Advertisement

काठमांडूः बचाई जा सकती थी हजारों जानें

बेतरतीब निर्माण ने बढ़ाया विनाश का दायरा, सही नियोजन से 90 फीसदी नुकसान रोका जा सकता था, जापान से कुछ भी नहीं सीखा, आने वाले दिनों में बड़े भकंपों की आशंका, धरती की चट्टानों में बढ़ रही ऊर्जा की हलचल
काठमांडूः बचाई जा सकती थी हजारों जानें

धरती हिली, हिमालय कांपा और तबाह हो गया नेपाल। अब भी हिल रही है हमारे पैरों तले जमीन। दुनिया के इस हिस्से की धरती की चट्टानों में बेचैनी है। धरती के गर्भ में अभी ऊर्जा की हलचल जारी है जो भूकंप के रूप में कभी भी प्रकट हो सकती है। धरती कब और कितनी तेजीसे हिलने लगेगी, इसके बारे में कोई ठीक-ठीक नहीं बता सकता।

 आफ्टरशॉक्स का खौफ

भूकंप के बाद के आफ्टरशॉक्स से दुनिया का यह हिस्सा बेतरह परेशान और आशंकित है। इनसान के बौनेपन और विज्ञान की सीमा को हमारे चेहरे पर चस्पां कर गया नेपाल के लामजुंग में केंद्रित 7.9 रेक्टर स्केल का भूकंप। हर सूं तबाही का मंजर। मौतों का हिसाब बेमानी। तबाही का ब्यौरा देना मुश्किल। हर तरफ पसरे दुख ने सिर्फ दिलो-दिमाग पर ही शोक की चादर नहीं डाली बल्कि कलम को भी हिला दिया।

खबर लिखे जाने तक 10,000 लोगों की मौतों की आशंका जताई जा रही थी।इसमें दूर-दराज में हुई मौतों का ब्यौरा शामिल नहीं था। भारत सहित चीन, पाकिस्तान, इस्राइल सहित दूनिया भर से मदद का हाथ बढ़ा।

अकेला नेपाल ही नहीं हिला, उससे सटे भारत के इलाकों में भी थरथराहट महसूस की गई। बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल में जान-माल का नुकसान हुआ (देखें बॉक्स), लेकिन नेपाल में तबाही ने उसके पूरे चेहरे को ही बदल दिया। अपने नए संविधान को रचने में मशगूल नेपाल पर दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत एवरेस्ट से लेकर धरती की सतह से 15 किलोमीटर (लामजुंग में भूमि सतह से 15 किलोमीटर नीचे था भूकंप का केंद्र) नीचे से दोतरफा मार हुई।

 मानो भीषण बमबारी का शिकार हो काठमांडू

नेपाल की राजधानी काठमांडू तो भीषण युद्ध में हुई भीषण बमबारी के बाद तबाह हुआ शहर दिख रहा है। यूनेस्को से मान्यता प्राप्त छह ऐतिहासिक धरोहरों में से चार पूरी तरह तबाह हो चुकी हैं। काठमांडू शहर का विहंगम दृश्य दिखाने के लिए मशहूर ऐतिहासिक धाराहरा टावर पर्यटकों को लिए-दिए गिर गया। देसी-विदेशी पर्यटकों का पंसदीदा अड्डा पाटण स्क्वायर गिरे हुए ढांचों से अट गया। नेपाल से निकलने वाले अखबार नेपाली टाइम्स के संपादक कुंदा दीक्षित ने इस तबाही के बारे में कहा कि सांस्कृतिक रूप से इसे नापा नहीं जा सकता। यह विरासत का ध्वंस है। हालांकि धरोहरों को दोबारा ठीक किया जा सकता है।

