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एक 'मॉडल' के तीन पहलू

- कांची कोहली और मंजू मेनन पिछले कई वर्षों से इस मुद्दे पर काफी बहस हुई है। 2014 के राष्ट्रीय चुनाव में जिस...
एक 'मॉडल' के तीन पहलू

- कांची कोहली और मंजू मेनन

पिछले कई वर्षों से इस मुद्दे पर काफी बहस हुई है। 2014 के राष्ट्रीय चुनाव में जिस कसौटी पर भाजपा पूर्ण उल्लास के साथ खरी उतरी, आज गुजरात में उसी पर विरोधी पक्षों का निशाना है। एक समय 'गुजरात मॉडल' को उद्योगपतियों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय विशेषज्ञों ने इतना सराहा था कि वह देश के भविष्य का आधार बन गया। उसी दौरान इसे लेकर काफी टिप्पणियां की गई; साथ ही  साथ कई आंदोलनों की तरफ से 'गुजरात मॉडल' के  प्रभाव पर सवाल भी उठे। 

हाल में भाजपा ने गुजरात मॉडल का जिक्र न के बराबर किया है। लेकिन आने वाले चुनाव में इसका असर साफ दिखने को मिल रहा है। जिस मॉडल के बूते नौकरियों की बहार आनी थी, वो ही आज आंख-मिचोली खेल रहा है। भाजपा यह हरगिज नहीं चाहेगी कि चुनावी परिणाम गुजरात मॉडल पर 'रेफेरेंडम' साबित हों।

इस मॉडल के तीन पहलू  हैं, जिनको समझने से इस आर्थिक ढांचे का सामाजिक और पर्यावरणीय अन्याय साफ नजर आता है। पहला, बड़े कॉर्पोरेट्स को राजनीतिक संरक्षण; दूसरा, कानूनी अनुपालन के बदले कॉरपोरेट सोशल रिपॉन्सबिलिटी यानी सीएसआर; और तीसरा, सार्वजनिक संसाधानों का निजीकरण।

बड़े कॉर्पोरेट्स को राजनीतिक संरक्षण

गुजरात में बड़े उद्योग काफी समय से रहे हैं। टाटा के मीठापुर नमक उत्पादन की कहानी तो 1939 से शुरू हुई थी।  एसआर और रिलायंस  के पोर्ट भी भी इस औद्योगिक विकास का हिस्सा हैं। गुजरात के औद्योगीकरण के लिए सामूहिक और निजी जमीन का बड़े पैमाने पर अधिग्रहण हुआ है।

2002 के भूकंप के बाद कच्च्छ जिले के पुनर्निर्माण के नाम पर ऐसी ही प्रक्रिया शुरू की गयी। देखा जाए तो इस आपदा को जानबूझकर कॉर्पोरेट व्यापार के अवसर में बदला गया था और कुछ आर्थिक विशेषज्ञों ने उसका स्वागत भी किया था। यह रणनीति भाजपा के लिए कारगर साबित हुई और सत्ता से जुडी हुए कॉरपोरेटों को अप्रत्याशित लाभ मिला। इसकी एक बानगी फोर्बेस पत्रिका के मार्च  २०१४  के लेख में दिखेगी कि कैसे गुजरात में कॉरपोरेट्स को हजार एकड़ जमीन कौड़ियों के भाव बेची गई। 

कच्छ में सक्रिय कंपनियां अब जिले की लगभग पूरी तटीय भूमि को घेर चुकी हैं। इसमें से कई एकड़ जमीन बिना किसी सक्रिय उपयोग के स्पेशल इकनॉमिक जोन्स (सेज) में जा चुकी है। आजकल इस पर ना चरागाह है, ना कोई खेती हो रही है और ना ही मछुवारों के आने-जाने का रास्ता बचा है। बस चारों तरफ एक 'बाउंड्री वाल' है।

कुछ लोगों के लिए बड़ी कंपनियों के साइन बोर्ड गुजरात गौरव का प्रतीक हैं। लेकिन बड़े उद्योगों को बढ़ावा देते-देते कई छोटे और मझोले उद्योगों को गंभीर नुकसान पहुंचा है। विशेषकर मछली पकड़ने, खेती या नमक उत्पादन जैसी पारम्परिक गतिविधियों  की इस बुलेट ट्रेन मॉडल में कोई भूमिका ही नहीं रही। जबकि सच तो यह है कि ये व्यवसाय मात्र स्थानिक आजीविकायें नहीं हैं, बल्कि पीढ़ियों से चली आ रही सफल परियोजनाएं हैं। इनकी बदहाली के चलते ही  2017 के विधानसभा चुनावों की घोषणा से पहले ही इन लघु उद्योगों की नाराजगी उभरती हुई नजर आई। गुजरात मॉडल जो देश भर में  नौकरियां देने वाला था, घर की  बेरोजगारी संभालने में सक्षम नहीं रहा।

कानूनी अनुपालन के बदले सीएसआर

गुजरात मॉडल को समझने का दूसरा बिंदु है: कानूनी अनुपालन के बदले कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व,  जिसे सीइसआर के नाम से जाना जाता है। 1990 के आर्थिक उदारीकरण के समय भारत जैसे कई देशों में पर्यावरणीय नियमों को लागू किया गया था। इसका मूल उद्देश्य आर्थिक विकास को सामाजिक और प्राकृतिक रूप से अनुकूल बनाना था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 2009 तक कुछ पर्यावरणीय नियमों का  90% तक अनुपालन नहीं हुआ। इसमें पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ईआईए) भी शामिल है।

