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गणतंत्र दिवस ट्रैक्टर परेड हकीकत और फसाना

आजादी के बाद का यह पहला गणतंत्र दिवस था कि जब राजधानी दिल्ली में दो परेड हुई, सदा की तरह एक सरकारी छतरी...
गणतंत्र दिवस ट्रैक्टर परेड हकीकत और फसाना

आजादी के बाद का यह पहला गणतंत्र दिवस था कि जब राजधानी दिल्ली में दो परेड हुई, सदा की तरह एक सरकारी छतरी के नीचे; दूसरी ट्रैक्टरों की छतरी के नीचे। 72वें गणतंत्र दिवस के आते-आते देश इस तरह बंटा हुआ मिलेगा, किसने सोचा था? यह आज किसानों और गैर-किसानों में, पक्ष और विपक्ष में, लोक और तंत्र में ही बंटा हुआ नहीं है, यह तन और मन से इतनी जगहों पर, इतनी तरह से बंटा हुआ है कि आप उसका आकलन करते हुए घबराने लगें।

आइटीओ चौराहे पर भावावेश में कांपते उत्तर प्रदेश के किसान सतनाम सिंह ने यही कहने की कोशिश की ‘‘आप बताओ, गणतंत्र कहते हैं तो गण यहां है कहां? आप हमें अपनी राजधानी में आने से रोकने वाले कौन हैं? हमने ही आपको बनाया है और कल हम ही किसी दूसरे को बना देंगे, तो आप नहीं रहोगे लेकिन हम तो रहेंगे। आप हमारा ही अस्तित्व नकार रहे हो? इतना उत्पात होता ही क्यों अगर आप हमें बेरोक-टोक आने देते. हम बेरोक-टोक आ पाते तो खुद ही परेशान हो जाते कि यहां आकर करना क्या? क्या कर लेते यहां आकर हम? लेकिन आपने रोककर, हमारे ट्रैक्टर तोडक़र, हमारी गाडिय़ों के शीशे चूर कर, हम पर लाठियां बरसा कर हमें वह सारा काम दे दिया, जिसे अब आप प्रचारित कर रहे हो!’’ सतनाम सिंह बड़ी भावुकता से बोले, ‘‘इन्होंने उत्तर प्रदेश में हिंदू और सिखों के बीच दरार डालने की कोई कोशिश बाकी नहीं रखी। हिंदुओं के मन में यह विष डालने की कोशिश हुई कि हम सिख लोग किसान आंदोलन की आड़ में खालिस्तान बनाएंगे। हम तो हिंदू भाइयों को लख-लख धन्यवाद देते हैं कि उन्होंने इस विष का पान नहीं किया, उगल दिया। इस आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत यह है आज कि यह हिंदू-सिख-मुसलमान-पारसी-दलित सबको जोड़ कर एक मंच पर ले आया है। भाई साहब, मैं कहता हूं कि हमारा मक्का-मदीना, काबा-कैलाश, खालिस्तान सब यही हिंदुस्तान है। हम दूसरा न कुछ चाहते हैं, न मांगते हैं।’’
किसान संगठनों ने समांतर ट्रैक्टर रैली की घोषणा की, बड़ी सावधानी से उसकी तैयारी भी की थी लेकिन उन्हें भी अंदाजा नहीं था कि कितने किसान, कितने ट्रैक्टरों के साथ आ जाएंगे। अंदाजा सरकार को भी नहीं था कि इस किसान आंदोलन की जड़ें कितनी गहराई तक जा चुकी हैं। इसलिए गणतंत्र दिवस की सुबह जब दोनों आंखें मलते उठे तो सूरज सिर पर चढ़ चुका था। दिल्ली-गाजीपुर सीमा पर लगा किसान मोर्चा दिल्ली पुलिस की संधि तोड़ कर निकल चुका था, उसने निर्धारित समय और निर्धारित रास्ते का पालन नहीं किया (किसान यूनियन के मुताबिक निर्धारित रास्ते पर दिल्ली पुलिस की बेरिकेडिंग नहीं हटी और दिल्ली वाले रास्ते पर हल्की पाबंदी ही थी इसलिए कुछ किसान उधर को चले गए)। वह सीधा दिल्ली की तरफ मुड़ गया। एक टोली मुड़ी तो बाकी ने भी वही किया। इसे ही भीड़ कहते हैं।
