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जनादेश 2022/गुजरात/नजरिया : भाजपा की अबाध सत्ता क्यों कायम?

“इस बार आम आदमी पार्टी के चुनाव में उतरने से कांग्रेस और भाजपा दोनों को थोड़ा नुकसान होगा” इस बार...
जनादेश 2022/गुजरात/नजरिया : भाजपा की अबाध सत्ता क्यों कायम?

“इस बार आम आदमी पार्टी के चुनाव में उतरने से कांग्रेस और भाजपा दोनों को थोड़ा नुकसान होगा”

इस बार गुजरात विधानसभा के चुनाव में सीटें थोड़ा इधर-उधर हो सकती हैं क्योंकि मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है। इससे थोड़ी अलग सूरत बनती है। इस बार आम आदमी पार्टी भी चुनाव लड़ रही है। इसे सीट मिले न मिले, लेकिन वोट तो जरूर काटेगी। इसकी मौजूदगी दक्षिणी गुजरात, खासकर सूरत के आसपास के इलाके और सौराष्ट्र में है। जब हम गुजरात कह रहे हैं, तो यह समझना चाहिए कि कच्छ और सौराष्ट्र पहले अलग थे गुजरात से, बाद में तीनों गुजरात राज्य बनने के कारण एक हुए। आम आदमी के चुनाव में आने से कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों को थोड़ा नुकसान होगा। फिर भी स्थिति यही दिख रही है कि भाजपा पहले की तरह सत्ता में बनी रहेगी।

दरअसल, भाजपा के सत्ता में कायम रहने की एक बड़ी वजह यह है कि यहां के शहरी और ग्रामीण इलाकों में आबादियों का हिंदूकरण हो चुका है। गुजरात में जातिगत विभाजन बहुत ज्यादा है। मसलन, ब्राह्मणों में यहां 84 उपजातियां हैं। तीव्र शहरीकरण ने इन विभाजनों को कम किया है और जातिगत समूहों के आपसी रिश्तों को तोड़ा है। अब यहां लोगों के समूह आधुनिक धार्मिक संप्रदायों के भीतर बनते हैं। पहले जो जाति की सम्बद्धताएं हुआ करती थीं, वे गुजरात में अब नहीं बची हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो जातिगत समूह होते ही थे। शहरों में भी जातिगत समूह क्षेत्रवार बनते रहे हैं। तीव्र शहरीकरण की प्रक्रिया ने पिछले कुछ दशकों में इन रिश्तों को तोड़ने का काम किया है। इस सम्बद्धता की प्रकृति अब बदल चुकी है। गुजरात में धार्मिक पंथों ने इस खाली हुई जगह को भरने का काम किया है, जैसे स्वामीनारायण संप्रदाय या स्वाध्याय संप्रदाय। ये संप्रदाय शहरों और गांवों में सहयोग का एक ढांचा आदमी को उपलब्ध करवाने का काम कर रहे हैं। जैसे, एक आदमी शहर में आया है, तो उसे जीवन जीने से जुड़ी कुछ दिक्कतें आएंगी। यहीं पर सेक्ट वाले लोगों की मदद करते हैं। जो काम पहले जातिगत समूहों के भीतर हुआ करते थे वे अब सेक्ट के भीतर हो जाते हैं। यही भाजपा के वोट के लिए आधार तैयार करता है।

गुजरात, कच्छ और सौराष्ट्र ऐतिहासिक रूप से तीनों अलग इकाइयां रही हैं। कच्छ का लेना-देना सिंध से रहा है। पाकिस्तान बनने के बाद वह रिश्ता खत्म हो गया। पहले जो चरवाहा समुदाय थे वे सिंधु नदी के आसपास पाए जाते थे। अब उनका प्रसार नर्मदा और गोदावरी तक हो चुका है। गुजरात के मुकाबले सौराष्ट्र ज्यादा सामंती इलाका रहा है। वहां ज्यादातर रजवाड़े हुआ करते थे। नीचे का इलाका गुजरात कहलाता था। भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के माध्यम से तीनों को एक कर के गुजरात राज्य बनाया गया। इन तीनों के बीच हालांकि एक बात समान रूप से पहले से मौजूद रही, जिसे मर्केंटाइल इथोस या व्यापारिक भावना कह सकते हैं। इस भावना के चलते गुजरात में व्यापार का महत्व बहुत बढ़ गया।

मर्केंटाइल भावना का इतिहास बहुत पुराना है। बॉम्बे का व्यापारिक इतिहास तो केवल 300 साल का है, लेकिन सूरत में सबसे पहले ईस्ट इंडिया कंपनी आई थी। सूरत से भी पहले व्यापार का रास्ता कैम्बे (खंभात) से जाता था। लंबे समय से समुद्र आगे बढ़ रहा है और हर साल सात से बारह किलोमीटर धरती समुद्र में चली जा रही है। यही वजह है कि कैम्बे का व्यापारिक केंद्र खत्म हो गया, वरना एक जमाने में बाहर के देशों से व्यापारिक रिश्ता इतना मजबूत था कि एक कहावत चलती थी, ‘लंका नी लाडी, घोघा नू वर।’ घोघा सौराष्ट्र में भावनगर के पास एक जगह है। कैम्बे जब खत्म हो गया तो सारे जहाजी घोघा आकर ठहरते थे। कैम्बे के खत्म होने के बाद घोघा एक बड़ा व्यापारिक केंद्र बनकर उभरा। कहावत का मतलब है श्रीलंका की लड़की और घोघा का लड़का। भावनगर का व्यापारिक केंद्र तो बहुत बाद में विकसित हुआ। इसके अलावा, कच्छ तो हजार साल से समुद्र के माध्यम से वैश्विक व्यापार से जुड़ा ही रहा था। यही परंपरागत व्यापारिक भावना तीनों भिन्न संस्कृतियों को आपस में जोड़ती है।

बाद में जब शहरीकरण की रफ्तार बढ़ी, तो सांप्रदायिक पंथ मजबूत होते चले गए। दूसरे राज्यों की तुलना में देखें तो महाराष्ट्र के बाद गुजरात दूसरे नंबर पर शहरीकरण के मामले में आता है जहां का 42 प्रतिशत क्षेत्र शहरी हो चुका है। यह शहरीकरण, हिंदू पंथों के प्रसार और ऐतिहासिक व्यापारिक भावना ने मिलकर हिंदूवादी राजनीतिक नैरेटिव को तैयार किया है क्योंकि ये सेक्ट वाले फंडामेंटल हिंदुइज्म की बात करते हैं। यहां उपनिषद की बात नहीं आती है। वे षड्दर्शन की बात भी नहीं करते हैं। उनका हिंदुइज्म इसके विरोध में खड़ा है। एक खास किस्म की आध्यात्मिकता को ये लोग प्रचारित करते हैं। भाजपा को इसका सीधा लाभ मिल रहा है।

राजनीतिक इतिहास को देखें, तो गुजरात में 1969 के दंगे के बाद चीजें बदलना शुरू हुईं। धीरे-धीरे लोगों में मुस्लिम विरोध की भावना फैलाई गई। यह भी देखिए कि भाजपा के पहले जनसंघ की पूरे भारत में केवल दो ही सीटें आई थीं- एक ग्वालियर से जहां अटल बिहारी वाजपेयी जीते थे और दूसरी मेहसाणा में, जहां एके पटेल की जीत हुई थी। गुजरात में सिंध का राजनीतिक उभार वहीं से शुरू होता है। कांग्रेस ने जो खाम (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमान) वाला सिद्धांत बनाया था, उसका अब कोई मतलब नहीं बचा है। सन अस्सी के बाद भाजपा ने खाम में से ‘एम’ को यानी मुसलमान को निकाल दिया और क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी के साथ ओबीसी नेतृत्व को आगे किया। आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद ने अपने से सम्बद्ध संगठनों जैसे बजरंग दल, दुर्गा वाहिनी, भारत विकास परिषद और सेवा भारती का नेतृत्व जिला, ब्लॉक और ग्रामीण स्तर पर या तो ओबीसी को या दलित और आदिवासी को दिया। दूसरी ओर, कांग्रेस के राज में स्थानीय स्तर का नेतृत्व उच्च वर्णों के पास था। वंचित जातियों को पहली बार मौका मिला नेतृत्व करने का, जो भाजपा की मजबूती का बहुत महत्वपूर्ण कारक बना।

1969 के दंगे के बाद एक और प्रक्रिया हुई। छोटे-छोटे गांवों से मुसलमान निकल कर नजदीक के बड़े शहरों में चले गए। जो इक्का-दुक्का बचे थे, वे भी असुरक्षा के कारण बाहर निकल आए। कई गांवों में तो मुसलमान बचे ही नहीं। जैसे, अहमदाबाद के सरदारपुरा में आज एक भी मुसलमान नहीं मिलेगा। वे सब 2002 के दंगे के बाद हिम्मतनगर चले गए। उन्होंने अपनी जमीनें गांव में किसी को दे दीं। वे समय-समय पर वहां जाकर अपनी उपज का हिस्सा ले आते हैं।

इसका असर अहमदाबाद शहर के चरित्र पर पड़ा है। जुहापुरा में जो मुसलमानों की बस्ती है वहां पढ़े-लिखे मुसलमान भी रहते हैं और कामगार मुसलमान भी पाए जाते हैं। पहले ऐसा नहीं था। अहमदाबाद कपड़े की मिलों का क्षेत्र था। मिलों के मजदूर मिल के पास वाली हाउसिंग सोसायटियों में रहते थे। उनकी सोसायटियों की दीवारें साझा होती थीं। दलित, मुसलमान, ओबीसी सब अगल-बगल रहते थे। कम से कम हर तबके के बीच में कामकाजी एकता थी। अस्सी के दशक से कपड़ा मिलों के खत्म होते जाने के साथ शहर की प्रकृति ही बदल गई। नरोडा से लेकर अहमदाबाद शहर के बीच आज कुल 12 चिमनियां दिखती हैं, वहां पहले मिलें होती थीं। अब कुछ नहीं है। मजूर महाजन वाला संगठन भी अब नहीं बचा। गांधीवादी, वाम और समाजवादी तीन तरह की जो यूनियनें यहां हुआ करती थीं, वो सब ढांचा बीते चार दशक में टूट गया।    

भाजपा की मजबूती का एक बड़ा तात्कालिक कारण यह है कि सीमांत किसान के बैंक खाते में हर साल 6000 रुपये आ रहे हैं। भले यह राशि कम लगती हो लेकिन पहले तो एक पैसा भी नहीं आता था। इसके अलावा, गांव के स्तर पर जो कागजात आदि लेने में बहुत दिक्कत होती थी अब बहुत आसान हो चुका है। पूरा गवर्नेंस ऑनलाइन हो गया है। इस मामले में आप यूपी-बिहार, यहां तक कि राजस्थान के साथ भी गुजरात की तुलना नहीं कर सकते। फिर एक और कारण यह भी है कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों गुजराती हैं। यहां के लोग इस बात को देखते हैं कि अपने राज्य का आदमी दिल्ली में है। इसलिए भी वे इन्हें वोट देते हैं।

पिछले कुछ दशक में आरएसएस के साथ युवा पीढ़ी का रिश्ता भी बढ़ता गया है। इसका पता आरएसएस की शाखाओं की संख्या से लग सकता है। कांग्रेस के पास युवाओं को देने के लिए कुछ नहीं था क्योंकि संघ के मुकाबले सेवा दल का प्रभाव कम होता गया। इसीलिए कांग्रेस इस प्रक्रिया को काउंटर नहीं कर पाई। कांग्रेस का नेतृत्व भी एक बड़ा कारण है जो सन पच्चासी के बाद लगातार कमजोर होता गया है। अभी जो नेतृत्व है वह कमजोर है। उसे जमीन की समझदारी नहीं है। आज चूंकि कांग्रेस कमजोर है और तीसरी कोई ताकत है नहीं, इसलिए भाजपा यहां लगातार सत्ता में बनी हुई है। आम आदमी पार्टी इस बार चुनाव में उतरी है, लेकिन वोट काटने के अलावा उससे बहुत उम्मीद नहीं है।  

(अच्युत याज्ञिक सेंटर फॉर सोशल नॉलेज ऐंड ऐक्शन (सेतु) से संबद्घ राजनीतिक टिप्पणीकार हैं। अभिषेक श्रीवास्तव से बातचीत के आधार पर)

 

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