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सचेत करती उत्तराखंड चमोली त्रासदी

दुर्घटनाएँ हमें हानि का एहसास तो कराती ही हैं, भविष्य के लिए चेताती भी हैं। किन्तु भारत में जब कोई...
सचेत करती उत्तराखंड चमोली त्रासदी

दुर्घटनाएँ हमें हानि का एहसास तो कराती ही हैं, भविष्य के लिए चेताती भी हैं। किन्तु भारत में जब कोई प्राकृतिक दुर्घटना होती है तो एक बड़ा विमर्श खड़ा तो होता है, परन्तु उसके बारे में हम सतत, सजग एवं जारूक नहीं रह पाते। उत्तराखण्ड में अभी हाल ही में हिमनद फटने से ‘ऋषि-गंगा में आई बाढ़ एवं उससे हुई मानवीय हानि ने हमें झकझोर कर रख दिया है। इस दुर्घटना ने अनेकों तरह की जान-माल की हानि तो की ही, इसने हमारे पर्यावरणीय नीतियों, हिमालय के संश्रोतो के योजना बद्ध व्यवस्थापन के बारे में भी पुनरावलोकन करने के लिए हमें बाध्य किया है।

हिमालय न केवल भारत बल्कि दुनिया के एक बड़े भाग के लिए अनेक संश्रोत देने वाला एवं मानवीय सृष्टि को सतत जीवन ऊर्जा देने वाला परिक्षेत्र है। बिना दीर्घकालीन दृष्टि के किए गए अनेक आधुनिक हस्तक्षेपों ने इस हिमालय क्षेत्र में अनेक सर्वग्रासी संकट पैदा कर दिए हैं। जब भी हिमालय में कोई प्राकृतिक दुर्घटना आई, भविष्य में ऐसा न हो इसके लिए नीतियाँ बनाई भी गई किन्तु उनकक बेहतर कार्यन्वयन एवं देख रेख न होने के कारण ऐसे प्रयास बिना सार्थक परिणाम दिए ही काल-कवलित हो गए। इस आलेख में मैं हिमालय क्षेत्र में हिमनद (ग्लेशीयर) के रख-रखाव एवं व्यवस्थापन की चुनौतियों के बारे में कुछ बातें कहना चाहता हूँ। ये हिमनद (ग्लेशियर) हिमालय में जीवन ऊर्जा के श्रोत हैं, तो विनाश के कारण भी हो सकते हैं। इस समझ के साथ ‘हिमनादों’ का बेहतर एवं सतत व्यवस्थापन की नीतियों पर अगर सरकार और सिविल सोसाइटी काम नहीं करेंगीं तो ऐसी समस्याएँ बार-बार आती रहेंगी।

उत्तराखण्ड जब उत्तर प्रदेश से अलग होकर आज से लगभग 20 साल पहले नया राज्य बना था, तो यह माना गया था कि उत्तरांचल की समस्याओं, वहाँ के पर्यावरण, ‘हिमालय’, के संश्रोतो का व्यवस्थापन वहाँ की राज्य सरकार माइक्रोस्तर पर नीतियाँ बनाकर सक्षमता से कर पायेगी। कई बार ऐसे प्रयास हुए भी, किन्तु उनमें सातत्य का अभाव रहा। सरकारें बदलने से नीतियों में भी बार-बार बदलाव किये गये। सरकारों की अपनी प्राथमिकताएँ भी बदली। जबकि राज्य सत्ता एक संस्थान है, जिसमें दृष्टिवान नीतियाँ सतत रूप से जारी रहनी चाहिए थी। सरकारों के आने-जाने का उन पर असर नहीं पड़ना चाहिए था। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। इस पर लगभग सभी की सहमति है कि हिमालय क्षेत्र में हिमनदो (ग्लेशियर्स) का बेहतर एवं सतत व्यवस्थापन होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि विज्ञान, तकनीकि एवं समाज विज्ञान के बिशेषज्ञ साथ मिलकर इनका सर्वेक्षण करें एवं सुझाव दें। राज्य सरकार इन शोधों एवं सुझावों पर आधारित नीतियाँ बनाकर सेवाभावि संस्थाओं के सहयोग से इन्हें बेहतर ढंग से एवं सतत रूप से लागू करती रहती। उत्तराखण्ड सरकार ने इस दिशा में कई बार सोचा भी, परन्तु वह ऐसे प्रयासों को सातत्य नहीं दे पाई।