ट्रैक्टरों का काफिला कैसा होता है, यह न किसानों को मालूम था, न पुलिस को। किसानों ने बहुत देखा था तो दो-चार-दस ट्रैक्टरों को खेतों में जाते देखा था; पुलिस ने तो महानुभावों के कारों की रैली भर देखी थी या फिर अपने साहबों के वाहनों की रैली। इसलिए जब किसानों की ट्रैक्टर रैली दिल्ली की सीमा में घुसी तो हैरानी और अविश्वास से अधिक या अलग कोई भाव पुलिस अधिकारियों के चेहरों पर नहीं था।
ट्रैक्टर क्या कहिए, मिनी टैंक बने सारे ट्रैक्टर फिर रहे थे। रास्ते में लगे लोहे की कई स्तरों वाली बैरिकेडें इस तरह ढह रही थीं कि मानो ताश के पत्तों की हों। पुलिस द्वारा लगाए अवरोधों की ऐसी अवमानना किसी मीडिया वाले को बेहद खली और उसने एक संदर्भहीन लेकिन तीखी टिप्पणी की। मुझे तो राजधानी की ऐसी घेराबंदी हमेशा ही बहुत खलती रही है, अश्लील लगती रही है। और सत्ता की ताकत से की गई ऐसी हर घेराबंदी खुलेआम चुनौती उछालती है कि कोई इसे तोड़े। इस बार किसानों ने उसे तोड़ ही नहीं दिया, पुलिस-प्रशासन का यह भ्रम भी तोड़ दिया कि यह कोई अनुल्लंघनीय अवरोध है। लोहे के अवरोध हों कि कानून के, तभी तक मजबूत होते हैं और उतने ही मजबूत होते हैं जिस हद तक लोग उसे मानते हैं। एक बार इनकार कर दिया तो लोग एवरेस्ट भी सर कर जाते हैं। शासक-प्रशासन इन गणतंत्र दिवस का यह संदेश याद रखें तो गण का भी और तंत्र का भी भला होगा।
लेकिन दिल्ली के हृदय-स्थल आइटीओ पहुंचने के बाद राजपथ और लाल किला जाने की जैसी बेसुध होड़ किसानों और उनके ट्रैक्टरों ने मचाई, वह शर्मनाक ही नहीं, बेहद खतरनाक भी था। कानून-व्यवस्था बनाए रखने का जिम्मा जिन पुलिसवालों पर था, वे संख्या में भी और मनोबल में भी बेहद कमतर थे। नौकरी बजाने और आंदोलन का सिपाही होने का मनोबल कितना अलग-अलग होता है, यह साफ दिखाई दे रहा था। सही आंकड़ा तो पुलिस विभाग ही दे सकता है लेकिन दिखाई दे रहा था कि 500-700 किसानों पर एक पुलिस का औसत भी शायद नहीं था। संख्या का यह असंतुलन ही ऐसा था कि कैसी भी पुलिस कार्रवाई बेअसर होती। यह हुई होती तो 26 जनवरी 2021 को राजधानी दिल्ली का आइटीओ चौक, ठीक गणतंत्र दिवस के दिन, 4 जून 1989 का बीजिंग का थ्येन आन मन चौक बन सकता था। हमें इसके लिए सरकार और प्रशासन की प्रशंसा करनी चाहिए।
लेकिन इस बात की प्रशंसा कदापि नहीं करनी चाहिए कि उसने ऐसे हालात पैदा होने दिए। किसानों का आंदोलन 2020 के जून महीने से गहरी सांसें भरने लगा था जो पिछले कोई 60 दिनों से गरजने लगा था। दिल्ली प्रवेश के तमाम रास्तों पर किसान जमा ही नहीं थे, उन्होंने किसान-नगरी बसा रखी थी। शहर की एक किलाबंदी सरकारी निर्देश से पुलिस ने कर रखी थी; दूसरी किसानों ने कर रखी थी। कोई राजधानी इस तरह अप्रभावी शासकों और बेसमझ प्रशासकों के भरोसे कैसे छोड़ी जा सकती है? लेकिन दिल्ली छोड़ दी गई। देश का सर्वोच्च न्यायालय इस बचकानी और गैर-जिम्मेवारी भरी टिप्पणी के साथ हाथ झाड़ गया कि यह पुलिस पर है वह इनसे कैसे निबटती है। उसे कहना तो यह चाहिए था कि शासन-प्रशासन का यह मामला शासन-प्रशासन निबटे लेकिन आपने कोई संवैधानिक मर्यादा तोड़ी तो हम बैठे हैं! लेकिन वह आंख-कान-दिमाग व संविधान की किताब बंद कर जो बैठी तो बैठी ही रह गई। सरकारी अमला जितनी मूढ़ता, क्रूरता व काइयांपने से चल सकता था, चलता गया। किसानों के तेवर रोज-ब-रोज कड़े-से-कड़े होते जा रहे थे। निर्णय ले सकने की सरकारी अक्षमता वे समझ गये थे। 10 दौरों की बातचीत में उन्होंने देख लिया था कि सरकार के पास कोई सूझ नहीं है। वार्ता में बात इतनी ही चलती रही कि किसने, क्या खाया; किसने किसका खाया और अगली बैठक कब होगी। किसान पहले दिन से एक ही बात कह रहे थे और अंतिम दिन तक वही कहते रहे कि तीनों कृषि कानून वापस लीजिए और हमें घर जाने दीजिए। किसानों का यह रवैया सही था या गलत बात इसकी नहीं है, सरकार का कोई निश्चित रवैया था नहीं, बात इसकी है. ‘कानून वापस नहीं होंगे’ कहने के पीछे कोई सरकार का कोई तर्क नहीं था। फर्जी किसान संगठनों को आगे किया गया, खुद को किसानों का असली हितचिंतक बताया गया और प्रधानमंत्री को अलादीन के चिराग का जिन बताया गया। हर दिन सरकार यह कह-कह निकल जाती रही कि अगली बात फलां याकि फलां तारीख को होगी। लेकिन बात क्या है कि जिसकी बात करनी है, यह बात किसी को मालूम नहीं थी।
किसानों को भी मालूम नहीं था कि 26 जनवरी को करना क्या है। जो दीख रहा था, वह था किसानों का दिशाहीन जमावड़ा और उन पर बेतरह लाठियां बरसाती, अश्रुगैस के गोले दागती पुलिस! किसानों ने भी जहां जो हाथ लगा उससे पुलिस पर हमला किया। लेकिन ऐसे वाकये उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। ये किसान कौन थे? निश्चित ही ये किसान आंदोलन के प्रतिनिधि किसान नहीं थे। वैसा होता तो इनको पता होता कि दिल्ली पहुंच कर इन्हें करना क्या है। तोडफ़ोड़ की बात भी होती तो वह भी ज्यादा व्यवस्थित और योजनाबद्ध होती। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो किसानों के हाथ में हथियार सरकारी व्यवस्था ने ही मुहैया कराए। लोहे व स्टील के अनगिनत अवरोधों को तोड़-तोड़ कर युवा किसानों ने डंडे बना लिए थे। उन डंडों से कुछ मार-पीट की और कुछ पुलिस वाहनों के शीशे तोड़े। लेकिन कहीं आगजनी नहीं हुई, कहीं गाडिय़ां नहीं फूंकी गईं, कहीं पुलिस पर योजनाबद्ध हमले नहीं हुए। जगह-जगह हमें बुजुर्ग, अनुभवी किसान ऐसे भी मिले, जो लगातार अपने उन्मत्त युवाओं को रोक रहे थे, उनके हाथ से लोहे के डंडे छीन कर फेंक रहे थे।
गाजीपुर के किसान जमघट का एक ग्रुप, जिसे सतनाम सिंह पन्नू का ग्रुप कहा जा रहा था, दीप सिद्दू तथा ऐसे ही दो-एक दूसरे ग्रुप अलग राग अलाप रहे थे। यहीं बड़ी चूक हुई। संयुक्त किसान मोर्चा ने कभी बयान जारी कर इन्हें स्वंय से अलग नहीं किया। वे किसान आंदोलन की इसी बड़ी छतरी में घुसे पनाह पाते रहे। ये भी इतने ईमानदार तो थे कि संयुक्त किसान मोर्चा से अपनी असहमति छिपाई नहीं। पुलिस से हुआ समझौता भी इन्हें कबूल नहीं था और आंदोलन को भी और पुलिस को भी इन्होंने बता दिया था कि वे किसी समझौते से बंधे नहीं हैं, ‘‘हम 26 जनवरी को दिल्ली में प्रवेश करेंगे, लालकिला जाएंगे।’’ संयुक्त किसान मोर्चा को उनके इस रुख की जानकारी देश को देनी चाहिए थी, पुलिस को लिखित देनी चाहिए थी कि ये लोग हमारे प्रतिनिधि किसान नहीं हैं, आप इनसे निबटिए। ऐसा न करना आंदोलन की चूक थी।
सरकार-प्रशासन की चूक हुई कि उसने इनसे निबटने की कोई अलग योजना बनाई ही नहीं। इन सबको 25 जनवरी की रात को ही गिरफ्तार किया जा सकता था। 26 जनवरी की सुबह इनकी ऐसी नाकाबंदी की जा सकती थी कि ये वहां से निकल ही न सकें। प्रशासन ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। क्यों? क्या कोई धागा था, जो इन्हें और सरकार को जोड़ता था? आंदोलकारी नेतृत्व के मन का चोर शायद यह था कि इनकी ताकत का कोई फायदा आंदोलन को मिल सके तो मिले। सरकारी मन का चोर शायद यह था कि इनकी लाठी से ही आंदोलन को पीटा जाए। इन दो कमजोरियों ने मिल कर वह किया जिससे देश शर्मसार हुआ। किसान नेता योगेंद्र यादव ने घटना के बाद कहा कि हम इनसे स्वंय को अलग करते हैं। यह कहना शोभनीय नहीं था। यह कह कर उन्होंने सयानेपन का परिचय दिया कि हम इसकी नैतिक जिम्मेवारी से बरी नहीं हो सकते। यह लोकतंत्र का बुनियादी पाठ है कि जो लोगों को सडक़ों पर उतार लाता है उन्हें अनुशासित रखने की पूरी और एकमात्र जिम्मेवारी उसकी ही है। उसमें विफलता हुई, इसकी माफी देश से मांग लेना सत्याग्रह-धर्म है।
26 जनवरी को ही सारे अखबारों, चैनलों ने यह लिखना-कहना शुरू कर दिया कि आंदोलन भटक गया, कि उसका असली चेहरा सामने आ गया। यह 27 को भी जारी रहा। लेकिन कोई यह नहीं लिख रहा है, कोई यह कह नहीं कह रहा है कि संसार भर में क्रांतियां तो ऐसे ही होती हैं। खून नहीं तो क्रांति कैसी? फ्रांस और रूस की क्रांति का इतना महिमामंडन होता है। उनमें क्या हुआ था? यह तो गांधी ने आकर हमें सिखाया कि क्रांति का दूसरा रास्ता भी है। इसलिए किसान आंदोलन का यह टी-20 वाला रूप हमें भाया नहीं है। लेकिन गांधी की कसौटी अगर आपको प्रिय है तो उसे किसानों पर ही क्यों, सरकार पर भी क्यों न लागू करते और प्रशासन पर भी? किसानों ने आइीटीओ पर पुलिस पर छिटफुट हमला किया, इसका इतना शोर है लेकिन पिछले महीनों में दिल्ली आते किसानों पर पुलिस का जो गैर-कानूनी, असंवैधानिक हमला होता रहा, उस पर किसने, क्या लिखा-कहा? सार्वजनिक संपत्ति का कुछ नुकसान 26 जनवरी को जरूर हुआ लेकिन प्रशासन ने सडक़ें काटकर, पेड़ काटकर, लोहे और सीमेंट के अनगिनत अवरोध खड़े करके, चाय-पानी की दूकानें बंद करवा कर, करोड़ों रुपयों का डीजल-पेट्रोल फूंक कर पुलिस और दंगानिरोधक दस्तों को लगाकर सार्वजनिक धन की जो होली पिछले महीनों में जलाई, क्या उस पर भी किसी ने लिखा-कहा कुछ? जिस तरह ये तीनों कानून चोर दरवाजे से लाकर देश पर थोप दिए गए, क्या उसे भी हिसाब में नहीं लेना चाहिए? क्या यह भी दर्ज नहीं किया जाना चाहिए कि किसानों ने पहले दिन से ही इन कानूनों से अपनी असहमति जाहिर कर दी थी और फिर कदम-दर-कदम वे विरोध तक पहुंचे थे?  सरकार ने हमेशा उन्हें तिनके से टालना और धोखा देना चाहा। सबसे पहले शरद पवार ने यह सारा संदर्भ समेटते हुए कहा कि यह सब जो हुआ है, उसकी जिम्मेवारी सरकार की है।
गांधी ने भी एकाधिक बार अंग्रेजों से कहा था कि जनता को हिंसा के लिए मजबूर करने के अपराधी हैं आप! यही इस सरकार से भी कहना होगा। पिछले कई साल से समाज को झूठ, गलतबयानी, क्षद्म की खुराक पर रखा गया है। उन्हें हर मौके पर, हर स्तर पर बांटने-तोडऩे-भटकाने का सिलसिला ही चला रखा गया है। यह जो हुआ है वह इसकी ही तार्किक परिणति है। आप संविधान को साक्षी रख कर गोपनीयता की शपथ लें और अर्णब गोस्वामी से सुरक्षा जैसे संवेदनशील मामलों की जानकारी बांटें, तो देश का मन कैसा बना रहे हैं आप? आप मनमानी करें क्योंकि आपके पास संसद में