा राशि पर बैकों पर ब्याज की देनदारी भी बढ़ी। उसके अलावा करोड़ों जनधन बैंक अकाउंट खोलने का जिम्मा भी इन बैंकों पर ही आया। इसका सरकारी बैंकों की प्रतिस्पर्धी क्षमता और कार्यकुशलता पर सीधा असर पड़ा। इसके अलावा सरकार की बीमा योजनाएं और मुद्रा योजना सभी का दबाव बैंकों के ऊपर आया। मुद्रा लोन को लेकर भी अब सवाल खड़े हो रहे हैं। यानी बैंकों की हालत सुधारने के मौके को गंवाने के साथ सरकार ने उनके ऊपर भारी बोझ लाद दिया।

अपने अंतिम साल में सरकार ने दो बड़े फैसले किए। एक, आइडीबीआइ बैंक की आधिक्य इक्विटी का भारतीय जीवन बीमा निगम को खरीदने का निर्देश दिया। इससे जीवन बीमा निगम आइडीबीआइ बैंक के घाटे को सहेगा और सरकार को रिकैपिटलाइजेशन की जिम्मेदारी से मुक्त रखेगा। यानी सरकार ने अपना जिम्मा एलआइसी पर डाल दिया, जिसमें आम आदमी ने अपनी मेहनत की कमाई का निवेश किया है। दूसरे, बैंकिंग क्षेत्र में सुधार के नाम पर तीन बैंकों के विलय का फैसला किया गया।

अब सरकार की हालत चार साल पहले जैसी नहीं है। उस समय ट्विन बैलेंसशीट की समस्या का संकट था। अब ट्विन डेफिसिट की समस्या से सरकार लड़ रही है। रुपये पर दबाव और कच्चे तेल के बढ़ते आयात के साथ कमजोर निर्यात और बढ़ते आयात ने चालू खाता घाटा को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 2.5 फीसदी पर पहुंचा दिया है। फिर, राजस्व में अपेक्षित बढ़ोतरी न होने से सरकार भारी राजनैतिक कीमत चुकाने के संकट के बावजूद पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस पर उत्पाद शुल्क में कटौती नहीं कर पा रही है। ऐसा करने पर फिस्कल डेफिसिट में बढ़ोतरी की आशंका है। इसके चलते अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग में कमी कर सकती हैं। ऐसे में रुपये पर दबाव बढ़ेगा और विदेशी कर्ज महंगे हो जाएंगे। शेयर बाजार भी दबाव में आ सकता है।

दरअसल, कोई सही फैसला भी समय पर न लेने से उसके नतीजे अपेक्षित नहीं होते हैं। बेहतर होता कि जब हालात अनुकूल थे तब बैंकों के विलय का यह फैसला किया जाता।

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