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संपादक की कलम से: किसका दुखड़ा रोऊं!

“इंसाफ के बहाने कामयाब बिक्री का कारनामा सुशांत की गर्ल फ्रेंड रिया चक्रवर्ती को मुख्य संदिग्ध...
संपादक की कलम से: किसका दुखड़ा रोऊं!

“इंसाफ के बहाने कामयाब बिक्री का कारनामा सुशांत की गर्ल फ्रेंड रिया चक्रवर्ती को मुख्य संदिग्ध साबित करने पर उतर आया”

प्रतिभा के धनी बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत को दुनिया से विदा हुए साल भर बीत गए। पिछले साल लगभग तभी वह मीडिया ट्रॉयल भी शुरू हुआ था, जो इंसाफ की मुहिम के नाम पर बड़ी चालाकी से देश में अजीबोगरीब लहर पैदा कर रहा था। यह कहना तो निहायत नाइंसाफी है कि उससे बस एक युवती की जिंदगी ही तार-तार हुई।

सुशांत की दुखद मौत और उससे शुरू हुए उस तमाशे के साल भर बाद मैं हैरान हूं कि किसका शोक मनाऊं: उस प्यारे-से अभिनेता की मौत का या मीडिया की उस नीचता का, जो उसकी मौत के बाद बेझिझक चालू थी। मैं सुशांत का बड़ा फैन नहीं था। उसकी सिर्फ एक फिल्म मैंने देखी थी। लेकिन जो थोड़ा देखा, वह पसंद आया-पूर्व भारतीय क्रिकेट कप्तान पर बनी बॉयोपिक में महेंद्र सिंह धोनी की भूमिका में वह बखूबी रच-बस जो गया था। खूबसूरत कद-काठी में एक अलग तरह का आकर्षण और मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि सहज जुड़ाव पैदा करती थी। एक हद तक उसका जादू मुझे छू गया था।

इसलिए पिछले साल जब खबर आई कि सुशांत अपने मुंबई के फ्लैट में मृत पाया गया तो मैं अवाक रह गया था। संभावनाओं से भरपूर एक खूबसूरत जिंदगी का असमय खत्म होना बड़ा दुखदायी था और मुझे लगता है सारा देश ऐसा ही महसूस कर रहा होगा। वह हैरानी अपने साथ हताशा ले आई और जल्दी शक-शुबहे के बादल घिरने लगे, जो टीआरपी और अच्छी बिक्री के लालच में मीडिया के एक तबके ने पैदा की। अच्छी पैकेजिंग में लिपटा सुशांत के लिए इंसाफ के बहाने कामयाब बिक्री का यह कारनामा आखिरकार सुशांत की गर्ल फ्रेंड रिया चक्रवर्ती को मुख्य संदिग्ध साबित करने पर उतर आया। होड़ में आगे निकलने के लिए उसे पैसों की लालची से लेकर ड्रग धंधेबाज जैसी उपाधियों से नवाज दिया गया।

टीवी स्टूडियो पेशी करके सजा सुना चुके थे। फिर, इस सामूहिक नफरत की आग में मानो सरकार भी कूद पड़ी। सीबीआइ को लगाया गया, लेकिन आखिरकार नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) ही उसे गिरफ्तार कर पाई। महीने भर बाद वह जेल से रिहा होने में कामयाब हुई, लेकिन हम मामले के बारे में कुछ ज्यादा वाकिफ नहीं हो पाए। उधर, अधिकतम लाभ ले चुकने के बाद मीडिया में सनसनीखेज मसालों के कारोबारी दूसरे हरे मैदानों की तलाश में मुड़ गए। न सीबीआइ, न एनसीबी इस मामले में इंच भर भी आगे बढ़ पाई। मामले को सुलझाने में नाकाम दोनों एजेंसियों ने रिया को अधर में झूलता छोड़ दिया। जाहिर है, इससे रिया की जिंदगी अभिशप्त है।

आश्चर्य नहीं कि जिस तरह उस पर लगातार कीचड़ उछाला जाता रहा, करोड़ों देशवासियों के मन में यह बात बैठा दी गई कि वह खलनायिका है। उस पर तमाम बुरे नामों की बारिश करने वाले गीतों के एल्बम भी बेचे गए। मीडिया ट्रायल ने न सिर्फ रिया के जीवन से सारी गरिमा छीन ली, बल्कि मेरा मानना है कि उसे सार्वजनिक सुरक्षा के कवच से भी वंचित कर दिया गया। उसके खिलाफ अनेक लोगों के मन में विष भर दिया गया है और मुझे नहीं लगता कि वह जोखिम उठाए बिना खुलकर बाहर निकल सकती है। मैं शर्मिंदा हूं कि जिस पेशे से मैं जुड़ा हूं, उसी ने उसे इस मुकाम पर ला छोड़ा। मौत के बाद सुशांत को इंसाफ दिलाने की जल्दबाजी में हमने जज, जासूस और जल्लाद सभी भूमिकाएं निभा डालने का तय कर लिया और रिया तथा उसके परिवार पर जुल्मों का पहाड़ ढहा दिया। उसे जन धारणा की अदालत में दोषी और कुत्सित साबित कर दिया गया। सबसे दुखद यह है कि रिया के पास इससे उबरने का कानूनी या कोई और रास्ता ही नहीं छोड़ा गया। मीडिया में स्व-निर्धारित अंकुश की बातें बेहद नाकाफी साबित हुई हैं और मीडिया के भीतर से लक्ष्मण रेखा कायम करने की बातें भी बेमानी हो गई हैं। एक विकल्प यह है कि ढीठ मीडिया को अदालत में घसीटा जाए। लेकिन मानहानि के मुकदमे महंगे हैं और प्रक्रिया काफी लंबी है, जो हर किसी के वश में नहीं है। और फिर कितने टीवी चैनलों और अखबारों पर वह मुकदमा कर पाएगी?

बिगड़ैल मीडिया पर काबू पाने के विकल्प न होने की वजह से ही मीडिया ट्रायल से बर्बाद होने वाली रिया न पहली है, न आखिरी होगी। हम मीडिया की ऐसी ‘लिचिंग’ के गवाह पहले भी रहे हैं। मिसाल के लिए नोएडा की आरुषि तलवार का मामला याद कीजिए। ये मीडिया ट्रायल कितने ही निंदनीय क्यों न हों, मीडिया ऐसी करतूतें करता रहेगा क्योंकि उनसे बिना हर्रे-फिटकरी के रंग चोखा होने की गारंटी जो है। अतीत में ऐसी ही हरकतों से लगभग सभी बेदाग बरी हो चुके हैं, जिससे उनमें ऐसा करने की ढिठाई पैदा होती है। फटाफट टीआरपी हासिल करने के अलावा शो करने वालों का अपना अहंकार भी तुष्ट होता है। उन्हें कुछ बेजुबान-से दर्शकों के सामने तीस मार खां पत्रकार के रूप में पेश किया जाता है।

इसलिए सुशांत की मौत की यह बरसी मुझे खौफजदा कर गई। मीडिया ने पिछले साल कोई सबक नहीं लिया और यह बस कुछ वक्त की बात है कि वह परिस्थितियों के किसी और पीडि़त को अपने अगले ट्रायल का शिकार बना लेगा। जैसा मैंने पहले कहा, मैं कुछ उलझन में हूं कि किसका दुखड़ा रोऊं: सुशांत की मौत का या मीडिया की नीचता का। फैसला आप करें।

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