Advertisement

ईरान पर भारत को दिखलानी थी फुर्ती

अमेरिका और उसके मित्र पश्चिमी देशों तथा ईरान के बीच परमाणु फ्रेमवर्क करार के रूप में संबंधों की बर्फ पिघलने का फायदा उठाने के लिए पाकिस्तान ने भारत के मुकाबले ज्यादा फुर्तीला कूटनीतिक फुटवर्क दिखाया है।
ईरान पर भारत को दिखलानी थी फुर्ती

 पाकिस्तान ने अपने अब तक के सबसे विश्वसनीय मित्र सऊदी अरब से मुंह फेरने में कोई देर नहीं की जिसने धन, विचाराधारा, ईंधन, हथियारों और कूटनीतिक प्रभाव के समर्थन से भारत, अफगानिस्तान, पूर्व सोवियत संघ और अमेरिका को छकाने के खतरनाक खेल में हमेशा पाकिस्तान की मदद की है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को जनरल मुशर्रफ के शिकारी पंजों से बचाने के लिए सऊदी अरब ने पनाह दी थी, इसकी परवाह न करते हुए शरीफ सरकार ने यमन के गृहयुद्ध में फौज भेजने की सऊदी अरब की गुजारिश तुरत-फुरत ठुकरा दी। यमन में हूदी बागियों की पीठ पर ईरान का हाथ है और सऊदी अरब को पाकिस्तानी फौजी मदद का मतलब होता ईरान से पाकिस्तान का बिगाड़। सऊदी अरब के ऊपर ईरान का पाकिस्तानी चयन इतना कठिन था कि प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और पाकिस्तान में विदेश नीति तथा सामरिक मामलों के असली संचालक फौजी प्रतिष्ठान ने फैसले का दारोमदार पाकिस्तानी संसद पर छोड़ दिया जिसने सऊदी अरब का आग्रह ठुकरा दिया। दरअसल, पाकिस्तानी फैसले के पीछे सोचा-समझा आकलन है। बड़ी ताकतों में पाकिस्तान का कोई बिना शर्त दोस्त रहा है तो चीन क्योंकि वह पाकिस्तान के जरिये भारत पर सामरिक दबाव बनाए रखना चाहता है। अपने परमाणु कार्यक्रम के लिए अमेरिका तथा उसके पश्चिमी मित्र देशों के आर्थिक प्रतिबंध दशकों से झेल रहा ईरान चीन का ऋणी है। इसलिए कि चीन इस दौरान ईरान के तेल का सबसे बड़ा खरीदार बनकर आर्थिक संकट से जूझने में उसकी मदद करता रहा जबकि दूसरे देश पश्चिम के दबाव में आ गए। ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी और रहबर यानी सर्वोच्च नेता अली खामिनेई भले ही अमेरिका और पश्चिम के इरादों तथा परमाणु समझौते पर उनके वास्तविक अमल को लेकर सार्वजनिक तौर पर आशंका जाहिर कर रहे हों एवं आर्थिक प्रतिबंध पश्चिम के योजनानुसार धीरे-धीरे हटाए जाएं या ईरान की इच्छानुसार एक बारगी, इसे लेकर वास्तविक मतभेद अभी हल होने हों- इसके बावजूद ईरान को उम्मीद है कि आर्थिक प्रतिबंध देर-सवेर हटा लिए जाएंगे। अभी बीजिंग दौरे में यह उम्मीद जाहिर करते हुए ईरान के तेल मंत्री बिजान नामदार जांगानेह ने भरोसा दिलाया है कि प्रतिबंध के दिनों में चीनी सहयोग की एवज में चीन के साथ ईरान तेल तथा अन्य क्षेत्रों में सहयोग और बढ़ाएगा। खबर है कि चीन एक पाइपलाइन बनाकर ईरान की गैस पाकिस्तान तक लाएगा और चीनी राष्ट्रपति शी की आगामी इस्लामाबाद यात्रा के दौरान इस करार पर दस्तखत हो जाएंगे। यह 700 कि.मी. लंबी पाइपलाइन चीन अपनी मदद से बलूचिस्तान में बनाए जा रहे बंदर ग्वादर से सिंध के नवाबशाह तक बिछाएगा जो पाकिस्तान का गैस वितरण केंद्र है। ग्वादर से ईरानी सीमा तक एक छोटी 80 कि.मी. लंबी पाइपलाइन पाकिस्तान खुद बनाएगा।

चीनी-ईरानी ईंधन सहयोग का आर्थिक लाभ पाकिस्तान को इस तरह मिलेगा ही, चीन-ईरान-पाकिस्तान की त्रिकोणात्मक आर्थिक धुरी का संलग्न सामरिक लाभ भी उसे प्राप्त होगा। अमेरिका और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) अफगानिस्तान से जल्द ज्यादातर फौजें हटाने की घोषणा कर चुके हैं। इस हालत में पाकिस्तान और अफगानिस्तान के ताकतवर पश्चिमी पड़ोसी ईरान की बेरुखी अफगानिस्तान में भारत विरोधी सामरिक गहराई निर्मित करने के दूरगामी पाकिस्तानी मंसूबों के लिए अड़चनें पैदा कर सकती थी। पाकिस्तान की ताजा कूटनीतिक फुर्ती ने आर्थिक धुरी के लिए राह खोलकर अफगानिस्तान के मामले में ईरान की अनुकूलता अर्जित करने का एक आधार उसे दे दिया है।

उधर पिछले सालों में भारतीय विदेश नीति का दायरा और चिंताएं सिकुड़ती गई हैं। गुटनिरपेक्षता की नीति और आंदोलन शीत युद्धोत्तर विश्व में भले ही अप्रासंगिक हो गया हो, उसकी वजह से भारतीय विहंगम दृष्टि दुनिया के कई कोनों और चिंताओं तक जाती थी। अब सिर्फ सुरक्षा और पूंजी निवेश की चिंताओं से ही हमारी विदेश नीति संचालित होती है। इसलिए उसकी दृष्टि पाकिस्तान, चीन, दक्षिण एशियाई पड़ोसियों, अमेरिका तथा उसके पश्चिमी मित्र और रूस-जापान जैसी एकाध बड़ी अर्थव्यवस्थाओं तक ही मंडराती है। निवेश और सुरक्षा के मामलों में स्वायत्त चयन के बदले भारत अमेरिका और उसके पश्चिमी मित्रों पर ही ज्यादा निर्भर होता गया। इसलिए तेल हो अथवा मानव संसाधन निर्यात, पश्चिम एशिया में अमेरिका के सऊदी अरब और इस्राइल जैसे मित्रों से ही भारत ने ज्यादा आमदरफ्त रखी। इस आरामदेह दायरे में हम इतना मगन हो गए कि पश्चिम एशियाई उथल-पुथल और उसमें अब बैकफुट पर जाते अमेरिका और नाटो के कारण पैदा गतिशील परिस्थितियों के अनुरूप फुर्ती भारतीय कूटनीति नहीं दिखा सकी। इस्लामी राज्य और अन्य इस्लामी पुनरुत्थानवादी तंजीमों के उभरने और रूस एवं चीन के सहारे तथा हेज्बोल्ला, असद, इराकी शिया समूहों, हूदी आदि जैसे अपने सामरिक एसेट्स के बल पर सीरिया, इराक, यमन, लेबनान में बढ़ते ईरानी प्रभाव की वजह से अमेरिका और उसके पश्चिमी मित्र ईरान के साथ तालमेल बढ़ाने को तत्पर हुए - सऊदी अरब और इस्राइल को नाराज करके भी। ईरान भी आर्थिक प्रतिबंधों से मुक्ति के लिए छटपटा रहा था। अत: परमाणु समझौते के लिए परिस्थिति बनी। पश्चिमी देश यूरेनियम संवर्धन के ईरानी अधिकार को मान्य करने पर राजी हुए तो ईरान भी संवर्धित यूरेनियम के भंडार में कटौती तथा अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की ज्यादा गहन निगरानी के लिए तैयार हुआ। पश्चिमी विशेषज्ञों के अनुसार इससे ईरान की परमाणु बम निर्माण क्षमता 10 वर्ष पीछे चली गई है और दोनों पक्षों को परमाणु पंजा लड़ाई में दम मारने की फुर्सत मिल गई है - इस उम्मीद में कि तब तक परिस्थिति गुणात्मक रूप से बदली हुई होगी।

इस बीच, भारत पिछले वर्ष नई सरकार आने के बाद पूंजी और माल की खरीद के लिए पश्चिमी और अन्य आर्थिक ताकतों के साथ पींगे बढ़ाने एवं प्रवासी भारतीयों के बीच नई सरकार के जन संपर्क प्रचार अभियान में इतना ज्यादा मगन हो गया कि विदेश नीति के कई क्षेत्रों से पहले से फिसलती उसकी दृष्टि नई जुंबिशें ताडऩे में चूकती गई। नतीजा: ईरान से संबंधित पाकिस्तान की चुस्ती के मुकाबले हमारी ढिलाई। कहें तो तेल बाजार में ईरान के आ जाने से यदि तेल और सस्ता हुआ तो भारत को भी थोड़ा लाभ होगा। लेकिन लाभ के केक का ज्यादा बड़ा हिस्सा चीन और पाकिस्तान को मिलेगा। इराक और यमन जैसे अशांत क्षेत्रों से कुशल भारतीय श्रमशक्ति के पलायन के बाद ईरान में जो रोजगार के अवसर बन सकते हैं, उनका लाभ उठाने में भी अब पाकिस्तान बेहतर स्थिति में है। सबसे बड़ी बात तो यह कि अफगानिस्तान से अमेरिका एवं नाटो की वापसी के बाद वहां अपने हितों की रक्षा में हम ईरान से सहयोग का द्वार खोल सकते थे, लेकिन अब उसका काट खोजने की राह पर पाकिस्तान बढ़ चुका है। ईरान को शक रहा है कि भारत अमेरिकी दबाव में ईरान-पाकिस्तान-भारत गैस पाइपलाइन परियोजना से पीछे हटा हालांकि हम कहते रहे कि अशांत बलूचिस्तान से गुजरने के कारण प्रस्तावित पाइपलाइन का जो बीमा मूल्य बढ़ा वह भारत के लिए भारी था इसलिए परियोजना लाभप्रद नहीं रही। लेकिन ईरानी शक के निराकरण की कोई कूटनीतिक पहल भारत से न हो सकी, यह ढिलाई चपल राजनय नहीं कहलाएगी।

वैसे, अभी यह देखना है कि कहीं गहरे जमे पश्चिमी-ईरानी अविश्वास की चट्टान पर समझौते के लिए राष्ट्रपति ओबामा और राष्ट्रपति रूहानी की यह पहल दम न तोड़ दे। दुनिया के लिए यह अच्छा नहीं होगा।

Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad