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स्वतंत्रता और भारतीय लोकतंत्र का आज

“स्वतंत्रताओं का विस्तार ही लोकतंत्र है, पर आजादी के सिमटने से कई सवाल सामने” समकालीन भारत में अगर...
स्वतंत्रता और भारतीय लोकतंत्र का आज

“स्वतंत्रताओं का विस्तार ही लोकतंत्र है, पर आजादी के सिमटने से कई सवाल सामने”

समकालीन भारत में अगर आज कोई एक विषय सबसे अधिक प्रासंगिक है, तो वह है लिबर्टी यानी स्वतंत्रता। राज्य और शासन की आधुनिक अवधारणा अपने पूर्ण प्रस्फुटित रूप में 1789 में फ्रांस की राज्यक्रांति के समय सामने आई थी, क्योंकि क्रांतिकारियों के हाथों में 'लिबर्टी-इक्वालिटी-फ्रैटरनिटी' (स्वतंत्रता-समानता-बंधुत्व) का झंडा था। यह आधुनिक समाज में रहने वाले नागरिक और उसके सामाजिक-राजनीतिक पर्यावरण की संपूर्ण अवधारणा थी। राजनीतिक क्षेत्र में स्वतंत्रता का प्रथम दस्तावेजी प्रयास 1215 में इंग्लैंड के शासक जॉन (1166-1216) के समय किया गया था, जब 1214 में उत्तरी फ्रांस में हुए युद्ध में पराजित होने के बाद उन्हें अपने विद्रोही सामंतों के दबाव के सामने झुकना पड़ा था और मैग्ना कार्टा यानी स्वतंत्रताओं के महान घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर करने पड़े थे। इस घोषणा-पत्र में पहली बार राजा के अधिकारों पर औपचारिक और कानूनी ढंग से अंकुश लगाया गया था। यह महान घोषणा-पत्र अगली सदियों में राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन के लिए सक्रिय होने वाले सुधारकों, चिंतकों और क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणास्रोत बना रहा।

फ्रांस की राज्यक्रांति के पीछे यूरोप के एज ऑफ एनलाइटेनमेंट यानी ज्ञानोदय काल में उभरे स्वतंत्रताकामी विचारों की बहुत बड़ी भूमिका थी। राज्यक्रांति से ठीक एक वर्ष पहले उस समय के फ्रांस के शीर्षस्थ लेखक और विचारक वोल्तेयर का निधन हुआ था। इस पर विवाद है कि यह उद्धरण उनका है या नहीं लेकिन इस पर कोई विवाद नहीं है कि यह वोल्तेयर के विचारों को प्रामाणिक रूप से व्यक्त करता है। वोल्तेयर के नाम के साथ जुड़े इस उद्धरण में कहा गया है कि ‘हालांकि मैं आपके विचारों से पूरी तरह असहमत हूं, लेकिन मैं अपनी जान की कीमत पर भी उन्हें व्यक्त करने के आपके अधिकार की रक्षा करूंगा।’

स्वतंत्रता की अवधारणा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति की स्वतंत्रता निहित है। लोकतंत्र की नींव भी स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्यों पर ही रखी गई है। इन मूल्यों के बिना लोकतंत्र शासन-व्यवस्था का ऊपरी खोल भर बनकर रह जाता है। वह स्वतंत्र नागरिक और राज्यसत्ता या शासन-तंत्र के बीच का स्वस्थ संबंध नहीं बन पाता। ऐसी स्थिति में नागरिक स्वतंत्रताओं और अधिकारों की हिफाजत करने के लिए आंदोलनों और संघर्षों की जरूरत पड़ती है। उल्लेखनीय है कि 1958 में स्वीकृत फ्रांस के संविधान में राज्यक्रांति के स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्शों को औपचारिक रूप से शामिल किया गया और अब वहां के संविधान के अनुसार शासन इन मूल्यों के आधार पर ही किया जाना चाहिए।

उन्नीसवीं सदी में भारत के विभिन्न हिस्सों में यूरोप के ज्ञानोदय जैसा रुझान देखा गया, जिसे आम तौर पर नवजागरण या पुनर्जागरण कहा जाता है। राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन, देवेंद्रनाथ टैगोर, स्वामी दयानंद, ज्योतिबा फुले जैसे अनेक विचारकों एवं समाज सुधारकों ने अपने लेखन और सक्रिय कर्म से राजनीतिक और सामाजिक बेड़ियों को काटने की चेतना पैदा की। इसी का एक प्रतिफलन 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के रूप में सामने आया। नागरिक अधिकारों की चेतना और उन्हें प्राप्त करने के लिए संघर्ष करने की इच्छा इसी काल में पनपी। कांग्रेस की स्थापना के पीछे यह भी एक महत्वपूर्ण कारण था, क्योंकि भारतीय अपने लिए वही अधिकार और सुविधाएं चाहते थे जो उनके अंग्रेज शासकों को भारत में मिली हुई थीं या फिर अंग्रेज नागरिकों को ब्रिटेन में प्राप्त थीं।

