Advertisement

प्रथम दृष्टि: निष्पक्ष का पक्ष

“आर्यन प्रकरण को मीडिया का एक खेमा शाहरुख को प्रताड़ित करने की साजिश मान रहा है तो दूसरा खेमा एनसीबी...
प्रथम दृष्टि: निष्पक्ष का पक्ष

“आर्यन प्रकरण को मीडिया का एक खेमा शाहरुख को प्रताड़ित करने की साजिश मान रहा है तो दूसरा खेमा एनसीबी को बदनाम करने की साजिश”

अपने गिरेबान में झांकना शायद हम मीडियावालों की फितरत में नहीं। अगर होता, तो हमें पता चलता कि हमारी विश्वसनीयता दिनोंदिन कम क्यों होती जा रही है। आए दिन ऐसी खबरें मिलती हैं कि पत्रकारिता की साख खत्म हो रही है और आमजन का पत्रकारों पर से भरोसा उठने लगा है। कुछ सर्वे की मानें तो मीडिया का शुमार अब सबसे कम प्रतिष्ठित पेशों में होने लगा है। अगर यह सही है, तो वाकई चिंताजनक है। किसी भी लोकतंत्र में चौथे स्तंभ की क्या अहमियत है, इसे बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं।

ऐसे हालत क्यों हुए, इसे समझने के लिए रॉकेट साइंस विशेषज्ञ होना आवश्यक नहीं। मूल कारण यही लगता है कि इस बिरादरी के कई नामवर सदस्यों ने तटस्थता का गुण त्याग दिया। किसी समाचारकर्मी के लिए निष्पक्षता से बड़ा धर्म नहीं। उसका सारा वजूद और वकार इस बात पर निर्भर करता है कि उसने अपने पेशे में कबीर की तरह ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ के फलसफे को आत्मसात किया या नहीं। क्या सत्ता पक्ष और विपक्ष से समान दूरी बनाते हुए उसने अपने दायित्वों का निर्वहन किया? सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि क्या समाचार संकलन के दौरान उसने जाती पसंद-नापसंद से इतर अपने आपको सभी विचारधाराओं से अलग रखा?

दुर्भाग्यवश, आज लगता है मानो यह दुरूह कार्य है। पत्रकारिता में पक्षपात से दूर रहने जैसे गुण धीरे-धीरे विलोपित हो रहे हैं। जैसे-जैसे मीडिया इंडस्ट्री का प्रभाव और प्रादुर्भाव बढ़ता जा रहा है और टीवी चैनलों का समाचार प्रस्तुतकर्ता परदे पर और परदे के बाहर सुपरस्टार की तरह दिखने और बर्ताव करने लगा है, लोगों में पत्रकारों की पहचान इस बात से होने लगी है कि वे किस दल, पंथ या विचारधारा के करीबी या विरोधी हैं। इसी के आधार पर सोशल मीडिया पर उनके अनुयायी घटते-बढ़ते हैं।

एक पत्रकार का ‘एक्टिविस्ट’ होना बुरा नहीं, लेकिन इसकी इजाजत तभी दी जा सकती है जब उसका ‘एक्टिविज्म’ पूरे समाज के हित में हो, न कि व्यक्तिगत या किसी खास समूह की स्वार्थसिद्धि के लिए। लेकिन, आज समाज की बेहतरी के लिए कोई मुहिम चलाना वैसे खबरनवीसों के लिए बेमानी हो गया है जिनके लिए किसी वर्ग विशेष से जुड़ना किसी तमगे से कम नहीं। इसे स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए कि ऐसे मीडियाकर्मियों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। जाहिर है, पत्रकारों से शत-प्रतिशत निष्पक्षता की उम्मीद रखने वाले पाठक, श्रोता या दर्शक निराश हो रहे हैं। यह सब ‘ब्रेकिंग न्यूज’ की गलाकाट प्रतिस्पर्धा के कारण या किसी और वजह से हो रहा है, यह चिंतन का विषय है, लेकिन इसमें शक नहीं कि यह मीडिया की निष्पक्ष छवि को धूमिल कर रहा है। इस पर पूरी बिरादरी को एक होकर आत्ममंथन करने की आवश्यकता है।

पिछले साल अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत प्रकरण में रिया चक्रवर्ती के खिलाफ आरोप-प्रत्यारोप के लंबे दौर के बाद अभी चल रहे अभिनेता शाहरुख खान के पुत्र आर्यन खान से जुड़े विवादास्पद ड्रग्स मामले में भी मीडिया दो खेमे में विभक्त दिख रहा है। एक खेमा इसे शाहरुख को प्रताड़ित करने की सोची-समझी योजना के रूप में देख रहा है, तो दूसरा इसे नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी), खासकर इसके चर्चित अधिकारी समीर वानखेड़े को बदनाम करने की साजिश करार दे रहा है। इस मामले में फिलहाल सभी आरोपों की जांच चल रही है। किसी को दोषी या निर्दोष करार देने का अधिकार अंततः सिर्फ और सिर्फ न्यायालयों को है, लेकिन मीडिया और सोशल मीडिया में ऐसे टिप्पणीकारों की कमी नहीं जो स्वयंभू जज, जूरी और जल्लाद की भूमिका निभाने की जल्दबाजी में हैं। स्पष्ट रूप से वे इस बात से बेखबर दिखते हैं कि कानून की कसौटी में जब तक किसी के खिलाफ दोष सिद्ध नहीं हो जाता, सभी निर्दोष हैं। आर्यन खान और समीर वानखड़े के मामले में भी अलग-अलग मानदंड नहीं हैं और न होना चाहिए। कानून को अपना काम करने देना चाहिए। दशकों पुरानी यह उक्ति हर दौर में प्रासंगिक रही है और मीडिया को भी इस पर सदैव अमल करना चाहिए।

किसी पत्रकार के निष्पक्ष होने के अपने फायदे हैं। उस पर किसी एक पक्ष से जुड़ी हर बात पर बेवजह न तो तारीफों के पुल बांधने का दवाब होता है, न ही अनावश्यक आलोचना करने का। इसके विपरीत, उसे हर पक्ष को जानने और हर पहलू को गौर से समझने के बाद ही किसी विवेकपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचने की मौलिक स्वतंत्रता होती है। वह सत्तापक्ष द्वारा समाजहित में लिए गए निर्णयों पर कसीदे पढ़ सकता है, लेकिन साथ ही लोकशाही में बेहतर भूमिका निभाने के मकसद से विपक्ष के लिए भी प्रेमगीत लिख सकता है।

इन सबके बावजूद हालांकि ऐसा नहीं है कि निष्पक्ष पत्रकारों का टोटा पड़ गया है। अब भी इस पेशे में ऐसे कर्मठ और ईमानदार लोगों की कमी नहीं जिनके लिए पत्रकारिता एक मुहिम की तरह है और जो हर खबर प्रसारित या प्रचारित करने से पहले उससे जुड़े हर पहलू को जांचते-परखते हैं और हर पक्ष का नजरिया सामने रखते हैं। बीच बाजार में खड़े होने के बावजूद ऐसे ही कबीर सच्ची और अच्छी पत्रकारिता का परचम लहरा रहे हैं और लहराते रहेंगे।

 @giridhar_jha

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad