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अगली बार किस मुंह से रेप के आरोपी को सजा दिलाने के लिए मोमबत्ती जलाएंगे

क्या अजीब समाज है! रेप का आरोपी पकड़ा नहीं जाता तो यह मोमबत्ती जलता है और पकड़ा जाता है तो शहरों को फूंक डालता है।
अगली बार किस मुंह से रेप के आरोपी को सजा दिलाने के लिए मोमबत्ती जलाएंगे

क्या दुनिया में कोई अंदाजा लगा सकता है कि रेप के मामले में किसी व्यक्ति को दोषी ठहराए जाने का इतना व्यापक और हिंसक विरोध भी हो सकता है। वह भी उस देश में जहां 5 साल पहले बलात्कार के आरोपी को सजा दिलवाने के लिए पूरा देश मोमबत्तियां लेकर सड़कों पर था। जनपथ का रास्ता रायसीना हिल की तरफ मुड़ गया था। लगता था देश बदल गया है ! 

आज उसी देश में करीब 32 लोगों की जान चली जाती है, सैकड़ों घायल हो जाते हैं क्योंकि एक धार्मिक गुरु को गुनहगार ठहराया गया है। मानना पड़ेगा धर्म और आस्था की बात आते ही हम विवेक के दुश्मन हो जाते हैं। हिंसा की सुनामी हजारों सुरक्षाकर्मियों को ध्वस्त करते हुए सड़कों को लहूलुहान कर देती है। देश के कई राज्यों में कानून-व्यवस्था चरमरा जाती है। किसलिए? क्योंकि बहुत से लोगों को उनकी आस्था के आगे किसी कानून, संविधान और नैतिकता की परवाह नहीं है। जी हां, ये 2017 का "न्यू इंडिया" है!

बलात्कार के मामले में गुरमीत राम रहीम को अदालत द्वारा दोषी ठहराया जाना उनके समर्थकों को इतना नागवार गुजरा कि उन्होंने हरियाणा-पंजाब से लेकर दिल्ली-यूपी तक आतंक मचा दिया। सरकारी इमारतों, रेलवे स्टेशन और मीडिया वैन में आगजनी और तोड़फोड़ कर कानून-व्यवस्था को खुलेआम चुनौती दी गई। जान बचाने के लिए भागते पुलिस और मीडिया कर्मियों के दृश्य उपद्रवियों के सामने सरकार की बेबसी को उजागर करने के लिए काफी हैं। 

यौन शोषण जैसे गंभीर मामले में दोषी व्यक्ति को हजारों-लाखों लोगों का ऐसा समर्थन "न्यू इंडिया" की पोल खोल रहा है। आजादी के 70 साल बाद जहां हम मंगल पर पहुंचने का ख्वाब देख रहे हैं, वहीं अंधविश्वास और कट्टर आस्था हमें चार कदम पीछे ले जाने पर आमदा है। कल से आतंक फैला रहे लोग गुरमीत राम रहीम के पाले हुए चंद गुंडे नहीं हैं, बल्कि कई राज्यों में फैली अंधभक्तों की एक बड़ी फौज है।    

ताज्जुब की बात है कि उपद्रव की आशंका और कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने के खतरे के बावजूद डेरा प्रमुख के समर्थकों को पंचकूला में जमा होने दिया। आखिरी समय तक हाईकोर्ट धारा 144 लगाने और सुरक्षा इंतजाम मजबूत करने के लिए आगाह करता रहा। लेकिन हजारों-लाखों समर्थकों को पंचकूला में आ धमकने दिया। तीन साल के अंदर खट्टर सरकार की यह इस तरह की तीसरी नाकामी है। बड़ी संख्या में पुलिस बल की तैनाती और सेना की मदद के बावजूद जिस तरह हिंसा की आग हरियाणा-पंजाब से दिल्ली-एनसीआर तक पहुंची, वह सुरक्षा  इंतजामों की कलई खोलती है।  

यूं तो अस्सी के दशक में भी खालिस्तान समर्थक जनरैल सिंह भिंडरावाले की वजह से पंजाब की सड़कों पर हिंसा का तांडव आम हो गया था। हालांकि तब मुद्दा अलग राज्य और क्षेत्रीय-धार्मिक अस्मिता को लेकर भड़का। नब्बे और बाद के दशक में भी कट्टरपंथी उन्माद ने बहुत खून-खराबा कराया। तब भी हालात धर्म के नाम पर अराजक तत्वों को राजनैतिक संरक्षण मिलने की वजह से भड़के थे और आज भी कमोबेश वही स्थिति है। फिर भी रेप केस में दोषी व्यक्ति के पीछे अंध श्रद्धा और हिंसा का यह उन्माद हैरान करने वाला है। 

धार्मिक सत्ता और धनबल के समाने राजसत्ता के नतमस्तक होने का ही प्रमाण है कि पंजाब चुनाव से पहले डेरा प्रमुख का समर्थन हासिल करने के लिए राजनैतिक दलों और उम्मीदवारों में होड़ मची थी। यौन शोषण के मामले में सलाखों के पीछे आसाराम के सामने भी नेता इसी तरह नतमस्तक रहते थे। दरअसल, इन कथित बाबाओं को ताकत और इनके समर्थकों को कानून-व्यवस्था हाथ में लेने का माद्दा यहीं से मिलता है। रामपाल के समर्थकों की प्राइवेट आर्मी का कानून को ठेंगा दिखाना हो या मथुरा में रामवृक्ष यादव के चेलों का पुलिस टीम पर हमले का दुस्साहस, ऐसे नजारे देश में पहले भी दिखाई देते रहे हैं। लेकिन शुक्रवार को जो हुआ वह निश्चित तौर पर समाज में विवेक के ऊपर भावनाओं और पूर्वाग्रह के दबदबे को दिखाता है और साबित करता है कि 2017 में भी देश बदला नहीं है। 

क्या हम लहूलुहान सड़कों से गुजरते हुए नया इंडिया बनाने जा रहे हैं। अगली बार किस मुंह से रेप के आरोपी को सजा दिलाने के लिए मोमबत्ती जलाएंगे। 

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