टुच्चा-सा बहुमत है; तो वह जनता, जो बहुमत की जनक है, वह मनमानी क्यों न करे? देश-समाज का एक उदार, उद्दात्त और भरोसा कायम रखने वाला मन बनाना पड़ता है जो कुर्सी पर से उपदेश देने से नहीं बनता है। यह बहुत पित्तमार काम है। जनता भीड़ नहीं होती है लेकिन उसके भीड़ में बदल जाने का खतरा जरूर होता है। लोकतंत्र जनता को सजग नागरिक बनाने की कला है। वह कला भले आपको या उनको न आती हो लेकिन जनता को भीड़ में बदलना वह गर्हित खेल है जो समाज का पाशवीकरण करता है, लोकतंत्र को खोखला बनाता है। वह खेल पिछले वर्षों में बहुत योजनापूर्वक और क्रूरता से खेला गया है। ऐसे खेल में से तो ऐसा ही समाज और ऐसी ही सरकार बन सकती है।
पता नहीं कैसे-कैसे खेल-खेल कर आप सत्ता की कुर्सी पा गए हैं। फिर आप लालकिला पहुंच जाएं तो वह गरिमापूर्ण है; पिट-पिटा कर किसान लालकिला पहुंचे तो वह गरिमा का हनन है, मीडिया का यह तर्क कैसा है भाई? मुझे इस बात से कोई एतराज नहीं है कि कोई युवक झंडे के खंभे पर जा चढ़ा और उसने वहां किसानों का झंडा फहरा दिया। एतराज इस बात से है, और गहरा एतराज है कि उसने खालसा पंथ का झंडा भी लगा दिया। यह तो समाज को बांटने के सत्ता के उसी खेल को मजबूत बनाना हुआ न, जो धर्म,संप्रदाय आदि को चाकू की तरह इस्तेमाल करती है। किसानों का झंडा देश की खेतिहर आत्मा का प्रतीक है। लाल किला के स्तंभ पर किसी वक्त के लिए उसकी जगह हो सकती है, लेकिन किसी धर्म या संप्रदाय का झंडा लाल किला पर नहीं लगाया जा सकता है। वह किसी नादान युवक की मासूम नादानी थी याकि किसी एजेंट की चाल यह तो पुलिस और किसान आंदोलन के बीच का मामला बन गया है। किसान आंदोलन को आरोप लगा कर छोड़ नहीं देना चाहिए बल्कि इसकी जांच कर, सप्रमाण देश को बताना चाहिए। लाल किला के शिखर पर फहराता तिरंगा किसी ने छुआ नहीं, यह भला हुआ।
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि गाजीपुर सीमा से चला किसानों का जत्था जिस तरह आदर्शों से भटका, दूसरे किसी स्थान से चला किसानों का जत्था भटका नहीं। सबने निर्धारित रास्ता ही पकड़ा और अपना निर्धारित कार्यक्रम पूरी शांति और अनुशासन से पूरा किया। देश भर में जगह-जगह किसानों ने ट्रैक्टर रैली की। कहीं से भी अशांति की एक खबर भी नहीं आई। सारे देश में इतना व्यापक जन-विरोध आयोजित हुआ और सब कुछ शांतिपूर्वक निबट गया, क्या किसान आंदलन को इसका श्रेय नहीं देंगे हम? गाजीपुर की चूक शर्मनाक थी। उसकी माफी किसान आंदोलन को मांगनी चाहिए। माफी की भाषा और माफी की मुद्रा दोनों में ईमानदारी होनी चाहिए। हमें भी उसी तरह किसानों की पीठ ठोकनी चाहिए। जैसे पानी में उतर कर ही तैरना सीखा जाता है, वैसे ही उत्तेजना की घड़ी में ही शांति का पाठ पढ़ा जाता है। किसान भी वह पाठ पढ़ रहा है। हम भी पढ़ें। अब सडक़ खाली हो चुकी है। किसानों के कुछ ट्रैक्टर यहां-वहां छूटे पड़े हैं। सडक़ पर लाठी और हथियारधारी पुलिस का कब्जा है। वह फ्लैगमार्च कर रही है। जीवन की नहीं, आतंक की हवा भरी जा रही है। गणतंत्र दिवस बीत चुका है।

(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष और वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

 

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