 एवरेस्ट से कमाई पर ग्रहण

नेपाल की अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा की चमक देने वाला एवरेस्ट बुरी तरह हिल गया है। इस आपदा में चोटी को फतह करने के मिशन पर निकल 30 से अधिक पर्वतारोहियों की जान गई। इससे नेपाल की अर्थव्यवस्था पर गाज गिरी और आने वाले सालों में भी पर्वतारोहियों की संख्या में भीषण कटौती के रूप में उसे यह झेलना पड़ सकता है (देखें बॉक्स)। पानी-बिजली-रसोई गैस-दवाई-इलाज का अभूतपूर्व संकट नेपाल झेल रहा है और जैसे-जैसे लाशों को निकालने में समय लग रहा है उससे महामारी फैलने की आशंका बलवती हो रही है। नेपाल के लुंबिनी शहर के पास रहने वाले टीकाराम कहते हैं, 'हम तबाह हो गए हैं लेकिन हमारे पशुपतिनाथ सुरक्षित हैं। हमें फिर से खड़ा होना ही होगा। जो बचे हैं उन्हें जिंदा रहना पड़ेगा।’यही भावना नेपाल की राजधानी में दिखाई दे रही है। बड़ी संख्या में नौजवान, विदेशी सब मलबा उठाने में लगे हैं। नेपाल के 29 जिले संकटग्रस्त घोषित किए गए हैं।

 लामजुंग का अता-पता नहीं

भूकंप का केंद्र रहा लामजुंग इलाका खबर लिखे जाने तक संपर्क से कटा हुआ था और यह पूरी तरह तबाह बताया गया। लामजुंग के पास लापरक और बारपक गांवों के 1000 घरों में से 90 फीसदी घर गिर गए हैं। इस पूरे इलाके में भीषण तबाही है, जिसका ठीक-ठीक पता भी नहीं चल पाया है। गोरखा जिले के वरिष्ठ अधिकारी उधव प्रसाद ने बताया कि सारी खबरें काठमांडू से ही आ रही हैं, जबकि दूर-दराज के पहाड़ी इलाकों में ज्यादा खराब हाल हैं।

 और भी आएंगे भूंकप

इस भूकंप के बाद से ही तमाम तरह के कयासों की जमीन भी गरम हो गई है। भू-वैज्ञानिकों का मानना है कि धरती के इस हिस्से में अभी ऊर्जा की हलचल बहुत है। यह ऊर्जा भूकंप के रूप में ही बाहर आएगी। इसे समझने के लिए जरूरी है इस इलाके की पारिस्थितिकी समझना। आखिर क्या घटित हो रहा है धरती के नीचे? हिमालयी इलाका भारतीय और यूरेशियाई टेक्टोनिक प्लेटों का मिलन बिंदु है और उनके आपस में टकराने से ही इस इलाके में ज्यादातर भूकंप आते हैं। भूविज्ञानी कहते हैं कि भारतीय प्लेट उत्तर और उत्तर-पश्चिम की तरफ खिसक रही है और इस कोशिश में भारतीय प्लेट यूरेशियाई प्लेट के नीचे घुसी जा रही है। नतीजा भूकंपों के रूप में हमारे सामने है। यह हम सब जान रहे हैं कि धरती के गर्भ में इसके चलते जमा हो रहा तनाव जब ऊर्जा की शक्ल में बाहर आने को आतुर होता है तो कंपन पैदा होता है। लेकिन विज्ञानियों में सबसे बड़ी चिंता इस बात से है कि जितनी ऊर्जा नीचे जमी पड़ी है, वह इन भूकंपों में भी बाहर आ नहीं रही है। इसीलिए इस बात की आशंका जाहिर की जा रही है कि अभी इस इलाके को और तगड़ा और भीषण झटका झेलना बाकी है।

नेपाल में आया भूकंप रेक्टर स्केल पर 7.9 तीव्रता का था। तीव्रता के लिहाज से इससे बड़ा भूकंप इस इलाके में अस्सी साल पहले 15 जनवरी 1934 को 8.3 तीव्रता का था। हालांकि हिमालय के पूर्वी छोर पर अरुणाचल प्रदेश-चीन सीमा पर 15 अगस्त 1950 को 8.5 तीव्रता का भूकंप आया था।

 इसके बाद के समय में हालांकि भूकंप तो कई बार आते रहे लेकिन बड़े विनाशकारी भूकंपों में 1999 का उत्तरकाशी का भूकंप ध्यान में आता है। सन 2011 में भी सिक्किम-नेपाल सीमा पर 6.8 तीव्रता का भूकंप आया था। हैदराबाद स्थित भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान के पूर्व निदेशक और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के भी सदस्य रह चुके हर्ष के. गुप्ता का कहना है कि इस इलाके में जमीन के नीचे संचित ऊर्जा का अंदाजा लगाएं तो इस भूकंप से उसका चार-पांच फीसदी भी बाहर नहीं आया होगा। इसी कारण यह आशंका जताई जा रही है कि इस इलाके को 8 की तीव्रता से भी कहीं ज्यादा भीषण भूकंपों को अभी झेलना है। हिमालयी इलाके में भूकंपीय गतिविधियों का अध्ययन कर चुके आईआईटी, खडग़पुर के प्रो. शंकर कुमार नाथ का कहना है कि 25 अप्रैल के भूकंप से जितनी ऊर्जा बाहर आई है, उसके हिसाब से इस भूकंप को मध्यम स्तर का ही माना जा सकता है। हिंदूकुश पर्वत शृंखला से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक 2500 किलोमीटर का हिमालयी क्षेत्र रेक्टर स्केल पर 9 तक की तीव्रता वाले भूकंप पैदा करने में सक्षम है।

किसी भी 8 की तीव्रता वाले भूकंप की तुलना में 9 की तीव्रता वाला भूकंप दस गुना बड़ा होता है लेकिन 32 गुना ज्यादा मारक होता है। भूकंप की तीव्रता का यह अंक दरअसल एक सीस्मोग्राफ पर भूकंपीय लहरों की ऊंचाई को प्रतिबिंबित करता है। इसीलिए चिंता न केवल आगे आने वाले भूकंपों की है बल्कि तगड़े भूकंप के बाद आने वाले झटकों की भी है क्योंकि बड़े भूकंप के आफ्टरशॉक भी उतने ही तीव्र होते हैं। इस तरह के झटके किसी भूकंप के आने के दो महीने बाद तक महसूस किए जा सकते हैं। इसलिए एक तरफ तो किसी बड़े भूकंप का खतरा हमेशा कायम रहेगा, भूकंप के बाद के आए झटकों का खौफ भी बना रहेगा।

बेतहर नियोजन से बचाव

विशेषज्ञों का कहना है कि चूंकि भूकंप की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती इसलिए विनाश से बचने का एकमात्र रास्ता सावधानी और बेहतर नियोजन है। देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के अजय पाल का कहना है कि भूकंप से होने वाले नुकसान का नब्बे फीसदी बेहतर नियोजन से बचाया जा सकता है। उन्होंने इस संबंध में जापान का उदाहरण दिया कि वहां 7.5 की तीव्रता के भूकंप आना सामान्य है लेकिन वहां न किसी की जान जाती है और न संपत्ति का ही उतना नुकसान होता है। करना चाहें तो हम भी वैसा ही कर सकते हैं। नेपाल की राजधानी काठमांडू में हुई इतनी भीषण तबाही की एक बड़ी वजह पिछले दो-तीन दशकों में हुआ अनियंत्रित विनिर्माण है।

 की थी भविष्यवाणी

इसे लेकर भी वैज्ञानिक खेमे बंटे हुए हैं कि भूकंप की भविष्यवाणी की प्रणाली क्यों नहीं विकसित की गई है। हालांकि तीन भारतीय भू-वैज्ञानिकों ने तीन महीने पहले यह भविष्यवाणी की थी कि हिमालय पर्वतमाला में तगड़े भूकंप की आशंका है। बेंगलूरू के जवाहर नेहरू सेंटर फॉर एडवांस साइंटिफिक रिसर्च के सीपी राजेंद्रन, कोलार गोल्ड फील्ड्स के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रॉक मेकैनिक्स के बीजू जॉन और बेंगलूरू के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के कुसाला राजेंद्रन ने अपने शोध में लिखा था कि चूंकि केंद्रीय हिमालय के अग्रिम थ्रस्ट में लंबे समय से भूगर्भीय हलचल नहीं हुई थी, लिहाजा यहां बड़े भूकंप की आशंका है।

