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प्रथम दृष्टि: संवेदनशीलता चाहिए

"ट्रांसजेंडर बिरादरी को मुख्यधारा में शामिल किए बगैर समावेशी समाज की कल्पना नहीं की जा सकती" हाल में...
प्रथम दृष्टि: संवेदनशीलता चाहिए

"ट्रांसजेंडर बिरादरी को मुख्यधारा में शामिल किए बगैर समावेशी समाज की कल्पना नहीं की जा सकती"

हाल में निर्माता-निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की बहुचर्चित द कश्मीर फाइल्स पर उठे विवाद या पिछले कुछ वर्षों में हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री के राष्ट्रीयता के सवाल पर दो धड़ों में बंटने के बावजूद इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बॉलीवुड का स्वभाव और स्वरूप धर्मनिरपेक्ष ही रहा है। यह ऐसी इंडस्ट्री है जहां प्रतिभा धर्म, जाति या क्षेत्र की मोहताज नहीं रही है। मेधा और सिर्फ मेधा ही यहां किसी कलाकार या फिल्मकार की सफलता का मार्ग प्रशस्त करती है, चाहे वह किसी नामी फिल्मी खानदान का वारिस हो या नहीं। यह मायने नहीं रखता कि अशोक कुमार, दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन या शाहरुख खान जैसे अभिनेता किस जाति या धर्म से ताल्लुक रखते हैं। यही वह इंडस्ट्री है जहां अल्पसंख्यक समुदाय के राही मासूम रजा जैसा लेखक हिंदुओं के महाकाव्य, महाभारत पर आधारित टीवी सीरियल के लिए बेहतरीन संवाद लिखता है, और यहीं पर दिग्गज उर्दू शायरों शकील बदायुनी और साहिर लुधियानवी ने उत्कृष्ट कोटि के हिंदी भजनों की रचना की है। हिंदी सिनेमा को एक सेक्युलर परिवार की तरह देखा गया, जहां अमर, अकबर और एंथोनी के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं दिखा। लेकिन, क्या हिंदी सिनेमा हर क्षेत्र में समान रूप से समावेशी भी रहा है, विशेषकर ट्रांसजेंडरों के मामलों में, चाहे परदे पर उनका चित्रण हो या परदे से इतर उन्हें मौके देने का सवाल? अफसोस, बॉलीवुड इस कसौटी पर खरा नहीं उतरा है।  

दरअसल, बॉलीवुड में मुख्यधारा की व्यावसायिक हिंदी फिल्में ट्रांसजेंडरों के किरदारों की स्टीरियोटाइपिंग करने में सबसे आगे रही हैं। परदे पर उनका चित्रण या तो सेक्स कॉमेडी कही जाने वाली फिल्मों में बेहद फूहड़ कॉमेडी के लिए किया जाता रहा या मारधाड़ वाली मसाला फिल्मों में वीभत्स खलनायक के रूप में। अधिकतर हिंदी फिल्मों में तो उनके लिए उपहासजनक संबोधन का प्रयोग किया गया। या तो उन्होंने महमूद की कुंवारा बाप (1974) या मनमोहन देसाई की अमर अकबर एंथनी (1977) के लोकप्रिय गीतों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई या उन्हें किसी फिल्म के एकाध दृश्य में ट्रैफिक सिग्नल पर सेक्स वर्कर के रूप में प्रस्तुत किया गया। नाना पाटेकर की यशवंत (1997) में ‘एक मच्छर ... आदमी को हिजड़ा बना देता है’ जैसे संवाद फिल्मकारों और स्क्रिप्ट लेखकों की संवेदनहीनता और पूर्वाग्रह उजागर करने के लिए काफी रहे हैं। महेश भट्ट की सड़क (1991) में सदाशिव अमरापुरकर के महारानी नामक किरदार निभाने के बाद ट्रांसजेंडरों को विलेन के रूप में दिखाने की जो परिपाटी शुरू हुई वह हाल में प्रदर्शित संजय लीला भंसाली की गंगूबाई काठियावाड़ी तक बदस्तूर जारी है।

नब्बे के दशक में अवश्य दायरा (1996), तमन्ना (1998) और दरमियां (1997) जैसी फिल्में बनीं जिनमें ट्रांसजेंडरों का चित्रण संवेदनशील रूप में किया गया, लेकिन अधिकतर फिल्मों में उनका चित्रण आपत्तिजनक ही रहा। नई सदी में कुछ प्रयोगधर्मी फिल्मकारों ने समलैंगिकता पर आधारित बहुप्रशंसित फिल्में अवश्य बनाईं, लेकिन ट्रांसजेंडरों पर आधारित फिल्मों की संख्या बेहद कम रही। 

यह सही है कि साहित्य की तरह सिनेमा भी समाज का आईना होता है। फिल्मकार ऐसे किरदारों का फूहड़ चित्रण इसी दलील पर करते रहे कि जो समाज में जो दिखता है, वही परदे पर नजर आता है। लेकिन, यह भी सही है कि बॉलीवुड का धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्र के आधार पर किरदारों के स्टीरियोटाइप्ड चित्रण करने में कोई सानी नहीं रहा है। अनगिनत फिल्मों में दक्षिण भारतीय किरदारों को ‘मद्रासी’ या यूपी-बिहार के पात्रों को ‘भैय्या’ के रूप में दिखाया गया। वैसे ही, पारसी और सिख लोगों की खास छवि फिल्मों के माध्यम से जनमानस पर उकेरी गई। ऐसा ही कुछ ट्रांसजेंडरों के साथ किया गया। 

तो, क्या अब बदलाव संभव है? पिछले वर्ष जब अभिनेत्री वाणी कपूर ने चंडीगढ़ करे आशिकी में एक ट्रांसजेंडर की मुख्य भूमिका निभाई तो लगा हिंदी सिनेमा ने रूढ़िवादी मानसिकता से निकलकर नई उड़ान भरी है। तब तक यह विश्वास करना मुश्किल था कि कोई मुख्यधारा की युवा अभिनेत्री ऐसी भूमिका निभाएगी। 2020 में प्रदर्शित राम कमल मुखर्जी की शॉर्ट फिल्म सीजन ग्रीटिंग्स में एक ट्रांसजेंडर कलाकार को परदे पर ट्रांसजेंडर की भूमिका निभाने का अवसर भी मिला। यह भी लंबी लकीर खींचने जैसा था। लेकिन, ऐसे उदाहरण इक्के-दुक्के ही हैं। आज सवाल है कि क्या बॉलीवुड ट्रांसजेंडर कलाकारों और तकनीशियनों को खुले मन से स्वीकार कर समावेशी बनने की दिशा में वैसा ही प्रयास करेगा जैसा उसने अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि के लिए किया? आज समाज के हर क्षेत्र में ट्रांसजेंडर बिरादरी के लोग अपनी प्रतिभा की बदौलत सिक्का जमा रहे हैं। बॉलीवुड या लोकप्रिय संस्कृति का कोई भी अन्य माध्यम अब इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकता कि ट्रांसजेंडरों ने दशकों के संघर्ष के बाद यह मुकाम हासिल किया है। उन्हें मुख्यधारा में शामिल किए बगैर किसी समावेशी समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। हमारी आवरण कथा ऐसे ही ट्रांस नायकों को समर्पित है।

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