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उत्तराखंड ग्लेशियर आपदा: अभिशप्त भूमि

 “चमोली आपदा भारी जोखिम वाले हिमालय की प्राकृतिक संरचना बदलने की कोशिश पर दोबारा चेतावनी...
उत्तराखंड ग्लेशियर आपदा: अभिशप्त भूमि

 “चमोली आपदा भारी जोखिम वाले हिमालय की प्राकृतिक संरचना बदलने की कोशिश पर दोबारा चेतावनी जैसी”

उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है। फिर तो, पिछले 30 साल से देव जरूर नाराज होंगे। 1991 में उत्तरकाशी के भूकंप में 768 लोगों की जान गई थी। 1998 में मलपा भूस्खलन में 221 लोग मारे गए। 1999 में चमोली में भूकंप से 103 लोग काल के गाल में समा गए। 2013 में केदरनाथ में आई बाढ़ 5,700 लोगों को अपने साथ ले गई। कई छोटे-मोटे हादसे भी लगातार होते रहे हैं।

ये आपदाएं भूकंप या सैलाब की वजह से हुई हैं, कुछेक बार दोनों साथ-साथ आईं। येल यूनिवर्सिटी से फॉरेस्ट इकोफिजियोलॉजी में पीएचडी राजेश थडाणी कहते हैं, ‘‘हिमालय पर्वत नया और कच्चा है। यह आलप्स पर्वतमाला जैसा नहीं है। इसमें भूस्खलन और भूकंप जैसी भौगोलिक प्रक्रियाएं चलती रहती हैं। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन से हालात और बिगड़े हैं। अगर सरकार इसे प्राकृतिक आपदा कहती है तो महज दूरदृष्टि का अभाव ही दिखता है। यह ठीक वैसा ही जैसे कोई ऐसी चट्टान पर जा बैठे, जिसके बारे में उसे पता हो कि वह गिरने वाला है और उसके गिरने पर वह कहे कि हम क्या कर सकते थे!’’

ऐसा लगता है कि आपदा दर आपदा हम बिना किसी योजना या दूरदृष्टि के आगे बढ़ते जाते हैं। आपदा के बाद पहला बुनियादी काम तथ्यों की जानकारी के लिए समिति का गठन है। तथ्यों को जानकर ही भविष्य की आपदाओं को रोका जा सकता है। लेकिन 2013 की प्रलंयकारी बाढ़ के बाद भी यह नहीं किया गया। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनआइडीएम) की इकलौती रिपोर्ट सिर्फ बारिश की बात करती है। उसमें मूल वजहों के बजाए बचाव कार्य पर ज्यादा फोकस है। यानी हमारी दिलचस्पी रोकथाम के उपायों से ज्यादा दवा-दारू में है। सो, आश्चर्य नहीं कि हम पिछले पखवाड़े चमोली की आपदा का अनुमान नहीं लगा सके। आपदा टूट पड़े तो हताशा में हाथ उठा देना कोई रणनीति नहीं होती।

अगस्त 2013 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के.एस. राधाकृष्णन ने कहा था, ‘‘बांध, सुरंग, विस्फोट, बिजलीघर, मिट्टी-गाद के निस्तारण की व्यवस्था, खनन, वनों की कटाई जैसी परियोजना के तमाम पहलुओं की पारिस्थितिकी पर कुल मिलाकर असर के बारे में अभी वैज्ञानिक पड़ताल की जानी बाकी है।’’ उस फैसले में कहा गया कि उत्तराखंड में जारी सभी परियोजनाएं रोक दी जाएं। न्यायाधीश ने ‘‘कुकुरमुत्तों की तरह हर ओर शुरू हो रही पनबिजली परियोजनाओं’’ पर भी गहरी चिंता जाहिर की थी।

इस फैसले के आधार पर अप्रैल 2014 में रवि चोपड़ा की अगुआई में विशेषज्ञ समिति ने 23 पनबिजली परियोजनाओं को रोक देने की सिफारिश की थी। समिति ने बड़ी नदी घाटियों की रणनीतिक पर्यावरण आकलन की भी सिफरिश की थी।

आश्चर्य नहीं कि हम पिछले पखवाड़े चमोली की आपदा का अनुमान नहीं लगा सके। आपदा टूट पड़े तो हताशा में हाथ उठा देना कोई रणनीति नहीं होती

यह भी जरूरी है कि कम दूरी पर बनाए गए बांधों के असर का भी अध्ययन किया जाए। 2013 में ऐसे आठ बांध टूटे, जिनसे बाढ़ भयावह विपदा ले आई। साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर ऐंड पीपुल (एसएएनडीआरपी) संस्था चलाने वाले और इस मामले में विशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर कहते हैं, ‘‘जब भी ऐसा कोई ढांचा टूटता है तो नदी में ज्यादा ताकत और मलबे आ जाते हैं। फिर भी बांध आसपास ही बनाए जा रहे हैं। उत्तराखंड में अलकनंदा नदी 195 किमी. लंबी है और फिलहाल उस पर 14 बांध बन गए हैं या बनने की प्रक्रिया हैं। इसका मतलब यह है कि हर 14 किमी. पर एक बांध। इसके अलावा अलकनंदा और उसकी सहायक नदियों पर और 23 बांध बनाने की योजना है। चमोली आपदा में नेस्तनाबूद हुआ ऋषिगंगा बिजली संयंत्र इसमें एक है।

फिर, भूकंप आशंकित जोन में ऐसी परियोजनाएं और भी घातक हैं। उत्तराखंड जोन 5 में है, यानी देश में सबसे ज्यादा भूकंप का जोखिम वाला इलाका है। फिर भी सरकार चार धाम और रेल जैसी भारी-भरकम इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं पर अमल करने पर तुली हुई है। इसका मतलब है बड़े पैमाने पर विस्फोट और खुदाई। और यह सब कुछ उन पर्वतों पर हो रहा है जहां भूस्खलन का भारी जोखिम है। 2013 की आपदा पर ‘रेज ऑफ रिवर’ के लेखक हृदयेश जोशी कहते हैं, ‘‘कई इलाकों में सड़क पहाड़ के किनारे काटी जा रही है, जिसका मतलब है कि सभी मलबे नदियों में गिरते हैं।’’ ठक्कर कहते हैं, ‘‘किसी भी 100 किमी. से लंबे राजमार्ग के लिए पर्यावरण आकलन, जन सुनवाई और मूल्यांकन की दरकार होती है। इसलिए चार धाम परियोजना को 20-30 किमी. की कई छोटी परियोजनाओं में तोड़ दिया गया है और किसी मंजूरी या जन सुनवाई के बिना काम शुरू कर दिया गया। जब सुप्रीम कोर्ट में याचिका पहुंची तो यह निर्विवाद तथ्य था।’’

चार धाम परियोजना की कीमत सड़क के लिए 12,000 करोड़ रुपये और रेल के लिए 43,000 करोड़ रुपये से अधिक है। सुरंगें खोदने, पर्वतों में विस्फोट और नदियों को रोकने पर कुल 55,000 करोड़ रुपये खर्च होंगे। इसे इस संदर्भ में देखें कि उत्तराखंड में महिला साक्षरता सिर्फ 69 फीसदी है पर राज्य सरकार ने शिक्षा पर 2018-19 में सिर्फ 7,487 करोड़ रुपये खर्च किए गए। इससे यह सवाल तो उठता ही है कि हमारी प्राथमिकताएं क्या हैं? हम ऐसे चट्टान के नीचे यह सोचकर बैठे हैं कि चट्टान गिरेगी नहीं। दरअसल हम चट्टान अनजान आबादी की ओर ढकेल रहे हैं। साथ ही इस बात को लेकर बेफिक्र हैं कि वह गिर भी सकता है। और जब चट्टान गिरता है तो हम हाथ खड़े कर देंगे, ट्वीट करने लगेंगे कि राज्य और देश खड़ा है। अगली आपदा के लिए वक्त बस कुछ ही दूर है, और हम फिर उससे चौंकेंगे।

(लेखक उत्तराखंड में सतखोली गांव के रहने वाले हैं। वहां वे वेबसाइट www.himalayanwritingretreat.com चलाते हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

 

 

 

 

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