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लाल किले की घटना आंदोलनकारियों से ज्यादा मौजूदा सरकारी तौर-तरीकों के लिए सबक

अराजकता और हिंसा किसी सकारात्मक नतीजे की ओर नहीं ले जाती, इसलिए वह दुखद और निंदनीय है। इस मायने में दो...
लाल किले की घटना आंदोलनकारियों से ज्यादा मौजूदा सरकारी तौर-तरीकों के लिए सबक

अराजकता और हिंसा किसी सकारात्मक नतीजे की ओर नहीं ले जाती, इसलिए वह दुखद और निंदनीय है। इस मायने में दो महीने से हाड़ कंपाने वाली ठंड में दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों के अनूठे आंदोलन के लिए यह यकीनन झटका है। आंदोलनरत किसान यूनियनों और किसान संयुक्त मोर्चे ने न सिर्फ लाल किले की घटना की निंदा की है, बल्कि उसे ‘‘कुछ उपद्रवी तत्वों’’ की शरारत बताया है, ‘‘जिनकी मंशा आंदोलन को कमजोर करने की रही है।’’ सरकार कह सकती है कि उसे तो पहले ही अंदेशा था। लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसी अराजक परिस्थितयां पैदा करने वाले तौर-तरीके कम जिम्मेदार हैं? क्या ट्रैक्टर परेड के रूट को लेकर पूर्व संध्या तक असमंजस इसकी कम बड़ी वजह थी, जिससे शायद उपद्रवी तत्वों को तीन-तीन, चार-चार सौ किलोमीटर से तमाम पुलिसिया रुकावटों को पार करके ट्रैक्टर लेकर आए और लंबे आंदोलन से ऊब चुके किसानों की भावनाओं से खेलने का मौका मिला? क्या उपद्रव की आंच को सुलगाने के लिए सरकारी अहमन्यता ने किसी भी तरह का कम योगदान किया? क्या संवैधानिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर, हकीकत से दो-चार हुए बिना, संबंधित पक्षों की सुने बगैर, कानून बना देना और फिर उसे नाक का सवाल बना लेना, लोगों के धैर्य की परीक्षा लेने जैसा नहीं है? परीक्षा भी ऐसी जैसी आजाद भारत में तो देखी-सुनी ही नहीं गई। अगर इसमें दिल्ली पहुंचने से रोकने के पुलिसिया तौर-तरीकों, सरकारी पक्ष और मीडिया के एक बड़े वर्ग के जरिए आंदोलन को तरह-तरह के नामों से बदनाम करने की कोशिशों, सुप्रीम कोर्ट की बनाई कमेटी को लेकर अविश्वास, एजेंसियों की तरह-तरह की नोटिसों वगैरह को जोड़ लें तो भावनाओं की हांड़ी में उबाल पैदा करने वाले सवालों की आंच की फेहरिस्त लंबी होती चली जाएगी।

पहले इसी पर गौर कर लें कि ट्रैक्टर परेड को लेकर 25 जनवरी की देर शाम या कहें रात तक कैसा असमंजस बना हुआ था। किसान संयुक्त मोर्चा और दिल्ली, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश पुलिस के बीच चार दौर की बातचीत के बाद 24 जनवरी को दिल्ली पुलिस के हवाले से खबर आई कि तीन रूट पर सहमति बनी है, जो सिंघू बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर और गाजीपुर बॉर्डर से निकलेगा, जबकि अभी बातचीत जारी थी। 25 जनवरी को भी दिन भर बातचीत जारी रही और शाम को संयुक्त किसान मोर्चा ने ऐलान किया कि ट्रैक्टर परेड के नौ चक्र बनेंगे। सिंघू बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर, गाजीपुर बॉर्डर, ढांसा बॉर्डर, चिल्ला बॉर्डर से ट्रैक्टर परेड दिल्ली के बाहरी इलाकों से होकर लौट जाएगी। पलवल बॉर्डर, शाहजहांपुर बॉर्डर और दो अन्य जगहों से दिल्ली की सीमा पर आकर लौट जाएगी। लेकिन उसके बाद दिल्ली पुलिस ने 37 शर्तों की एक नोटिस जारी की कि सिर्फ तीन रूटों और 5,000 टैक्टरों की ही अनुमति दी गई है। कोई चाहे तो इस अनुमति की भाषा पर भी गौर कर सकता है क्योंकि पुलिस के प्रवक्ता सहमति शब्द का प्रयोग कर रहे थे। उधर, किसान नेता भी आखिर वक्त की घटनाओं पर काबू नहीं रख पाए। किसानों और ट्रैक्टरों का हुजूम रात तक ऐसे उमड़ रहा था कि उनकी व्यवस्था के सारे प्रबंध चरमरा गए। बहुत सारे लोग यही नहीं समझ पाए कि सिर्फ दिल्ली के बाहर-बाहर परिक्रमा का क्या औचित्य है? इसी में शायद उपद्रवी तत्वों को मौका मिल गया और सिंघू बॉर्डर पर देर रात तक कुछ इस तरह के नारे गूंजते रहे कि ‘परेड रोड, रिंग रोड।’ फिर 26 जनवरी की सुबह अफरातफरी का आलम हो गया। दिल्ली में सिंघू बॉर्डर, मुबारक चौक, नांगलोई, आइटीओ और लाल किले की घटनाओं के अलावा पलवल से फरीदाबाद की ओर आ रहे किसानों पर भी लाठीचार्ज हुई क्योंकि उन्हें पुलिस के मुताबिक इधर आने की अनुमति ही नहीं थी।

लाल किले में भी जब प्रदर्शनकारी पहुंचे तो पहले पुलिस को चुपचाप बैठे देखा गया, जिससे कई रिपोर्टरों को हैरानी हुई। प्रदर्शकारियों को कैसे अंदर जाने और प्राचीर पर बिना रोकटोक चढऩे दिया गया, यह भी रहस्य है। हालांकि बाद में पुलिस सक्रिय हुई तो प्रदर्शकारियों के साथ कई पुलिसवाले भी जख्मी हुए। प्राचीर पर जो जत्था चढ़ा, उसमें गायक-कलाकार दीप सिद्धू था, जिस पर किसान यूनियनों ने कई तरह के आरोप लगाए हैं, जिसमें उसके भाजपा से संबंधों के आरोप भी हैं। उसे पंजाब में पहले भी आंदोलन से हटाया जा चुका था। उसे हाल में एनआइए की नोटिस भी मिली थी। वहां पहुंचे दूसरे किसान नेताओं का कहना था कि झंडा फहराने की कोई योजना नहीं थी। हालांकि आम किसान इससे खुश था कि चलो कुछ तो हुआ। किसान फिर लौट भी गए।

 फिर यह भी गौर करना चाहिए कि आंदोलनकारी किसानों के धैर्य की परीक्षा कब से ली जा रही है। अगर पिछले साल जून में कृषि संबंधी तीन अध्यादेशों (जो सितंबर में कानून बन गए) के खिलाफ शुरू हुए पंजाब में आंदोलन को जोड़ लें तो आठ महीने से किसान सडक़ों पर हैं और सरकार के साथ कई दौर की बातचीत भी कोई हल नहीं दे सकी है। इन महीनों में ठंड, खुदकशी, दुर्घटनाओं, पुलिसिया झड़पों में डेढ़ सौ से ज्यादा किसानों की मौत हो चुकी है। ये तमाम वजहें, जाहिर है, ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना को बुलावा दे गईं, जो हर किसी को हतप्रभ कर गई। हालांकि इससे इस मुद्दे की गंभीरता का ही अंदाजा लगता है। किसान संयुक्त मोर्चे को नए सिरे से गौर करना चाहिए कि आंदोलन को कैसे आगे बढ़ाया जाए। उसके लिए मोर्चा अब और कठिन हो गया है। उसके सामने अब दो चुनौतियां हैं। एक, सरकार से जुझने के क्या तरीके हों, और दूसरे, आंदोलन को दोफाड़ होने और कमजोर पडऩे से कैसे बचाया जाए। उधर, सरकारी पक्ष अगर इसका नतीजा यह निकालता है कि पुलिस और फौज के बल प्रयोग से निपटा जाए तो उसके अंजाम भयावह हो सकते हैं। किसानों से निपटने के लिए उसके वे तरीके कामयाब शायद न हों, जो उसने बाकी तमाम मामलों में अपनाए हैं। सडक़ें खोद डालना, सात-सात, आठ-आठ बैरिकेड लगाना, आंसू गैस के गोले, पानी की बौछारों के बाद अब गोली या प्लास्टिक के छर्रों की फायरिंग ही तो बची है, जो उपद्रवग्रस्त इलाकों में प्रदर्शनकारियों को रोकने के तरीकों के तौर पर अपनाए जाते रहे हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि इसके बदले समाधान के तरीके अपनाए जाएंगे।

टकराव 1 फरवरी को भी आशंकित है जब सरकार संसद में बजट पेश करेगी और किसान संयुक्त मोर्चा अपने संसद घेराव के कार्यक्रम पर आगे बढ़ेगा। इसलिए लोकतंत्र के हक में यही है कि इसका जल्दी से जल्दी समाधान निकले और हर किसी को सद्बुद्धि और सन्मति मिले।

 

 

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