सिर्फ गुजरात ही नहीं बल्कि पूरे देश में यही स्थिति है। साथ ही, सभी राजनैतिक दल इसमें बराबर के भागीदार हैं चाहे वो केंद्र की सरकार हो या राज्यों की। राष्ट्रीय स्तर के कई संशोधन ये दर्शाते हैं कि पर्यावरणीय नियमों के क्रियान्वयन के लिए बनी सरकारी संस्थानों ने बड़े पैमाने में औद्योगिक विकास के पक्ष में काम किया है । यह विशेष रूप से तब होता है जब पर्यावरण और सामाजिक प्रभाव से जुडी शर्तों के पालन न करने पर, व्यापक कार्रवाई नहीं होती। गुजरात में यह निराशाजनक रहा है क्योंकि वहां अनिवार्य अनुपालन और स्वैच्छिक  सीएसआर के बीच की रेखाएं धुंधली हो गयी हैं।

गुजरात के कुछ हिस्सों में स्वास्थ्य, शिक्षा, पेय जल, खाद्य से जुडी सेवाएं बड़े उद्योगों के पैसों से चल रही हैं। इनके लिए फंड कंपनियों के सीएसआर कार्यक्रम के माध्यम से आता है, और धीरे-धीरे सरकारी योजनाओ का स्थान ले लेता है। आज कुछ क्षेत्रों में इन सेवाओं का उद्योगों के धन के बिना चलना नामुमकिन हो गया हैं। जिन जगहों में सरकारी सेवाओं का प्रावधान अस्तित्व में नहीं है, वहां के प्रभावित समुदाय सीएसआर व्यवस्था पर ही निर्भर हैं। साथ ही साथ कई गैर-सरकारी संस्थाओं ने भी अपने काम को सीएसअर के मुताबिक ढाल लिया है। जिसकी वजह से कानूनी अनुपालन का सवाल बहुत काम लोग उठा रहे हैं।

हर औद्योगिक परियोजना से पहले पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ईआईए) जैसी प्रक्रिया पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं, ताकि स्थानीय आजीविकायें और समुदाय सुरक्षित रहें। लेकिन सीएसआर के सामने इन कानूनी आवश्यकताओं का कोई मोल ही नहीं रहा। गुजरात में कई ऐसे उदाहरण हैं जहां खेती की जमीन कानून के उल्लंघन की वजह से बर्बाद हुई है, और सीएसआर फंड्स से जुर्माना भर दिया गया है। एक परियोजना तो कोर्ट के इस आदेश पर बनी थी, कि भू-जल का कोई उपयोग नहीं होगा। साल भर में कंपनी ने पंचायत से भू-जल खरीदना शुरू कर दिया, जैसे कि पर्यावरणीय शर्तों की कोई मान्यता ही न हो।

सामान्य संसाधनों का निजीकरण

सितम्बर, 2017 में प्रधानमंत्री ने नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोवर बांध को देश को सौंपा और गुजरात के किया अपना वादा पूरा किया। पिछले कई वर्षों से जानकार लोगों ने नर्मदा कैनाल के दोहन की सच्चाई उजागर करने की कोशिश की है। जनवरी 2013 में, वरिष्ठ पत्रकार राजीव शाह ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा था कि धोलेरा विशेष निवेश क्षेत्र को लगभग 900 वर्ग किमी क्षेत्र के लिए नर्मदा के पानी आवश्यकता है। यह क्षेत्र प्रतिष्ठित दिल्ली-मुंबई औद्योगिक कॉरिडोर (डीएमआईसी) में गुजरात का प्रस्तावित वाटरफ्रंट शहर था।

गुजरात मॉडल को समझने का तीसरा पहलू है: सार्वजनिक संसाधनों का निजीकारण। इन  संसाधनों का संरक्षण लोगों के विश्वास पर टिका है, और सरकार इसे यूं ही इसे  निजी सम्पति नहीं बना सकती। पारम्परिक और सामुदायिक मैदान और जलाशयों पर बड़े पैमाने पर  औद्योगिक अतिक्रमण हो चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में ऐसे अतिक्रमणों को हटाने का आदेश दिया है, जिसका  क्रियान्वयन अभी बाकी है। जहां पंचायतों ने कानूनी कार्यवाही अपने हाथ में ली, वहां झूठे कोर्ट केस और पुलिस कम्प्लेंट्स रिकॉर्ड पर आ गए। ये स्थिति खासतौर पर चरागाह और तटीय इलाकों की पारम्परिक मछली उद्योग से जुडी भूमि की है। इनको बेकार जमीन करार देकर सस्ते दामों में कॉरपोरेट्स को सौंपा गया है।

एक ओर राजनैतिक प्रचार से हमें समझाया जा रहा है कि विकास जिंदा है। दूसरी तरफ गुजरात की दो बड़ी ताप विद्युत् परियोजनाएं एक रुपये पर बिकने को तैयार बैठी है ; किसानों की फसल पर्याप्त दामों के इंतजार में हैं, और धंधा काफी हद तक मंदा चल रहा है। ऐसे में क्या भरोसा दे पायेगा गुजरात का 'मॉडल'?

(कांची कोहली और मंजू मेनन सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च-नमाती एन्वायरमेंट जस्टिस प्रोग्राम से जुड़ी हैं)  

 

 

 

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