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कटघरे में संघ नहीं ‘जनता की सामूहिक चेतना’ है

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सटे दादरी में बीफ खाने की अफवाह फैलाकर सांप्रदायिक उन्मादियों द्वारा एक मुस्लिम परिवार पर हमला करके 50 वर्षीय एखलाक नाम के व्यक्ति की हत्या राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना हुआ है। कटघरे में संघ परिवार है, जिसके कुछ लोग इसे गलतफहमी में की गई हत्या बता रहे हैं तो कुछ इसे अत्यधिक जोश में की गई कार्रवाई।
कटघरे में संघ नहीं ‘जनता की सामूहिक चेतना’ है

जहां तक प्रशासनिक रवैये का सवाल है उसकी पहली कोशिश दोषियों को पकड़ने के बजाए जांच के लिए गोश्त का सैंपल इकठ्ठा करना रहा, जिससे पुलिस और हत्यारी भीड़ की मानसिक एकरूपता को समझा जा सकता है। हालांकि गाय को लेकर खाकी की यह संकीर्ण मानसिकता कोई पहली बार प्रदर्शित नहीं हुई है। वर्ष 2012 में हुए फैजाबाद दंगे के दौरान भदरसा नामक गांव में भी पीएसी और पुलिस ने खुद मुस्लिम पीडि़त के घर से गाय को खूंटे से खोल कर भगा दिया और उनकी बकरियों को जिंदा जला दिया था।

बहस में लोग भाजपा नेताओं के बयानों को बर्बरता का बचाव करने वाला और
लोकतंत्र विरोधी बता रहे हैं। लेकिन क्या इन प्रतिक्रियाओं से संघ परिवार
को कुछ फर्क पड़ेगा, यह एक अहम सवाल है क्योंकि उसकाअंतिम लक्ष्य धर्मनिरपेक्ष भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करना है। इसी के लिए वह लोकतंत्र का चुनावी इस्तेमाल करती है। ऐसे में यह सवाल और गंभीर हो जाता है कि लोकतांत्रिक मूल्यों  आस्था रखने वाले लोग उससे किस लहजे में मुखातिब हों।
दरअसल, ऐसी किसी बर्बर घटना के बाद जब संघ परिवार से जुड़े लोग ऐसे बयान
देते हैं, तो उन्हें यह पता होता है कि इसके लिए उनकी आलोचना होगी। बावजूद
इसके वे ऐसा एक रणनीति के तहत करते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि ऐसे
बयानों से उनके निचले स्तर के कार्यकर्ता खुश होंगे
और इस तर्क के आधार पर वे उग्र हिंदुत्ववादी राजनीति के खामोश समर्थक
हिंदू तबके को भी, जो अपने को उदार बताता है, या तो अपने साथ सहमत कर
लेंगे या फिर उसे न्यूट्रल कर लेंगे।
यह रणनीति इसलिए भी कारगर है कि मौजूदा केंद्र सरकार में ऊपर से
लेकर नीचे तक सरकारी ओहदों पर ऐसे अनेक लोग विराजमान हैं जिन पर
सांप्रदायिक हिंसा भड़काने या उसमें शामिल होने के आरोप हैं। ऊपर से
नीचे की ओर गिरने वाली राजनीतिक संस्कृति में किसी भी निचले पायदान के
कार्यकर्ता के लिए ऐसे बयान न सिर्फ उसके हौसले बुलंद करते हैं बल्कि
उनमें इन्हीं जरियों से आगे बढ़ने की इच्छाशक्ति भी बढ़ती जाती है।
दरअसल, हर सत्ता का अपना एक समाजशास्त्र होता है। इस समाजशास्त्र के
अनुरूप जनता भी व्यवहार करना चाहती है ताकि उसकी पहुंच सत्ता केंद्रों तक
हो सके। चूंकि सत्ता में अभी एक ऐसी पार्टी है जिसका घोषित एजेंडा ही
मुस्लिम विरोध है,इसलिए किसी भी शासन-सत्ता तक पहुंच बनाने की
इच्छाशक्ति रखने वाले व्यक्ति या भीड़ के लिए मुस्लिम विरोधी हिंसा में
शामिल होना बहुत स्वाभाविक हो जाता है। यहां उदाहरण के लिए मैं उत्तर
प्रदेश के फैजाबाद जिले की एक घटना का जिक्र करूंगा जिसमें एक हिंदू और
मुस्लिम व्यक्ति में किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया और हिंदू व्यक्ति ने
पुलिस में जाकर शिकायत की कि एक मुसलमान ने उसको पीट दिया है। तफ्तीश में जाने के बाद कि मामला नितांत व्यक्तिगत किस्म का निकला। पुलिस ने जब हिंदू
व्यक्ति से पूछा कि उसने इसे हिंदू मुस्लिम का रूप क्यों दिया तो उसका
कहना था कि चूंकि अब मोदी की सरकार है इसलिए उसे लगा कि अब थानों में ऐसे ही शिकायत करने पर काम बनेगा।
सबसे अहम कि भारतीय राजनीति के पूरी तरह से सांप्रदायिक कीचड़ में डूब
जाने के कारण मूर्त पहचान वाली कौम होने के चलते मुसलमान इसके सबसे आसान शिकार होते जा रहे हैं। मसलन, अभी कानपुर में ही चोर बताकर पीटे जा रहे एक विक्षिप्त व्यक्ति के मुंह से जब दर्द के कारण ‘अल्लाह-अल्लाह’ निकलने
लगा तो भीड़ ने उसे पाकिस्तानी आतंकी बता कर पीट-पीट कर मार डाला। यानी,
हमारी सत्ता,  राजनीतिक दल,  अदालतों, मीडिया और प्रशासन के एक बड़े हिस्से
के सांप्रदायिक रवैये ने बहुसंख्यक समाज के एक बड़े हिस्से को हत्यारी
भीड़ में तब्दील कर दिया है। हमारेसर्वोच्च न्यायालय ने अफजल गुरू
मामले में फांसी की सजा सुनाते हुए बिल्कुल इसी प्रवित्ति को ‘जनता की
सामूहिक चेतना को संतुष्ट’ करना बताया था। इसे विडंबना ही कहेंगे
कि अफजल गुरू के फैसले के आलोक में देखने पर अखलाक का मारा जाना कोई
अपराध नहीं लगता क्योंकि उसे भी तो 200 से ज्यादा की भीड़ ने अपनी
‘सामूहिक चेतना को संतुष्ट’ करने के लिए ही मारा है।
इसलिए,  दादरी की घटना भारतीय राजनीति और उसके द्वारा निर्मित जनता और
उसकी सामूहिक (जिसमें निश्चित तौर पर मुसलमान नहीं हैं) चेतना को कटघरे
में खड़ा करती है, उस लोकतंत्र पर सवाल उठाती है जिसके चुनावी महोत्सव
मेंएक तबके के खिलाफ हिंसा और जनसंहार सबसे जरूरी चढ़ावा बन गया है।
ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि भारतीय राज्य मुसलमानों की
सुरक्षा के लिए धर्मनिरपेक्षता के नारे लगाने के बजाय कुछ ठोस
संवैधानिक कदम उठाए क्‍योंकि मुसलमानों की सुरक्षा कर पाने में फेल हो चुकी है
उसकी पुलिस। इसकी पुष्टि दंगों के लिए गठित सरकारी और न्यायिक जांच आयोगों ने की है कि पुलिस बहुसंख्‍यक समुदाय के दंगाइयों की तरफ से खड़ी रहती है या फिर
मूक दशर्क बन जाती है। 
यह इस लिए जरूरी है कि इसके अभाव में मुजफ्फरनगर और हाशिमपुरा जैसे जनसंहार नहीं रुक सकते जहां हत्यारों ने निहत्थे मुसलमानों को गोलियों से भून दिया था। मुसलमानों को हमारी पुलिस व्यवस्था के सेक्यूलर होने तक, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, मरते हुए छोड़ देना न सिर्फ लोकतंत्र विरोधी अपराध होगा बल्कि अमानवीय भी होगा। दूसरे, दलितों के साथ होने वाले भेदभाव और हिंसा को रोकने के लिए बनाए गए अनुसूचित जाति कानून की तरह मुसलमानों के साथ होने वाली हिंसा की रोकथाम के लिए ‘माईनारिटी ऐक्ट’ बनाया जाए और तीसरा,
सांप्रदायिकता की सबसे बड़ी वजह दोनों धर्मों के बीच बढ़ती भौतिक दूरी
को कम करने के लिए रिहाईशी बसाहटों यानी कॉलोनियों, अर्पाटमेंटों में
कानून बनाकर अलग-अलग धर्मों और जातियों के लोगों के एक साथ रहने को
बढ़ावा दिया जाए।

(लेखक रिहाई मंच से संबंद्ध है)

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