 इनका शोध हाल ही में एक शोध पत्रिका जियोफिजिकल रिसर्च :सॉलिड अर्थ में प्रकाशित हुआ था। इन वैज्ञानिकों ने पिछली सदी का उदाहरण देते हुए कहा कि 1934 में नेपाल-बिहार, 1950 में असम और 1905 में कांगड़ा में बड़ा भूकंप आया था, इसलिए भूगर्भीय घर्षण से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा बाहर निकलने को तैयार होगी। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की सदस्य अंजलि क्वात्रा का कहना है कि वैज्ञानिक जगत के लिए यह बड़ी चुनौती है कि अभी तक भूकंप की भविष्यवाणी का कोई तरीका नहीं निकल पाया है। अभी जोर एहतियात और बचाव पर रहता है।

 किस तरह की इमारतें बनाई जाएं, यह चाह कर भी दक्षिण एशिया के नियोजनकर्ता जापान से सीखने को तैयार नहीं हैं। हालांकि  विशेषज्ञ डी.रघुरामन यह सवाल उठाते हैं कि जब हम अंतरिक्ष को फतह करने में लगे हुए हैं तो धरती के भीतर अपने अध्ययन को पैना क्यों नहीं कर रहे। कितनी अजीब बात है कि पृथ्वी के पांच-दस किलोमीटर के नीचे की जानकारी भी हमारे पास बहुत कम है। भूगर्भीय संरचना और फाल्ट लाइंस, जिन्हें भूगर्भीय परतों का जोड़ कहा जाता है, के आधार पर भूकंप संभावित इलाकों की शिनाख्त कर ली गई है।

 सावधानी नहीं बरतते

दिक्कत यह है कि जिन सावधानियों का हमें पालन करना चाहिए उनका हम मजाक उड़ाते हैं। इन इलाकों के हिसाब से न तो हम मकान बनाते हैं और न ही अपनी परियोजनाएं लगाते हैं। भारत में दो परमाणु संयंत्र ऐसे ही भूकंप संभावित जोन में लगाए जा रहे हैं, महाराष्ट्र का जैतापुर और गुजरात का मीठी वरदी दोनों ऐसे जोन में हैं। हरियाणा के यमुनानगर में लगने वाला परमाणु संयंत्र भी खतरे वाले इलाके में है। भारत के कम से कम 38 शहर उच्च भूकंप जोन में हैं और 59 फीसदी हिस्सा भूकंप के लिए संवेदनशील परिधि में आता है। इसमें से करीब 11 फीसदी खरनाक जोन में हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर इस भूकंप का केंद्र देश की राजधानी दिल्ली के आसपास होता तो आधी दिल्ली तबाह हो गई होती।

 भारत पर भी खतरा

इसलिए हम भले ही फिलहाल यह सोचकर राहत महसूस कर रहे हों कि नेपाल में आए भूकंप से भारत में नुकसान उतना ज्यादा नहीं हुआ, लेकिन वैसी किसी आपदा का खतरा हमारे सिर पर भी उतना ही मंडरा रहा है जिसे इस समय नेपाल झेल रहा है। सन 2001 में गुजरात में भुज में आए भूकंप के बाद साइंस पत्रिका हिमालयन सीस्मिक हेजार्ड में प्रकाशित एक प्रपत्र में यह अंदेशा जताया गया था कि हिमालयी भूकंप से पांच करोड़ से ज्यादा लोगों को खतरा है और भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान और बांग्लादेश, सभी की राजधानियां भविष्य में किसी भूकंप के चपेटे में आ सकती हैं। उस रिपोर्ट को 13 साल बीत चुके। आबादी भी बढ़ी है, आबादी का घनत्व भी और घनी आबादी वाले इलाकों में माचिस के डिब्बियों की तरह खड़ी होती असुरक्षित इमारतों की तादाद भी। आगे किसी भूकंप की आशंका में विनाश का अनुमान लगाते हुए भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हम समय रहते न जागे तो जागने के लिए बचेंगे भी नहीं। पृथ्वी तो अपनी करवट लेगी ही।

Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad