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किसान की त्रासदी

“सरकारी योजनाओं का लाभ बड़े और कुछ मझोले किसानों तक ही पहुंच पाया। छोटा किसान तो लालफीताशाही और...
किसान की त्रासदी

“सरकारी योजनाओं का लाभ बड़े और कुछ मझोले किसानों तक ही पहुंच पाया। छोटा किसान तो लालफीताशाही और बिचौलियों के वर्चस्व वाली व्यवस्था से जूझता हुआ विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से वंचित ही रहा”

कुछ विडंबनाएं हमारे समक्ष सदैव विद्यमान रहती हैं, जिन्हें समय का घूमता पहिया भी नहीं बदल पाता। भारत का किसान एक ऐसी ही शाश्वत विडंबना का जीवंत प्रतीक है, जिसकी नियति वक्त, हुकूमत या मौसम के बदलने से नहीं बदलती। कहने को वह अन्नदाता है, जिसके श्रम की बदौलत हमारा चौका गुलजार रहता है, लेकिन उसे स्वयं दो जून की रोटी के लिए साल भर जद्दोजहद करनी पड़ती है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बाढ़, सुखाड़ और साल दर साल मानसून का खिलवाड़, अगर प्रकृति की संवेदनहीनता का कोई सबसे बड़ा भुक्तभोगी है, तो वह किसान ही है। संवेदनहीन तो सरकारें भी रही हैं। योजनाएं बनती रहती हैं, लेकिन उनकी दशा में बदलाव नहीं आता। गोदान और मैला आंचल अब नहीं लिखी जाती, दो बीघा जमीन और मदर इंडिया जैसी फिल्में बने हुए भी एक अरसा बीत गया, लेकिन किसानों की हालत और हालात आज भी वैसे ही हैं, जो प्रेमचंद और रेणु या बिमल रॉय और महबूब खान के जमाने में थे।

प्रथम दृष्टि में यह अचरज में डालने वाला हो सकता है। वैश्वीकरण, उदारीकरण और इंटरनेट क्रांति के दौर के बाद भी, जिस देश को कृषि प्रधान कहा जाता है और जिसकी आत्मा गांव में बसती रही है, वहां समाज का एक तबका अगर पीछे छूट गया तो वह खेतों में हल चलाने वालों का ही है। कारण ढूंढ़ना मुश्किल नहीं। किसानी फायदे का सौदा होना तो दूर, आजादी के इतने साल बाद भी एक छोटे परिवार के भरण-पोषण का जरिया  न बन पाया। अगर बड़े किसानों को छोड़ दें, जिनके पास सारी मूलभूत सुविधाएं हैं, विशेषकर उस धनाढ्य वर्ग को जिसे कागज़ पर किसान की संज्ञा मिलने मात्र से आयकर में छूट मिलती है, तो देश के अधिकतर किसान आज भी अपनी आजीविका के लिए खेती पर ही आश्रित हैं। ये ऐसे किसान हैं, जो या तो पुरखों से विरासत में मिली छोटे-छोटे रकबों पर फसल उगाकर पेट पालते हैं, या किसी और के खेत में पसीना बहाते हैं। ऐसे किसानों की माली हालत पिछले दशकों में नहीं बदली क्योंकि सामाजिक ढांचे और सरकारी उदासीनता की वजह से उन्हें अपनी उपज और श्रम की उचित कीमत कभी मिली ही नहीं। ऐसा नहीं है कि गुजरे दौर के हुक्मरानों ने इसके लिए प्रयास नहीं किया। बड़ी-बड़ी मंडियां बनीं, फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किया गया, बीज और खाद की खरीद के लिए सब्सिडी दी गई, लेकिन धरातल पर इसका लाभ सिर्फ बड़े और कुछ हद तक मझोले किसानों तक ही पहुंच पाया। छोटा किसान तो लालफीताशाही, बिचौलियों के वर्चस्व, त्रि-स्तरीय पंचायती व्यवस्था में व्याप्त दोष और भ्रष्टाचार से जूझता हुआ विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से वंचित ही रहा। आज गरीब राज्यों के पलायन कर रहे मज़दूरों में अधिकांशतः वैसे लोग हैं, जो कभी अपने गांव में खेती किया करते थे। बिहार जैसे सूबे में, जहां की जमीन उपजाऊ समझी जाती है, हजारों एकड़ जमीन सालों परती रह जाती है, क्योंकि वहां का किसान जीवन-यापन करने अन्यत्र चला जाता है। गांव में रह कर खेत जोतने के बावजूद अगर कर्ज में डूबना पड़े और खुदकुशी के हालात पैदा हों तो बेहतर है महानगरों में दिहाड़ी पर मजदूरी कर अपना परिवार चलाया जाए। छोटे किसानों की दयनीय स्थिति को बदलना ही पलायन को रोकने का सबसे कारगार उपाय है। ऐसा नहीं है कि स्थानीय स्तर पर सिर्फ उद्योग लगाकर रोजगार पैदा किए जाएं। उन्हें खेती करने के लिए प्रेरित कर, सामाजिक सुरक्षा सहित सारी सुविधाएं मुहैया करा कर और खासकर, उपज की वाजिब कीमत दिला कर स्थितियां बदली जा सकती हैं। किन्तु, क्या ऐसा कभी होगा? यह अभी तक यक्ष प्रश्न बना हुआ है।

मोदी सरकार ने हाल ही में कृषि संबंधी तीन नए कानून बनाए हैं, जिनका उद्देश्य किसानों की माली हालत सुधारना बताया जाता है। इसके तहत किसानों को यह स्वतंत्रता दी गई है कि वे अपनी उपज राज्य सरकारों द्वारा नियंत्रित मंडियों के बाहर भी बेच सकें। इसके विरोध में कई राज्यों में प्रदर्शन हो रहे हैं। किसान संगठनों को डर है कि नए कानून बनने से निजी कंपनियां उनका शोषण कर सकती हैं। सरकार उन्हें समझाने का हरसंभव प्रयास कर रही है, लेकिन बीजेपी की सबसे पुरानी सहयोगी अकाली दल तक ने इस मुद्दे पर एनडीए से अपना नाता तोड़ लिया है।

विशेषज्ञों में नए कानूनों पर एक राय नहीं है। हरेक की अपनी-अपनी दलील है। आउटलुक की आवरण कथा इस विवाद के तमाम पहलुओं की विवेचना कर यह समझने की कोशिश करती है कि क्या नए कानून आम किसान की जिंदगी को समृद्ध बनाने में मील का पत्थर साबित होंगे या उसकी तकदीर का फैसला बाजार के उतार-चढ़ाव पर आधारित हो जाएगा। अंतिम निष्कर्ष जो भी निकले, इसमें दो मत नहीं है कि दशकों तक अपने हाल पर छोड़ दिए जाने के बाद किसानों की दशा बदले बगैर देश के विकास का पहिया उस गति से नहीं घूम सकता जिसकी अपेक्षा हमें हमेशा से रही है।

@giridhar_jha

 

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