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मजदूर हकों की रक्षा करें

जब लॉकडाउन चरणबद्ध तरीके से खोलने पर विचार हो रहा है, तो सवाल उठता है कि कोविड-19 के बाद के दौर में...
मजदूर हकों की रक्षा करें

जब लॉकडाउन चरणबद्ध तरीके से खोलने पर विचार हो रहा है, तो सवाल उठता है कि कोविड-19 के बाद के दौर में कामगारों और मजदूरों का भविष्य क्या होगा। लॉकडाउन के चलते संगठित और असंगठित, दोनों क्षेत्रों के कामगार कई तरह के अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहे हैं। अक्सर जब जीडीपी नुकसान की चर्चा होती है तब बड़ी इंडस्ट्री की बात ही प्रधानता से होती है, उसमें शामिल मजदूरों के बारे में कोई जिक्र नहीं होता।

कुछ ऐसी अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टें आ रही हैं जिनमें भारत की स्थितियों का गलत आकलन है। इसका एक उदाहरण अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) की रिपोर्ट है। इसमें है कि कोरोनावायरस संकट के चलते अनौपचारिक क्षेत्र के करीब 40 करोड़ कामगार गरीबी में और गहरे धंस जाएंगे। यूरोपीय मानकों के हिसाब से भारत का आकलन करना गलत होगा। उन देशों का विशाल संगठित क्षेत्र मौजूदा संकट को नहीं झेल सकेगा, भले ही वे स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में काफी आगे हों। भारत में अगर हम पिछले संकटों का इतिहास देखें तो पाएंगे कि असंगठित क्षेत्र में झटके झेलने की अकूत क्षमता है जबकि संगठित क्षेत्र नाकाम साबित हो जाते हैं। दरअसल, असंगठित क्षेत्र के दिहाड़ी मजदूर और अपने काम-धंधे के जरिए रोज कमाने-खाने वाले लोग ही असली राष्ट्रनिर्माता हैं, न कि बड़े कारपोरेट या इंडस्ट्री वाले। सरकार के प्रयासों को लोगों ने जिस तरह तहेदिल और अनुशासित तरीके से समर्थन दिया है, उससे भारत दूसरे देशों की तुलना में कोविड-19 पर बेहतर नियंत्रण कर सकता है। चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों से निपटने की भारत की अंतर्निहित क्षमता का अध्ययन होना चाहिए। समाधान ढूंढ़ने की इसकी क्षमता 1998 के एशियाई आर्थिक संकट, 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट, नोटबंदी के समय और ऐसे दूसरे मौकों पर भी दिखी है। वैसे तो अनौपचारिक क्षेत्र की स्थिति खराब ही रहती है, लेकिन संकट के दिनों में उसका कलेवर बदल जाता है। दूसरे देशों से आ रही रिपोर्ट के अनुसार, अनेक देशों में प्रवासियों की स्थिति बेहद खराब है। भारतीय दूतावास भारतीय मूल के लोगों की मदद करने की भरसक कोशिश कर रहे हैं, जबकि दूसरे देशों के दूतावासों के लिए अपने प्रभावित लोगों की मदद करना मुश्किल हो रहा है।

भारत में कोविड-19 संकट और लॉकडाउन से कई समस्याएं सामने आई हैं। इनमें वेतन न मिलना, देर से मिलना या वेतन में कटौती शामिल है। अनेक लोगों की नौकरियां चली गई हैं। नियोक्ताओं ने अपने कर्मचारियों को सवैतनिक अवकाश देने से मना कर दिया और कई कंपनियों ने कर्मचारियों की संख्या घटा दी। ठेकेदारों ने मजदूरों को बेसहारा छोड़ दिया है और वे राहत शिविरों के भीड़-भाड़ में रहने को मजबूर हैं। इसलिए हमें भारत की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर समाधान तलाशने की जरूरत है। आर्थिक गतिविधियों को सामान्य बनाने और कामगारों की आजीविका की रक्षा करने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। भारतीय मजदूर संघ ने 27 और 29 मार्च को जारी केंद्र सरकार के उस सर्कुलर का स्वागत किया है जिसमें नियोक्ताओं को कर्मचारियों का पूरा वेतन देने, किरायदारों से किराया न लेने और औद्योगिक इकाइयों से कर्मचारियों की छंटनी न करने को कहा गया है, खासकर ठेका मजदूरों की। लेकिन दुर्भाग्यवश कुछ नियोक्ता इसके खिलाफ कोर्ट चले गए। नियोक्ता संगठनों को सरकार के इस फैसले के खिलाफ कोर्ट जाने के बजाय इसे सामाजिक दायित्व के रूप में लेना चाहिए था।