2010 के आस-पास जब डाॅ0 रमेश पोखरियाल निशंक उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री बनेे, तो हिमनद व्यवस्थापन की नीतियों एवं उनको लागू करने के कार्य को सततता देने के लिए उन्होंने एक ‘हिमनद प्राधिकरण’ का गठन किया था उस वक्त हिमनदों एवं हिमशिलाओं के संरक्षण का यह दुनिया का पहला प्राधिकरण माना गया था। हिमनदो को सिकुड़ने से रोकने एवं उनके संरक्षण, संबर्द्धन के लिए यह प्राधिकरण शोध, नीति निर्माण एवं उनके कार्यान्वयन की नोडल एजेन्सी के रूप में संकल्पित की गई थी। डाॅ0 रमेश पोखरियाल निशंक ने अपने स्वयं के पहल पर हिमालय क्षेंत्र में भविष्य में आने वाले संकटों का पूर्वाभाष कर इसकी स्थापना की थी।

इसमें राज्य के दस बड़े एवं 1400 छोटे हिमनदों के सतत व्यवस्थापन की संकल्पना की गई थी। अपने दो-ढाई साल के काल खण्ड में उन्होंने हिमनदों के संरक्षण, संवर्द्धन एवं देखरेख के लिए इस नोडल एजेंसी को काफी सक्रियता भी दे दी थी। किन्तु उनके जाने के बाद इस दिशा में बाद के मुख्य मंत्रियों ने उतना जोर नहीं दिया। फलतः यह ‘प्राधिकरण’ हिमनद से जुड़ी प्राकृतिक दुर्घटनाओं को रोकने में उतनी कारगर भूमिका नहीं निभा पाया।

उत्तराखण्ड में विकास की अवधारणा अन्य राज्यों से अलग है। यहाँ विकास के साथ-साथ हिमालय की प्रवृति को भी सजोने एवं संवारने की चुनौती मुख्य मंत्रियों एवं राज्य सरकारों के सामने होती है। जो मुख्यमंत्री एवं राज्य सरकार इस चुनौती को अपनी विकास नीति में सम्यक जगह दे पाता है, वही उत्तराखण्ड को सही मायने में विकास से जोड़ पाता है। इन दोनों के बीच थोड़ा भी असंतुलन इस राज्य में विकास करते-करते विनाश का कारण हो सकता है। विकास नये अर्थ में बाहरी हस्तक्षेपों को आमंत्रित करती है। उसमें पारम्परिक संश्रोतों के संरक्षण, संबर्द्धन की चेतना नहीं होती। अतः उत्तराखंड में जो भी ‘विकास पुरुष’ बनेगा, उसे विकास एवं पारंपरिक श्रोतों के संरक्षण के बीच संतुलन बनाकर रखना ही होगा। उत्तराखण्ड को जरूरत है कि आज डाॅ0 रमेश पोखरियाल निशंक के ‘हिमनद प्राधिकरण’ जैसी पहल को सशक्त बनाया, साथ ही ऐसे और भी प्रयासों की संकलपना भी की जाए। इतना ही नहीं राज्य व्यवस्था को अपने ऐसे प्रयासों को सातत्य भी देना होगा। अगर सरकारें बदलने से प्राथमिकताओं में आने वाले परिवर्तन ऐसे मुद्दों को न प्रभावित कर पाये तो यह राज्य और समाज दोनों के लिए हितकर होगा।

(लेखक इलाहाबाद स्थित जी.बी.पंत इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर हैं)

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