भारतीय उद्योगों को घरेलू श्रम कानूनों और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मानकों को सम्मान देने की संस्कृति अपनानी चाहिए। श्रमिकों से जुड़े मुद्दों पर कारगर त्रिपक्षीय बातचीत पर कोई समझौता नहीं किया जाना चाहिए। हमारे कामगारों को अच्छी नौकरी, पर्याप्त और सस्ती सामाजिक सुरक्षा, चिकित्सा सहायता और बीमा की गारंटी मिलनी चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बहुत से छोटे और मझोले उद्यम इन दिनों काफी मुश्किल में हैं। लॉकडाउन के चलते वे अपने कर्मचारियों को वेतन नहीं दे पा रहे हैं। नियोक्ता अपने कर्मचारियों को वेतन देकर केंद्र सरकार की तरफ से वेतन सब्सिडी के रूप में मिलने वाले राहत पैकेज से इसे वापस ले सकते हैं। इससे नियोक्ता और कर्मचारियों के बीच संबंध भी बेहतर होंगे। दिहाड़ी मजदूरों, ठेका मजदूरों, कम आमदनी वाले काम-धंधे में लगे लोगों को डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) के जरिए रकम दी जा सकती है। सीधे वेतन बिल से जोड़े बिना इंडस्ट्री को रकम देना ठीक नहीं। अच्छी बात है कि उद्योग संगठनों ने वेतन में मदद के रूप में डीबीटी और बैंक कर्ज का समर्थन किया है और छंटनी का विरोध। सरकार द्वारा घोषित लॉकडाउन की अवधि को सवैतनिक अवकाश के रूप में देखा जाना चाहिए, छंटनी के अवसर के रूप में नहीं।

इन दिनों प्रवासी मजदूरों से जुड़ी अभूतपूर्व समस्याएं देखने को मिल रही हैं। वे अपने घर वापस जा रहे हैं। इसका ठोस हल पेश किया जाना चाहिए। श्रमिकों की कमी दूर करने और उन्हें उनके कार्य स्थलों पर वापस लाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक पास, मुफ्त ट्रेन टिकट, नकद इन्सेंटिव जैसे कदम उठाए जा सकते हैं। आधार और जनधन डीबीटी खातों के जरिए राष्ट्रीय कृषि श्रमिक रजिस्टर भी तैयार किया जा सकता है। कैंपों में रहने वाले प्रवासी मजदूरों को राशन, रहने का ठिकाना, स्वास्थ सुविधा, कमाई में मदद और परिवार के साथ संपर्क बनाने के लिए मुफ्त इंटरनेट की जरूरत है। श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने प्रवासी मजदूरों की पहचान करने और उनका डाटाबेस तैयार करने का काम शुरू किया है। हमें तत्काल प्रवासी मजदूरों के लिए राष्ट्रीय नीति बनाने की जरूरत है। हमें उन लोगों को श्रद्धांजलि भी देनी चाहिए जिन्होंने इस जानलेवा वायरस से लड़ने में जान गंवा दी। भारतीय मजूदर संघ (बीएमएस) स्वास्थ्य एवं अस्पतालकर्मियों, पुलिसकर्मियों और प्रशासन से जुड़े कोरोना योद्धाओं के साथ खड़ा है। कुछ राज्य सरकारों ने ऐसे अस्पतालकर्मियों के लिए उनको दोगुना वेतन देने की घोषणा की है।

संकट के दिनों में अनेक नियोक्ता श्रम कानूनों की अनदेखी करते हैं और श्रमिक विरोधी कदम उठाते हैं। वे चाहते हैं कि पहले से परेशान कर्मचारियों को कम वेतन दें, कर्मचारियों की संख्या घटाएं, श्रम कानूनों पर अमल टालें, काम नहीं तो वेतन नहीं का सिद्धांत लागू करें, काम के घंटे बढ़ाएं, उम्रदराज लोगों को छोड़कर युवाओं को काम पर रखें, ईएसआइ फंड से वेतन दिया जाए, ईपीएफ से लोन दिया जाए। एक राज्य में तो नियोक्ता संगठन ने कर्मचारी संगठनों पर अंकुश लगाने की मांग तक कर डाली। उद्योगों को ऐसे प्रस्ताव रखने से बचना चाहिए। यह उद्योग जगत के लिए मानवीय चेहरा दिखाने का समय है। हमेशा की तरह उद्योग जगत ने तत्काल नौ से 11 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की मांग की है। सरकार उद्योग से संबंधित मुद्दों के जल्दी समाधान की कोशिश भी कर रही है, लेकिन यहां हमें अलग तरह से सोचने की जरूरत है। कंपनियों को स्टिमुलस और बेलआउट पैकेज देकर सप्लाई बढ़ाने के बजाय हमें मांग बढ़ाने के कदम उठाने चाहिए। मैन्युफैक्चरिंग, खासकर ऑटोमोबाइल और गारमेंट जैसे सेक्टर में मांग गिरने की वजह से समस्या आई। इसलिए सरकार का प्रयास क्रय-क्षमता बढ़ाने और बाजार का सेंटीमेंट सुधारने पर होना चाहिए। डीबीटी, मनरेगा, वेतन सब्सिडी, कमाई में मदद, समाज कल्याण के उपाय, इन्फ्रास्ट्रक्चर और विकास की अन्य गतिविधियों से श्रमिकों की क्रय-क्षमता बढ़ाई जा सकती है। इन कदमों से श्रमिकों, आम लोगों और समाज के संकटग्रस्त वर्ग के हाथ में नकदी मिलेगी, जिससे वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढ़ाने में मदद मिलेगी। सरकार ने ग्रामीण भारत को फोकस करते हुए 1.7 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की जो घोषणा की है यह सही कदम है। सरकार की तरफ से उन्हीं उद्योगों को मदद दी जानी चाहिए, जो गंभीर वित्तीय संकट में हों।

मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर प्रतिस्पर्धा की क्षमता की कमी के साथ सुस्ती का सामना कर रहा है। इसलिए ऑनलाइन स्किल ट्रेनिंग देने, आंत्रप्रेन्योरशिप कोर्स शुरू करने, मदद पहुंचाने वाले केंद्र खोलने, शिक्षित युवाओं को कम खर्च में कारोबारी सलाह देने, रिसर्च एवं डेवलपमेंट में निवेश पर इन्सेंटिव देने, उद्योग और शिक्षा जगत के बीच समन्वय बनाने जैसे कदम उठाने की जरूरत है। मानव संसाधन, खासकर शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा और समाज कल्याण में तत्काल बड़े पैमाने पर निवेश किया जाना चाहिए। एमएसएमई के लिए भी काउंसलिंग सेंटर या हेल्पलाइन शुरू की जानी चाहिए। एमएसएमई भारतीय उद्योग की रीढ़ है। इनमें भी छोटे और मझोले उद्यम सबसे ज्यादा रोजगार देते हैं। अगर राहत पैकेज दिया जाता है तो इसे उद्योग में रोजगार की संख्या को ध्यान में रख कर दिया जाना चाहिए। कोविड संकट से एमएसएमई, रिटेलर, कम आमदनी वाले स्वरोजगार कर्मी और सप्लाई चेन बुरी तरह प्रभावित हुई है। असली मैन्युफैक्चरर सप्लाई चेन वाले वे उद्यमी हैं जो बड़ी कंपनियों के लिए काम करते हैं। सरकार ने ई-कॉमर्स पर अंकुश लगाने का साहसिक कदम उठाया है, जिससे रिटेलर को बल मिलेगा और करोड़ों रोजगार की रक्षा होगी। एक राष्ट्रीय ई-कॉमर्स नीति लाने की जरूरत है। चाइनीज कंपनियों द्वारा संकटग्रस्त भारतीय कंपनियों का अधिग्रहण रोकने के लिए एफडीआइ नीति में बदलाव सही दिशा में उठाया गया कदम है।

समाधान के तौर पर हमारे कुछ सुझाव हैं- चीन से आयात पर निर्भरता कम करना, जीएसटी और आयकर में राहत देना, कारोबार दोबारा शुरू करने के लिए बैंकों और वित्तीय संस्थाओं की तरफ से वर्किंग कैपिटल मुहैया कराना, कर्ज पर ब्याज में राहत देना, किसी कर्ज को एनपीए घोषित करने की समय सीमा बढ़ाना, प्राथमिकता वाले क्षेत्र को ज्यादा कर्ज देना, एकल खिड़की क्लियरेंस और जल्दी मंजूरी की व्यवस्था करना, सरकार द्वारा सिर्फ एमएसएमई से खरीद करना, बिजली पर सब्सिडी, गांव में इंटरनेट कनेक्टिविटी और डिजिटाइजेशन करना। भारत में 85 फीसदी औद्योगिक गतिविधियां एमएसएमई करती हैं। इसके बावजूद उद्योग से जुड़ी सभी चर्चाएं बड़ी इंडस्ट्री के इर्द-गिर्द होती हैं। सरकार के रेवेन्यू पर छोटे और मझोले उद्योगों का वाजिब हक है, इसे बड़े उद्योगों को नहीं दिया जाना चाहिए।

(लेखक भारतीय मजदूर संघ के अध्यक्ष हैं)

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