संभवतः इसकी पहली स्पष्ट उपस्थिति 1895 में प्रस्तुत किए गए भारतीय संविधान विधेयक में देखने को मिली, जिसकी धारा 16 में स्वतंत्र अभिव्यक्ति, केवल सक्षम अधिकारी द्वारा ही गिरफ्तारी और मुफ्त सरकारी शिक्षा जैसी बातें शामिल की गई थीं। 1917 और 1919 के बीच कांग्रेस के अधिवेशनों में अनेक ऐसे प्रस्ताव पारित किए गए, जिनमें नागरिक अधिकारों और अंग्रेजों के समान दर्जा दिए जाने की मांग की गई थी। एक प्रस्ताव में तो यह भी कहा गया था कि ब्रिटिश संसद भारतीय प्रजाजनों के लिए स्वतंत्र प्रेस, स्वतंत्र अभिव्यक्ति और कानून के सामने समानता के अधिकार देने वाला विधेयक पारित करे। अंग्रेज होते हुए भी एनी बेसेंट ने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय पहल की और विधेयकों के मसौदे प्रस्तुत करके ब्रिटिश सरकार से भारतीयों के लिए विभिन्न नागरिक स्वतंत्रताओं की मांग को उठाया। यानी नागरिक स्वतंत्रताओं और अधिकारों के लिए संघर्ष भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए चलने वाले आंदोलन का अभिन्न अंग था।

इसलिए स्वाधीन भारत के संविधान में बुनियादी अधिकारों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है और कहा गया है कि राज्य इनका उल्लंघन नहीं कर सकता। सात भागों में विभक्त ये अधिकार हैं-आजादी का अधिकार, समानता का अधिकार, शोषण के खिलाफ अधिकार, धर्म की आजादी का अधिकार, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक अधिकार, संपत्ति का अधिकार और संवैधानिक उपचार का अधिकार। सभी नागरिकों को अपने-अपने धर्म का पालन और प्रचार-प्रसार करने, इकट्ठा होने और आने-जाने का अधिकार है। स्थितियों के अनुसार इन अधिकारों पर विवेकसम्मत बंदिशें लगाई जा सकती हैं, लेकिन निरंकुश ढंग से उनमें कटौती नहीं की जा सकती।

लेकिन आज क्या स्थिति है? झारखंड के एक मंत्री टीवी कैमरों के सामने एक मुस्लिम विधायक से जबरदस्ती “जय श्रीराम” बुलवाने की कोशिश कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में बाराबंकी के एक विधायक कह रहे हैं कि गाय हिंदू है और सभी मुसलमानों को हिंदू धर्म स्वीकार कर लेना चाहिए। “जय श्रीराम” का नारा लगाने के लिए जगह-जगह गैर-हिंदुओं को मजबूर किया जा रहा है। कई जगह उन्मादी भीड़ ने यह नारा लगाने से मना करने वालों की सरेआम हत्या भी की है। राज्यसत्ता और प्रशासन ऐसे सभी प्रकरणों में अक्सर मूक दर्शक बना रहता है। लेकिन वही राज्यसत्ता और प्रशासन कांवड़ियों पर अधिकारियों द्वारा हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा करवाता है। यानी धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के संविधान के प्रति निष्ठा रखने और उसी के अनुसार आचरण करने की शपथ लेने वाले अधिकारी और मंत्री खुल्लम-खुल्ला उसकी धज्जियां उड़ा रहे हैं। यहां यह स्पष्ट कर दें कि धर्मनिरपेक्ष होने का अर्थ है सरकार सभी धार्मिक समुदायों को एक आंख से देखेगी और किसी धर्म विशेष के प्रति विशेष अनुराग या द्वेष प्रकट नहीं करेगी।

इन दिनों मुगल शासकों की आए दिन आलोचना होती रहती है। लेकिन उनकी अधीनता में काम कर रहे हिंदू सामंतों की नहीं। मुगल बादशाह अकबर और राजपूत वीर राणा प्रताप के बीच संघर्ष को हिंदू-मुस्लिम संघर्ष का रूप दिया जाता है, बिना इस बात का उल्लेख किए कि उनके बीच होने वाले युद्ध में अकबर के सेनापति राजा मानसिंह थे और राणा प्रताप के सेनापति हकीम खां सूर। लेकिन इस समय राष्ट्रवाद का ऐसा संस्करण प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है, जिसमें अकबर से घृणा और मानसिंह से प्रेम है तो राणा प्रताप से प्रेम और हकीम खां सूर से घृणा है।

लेकिन फ्रांस की राज्यक्रांति से भी लगभग सौ साल पहले मुगल बादशाह अकबर धर्म के क्षेत्र में स्वतंत्रता का अधिकार दे रहे थे। उनके दरबार में 1580 से 1582 तक दो वर्ष गुजारने वाले पुर्तगाली जेसुइट पादरी फादर अंटोनियो मोंसारेट ने उनके बारे में शिकायती स्वर में लिखा कि वह सभी को अपने-अपने धर्म का पालन करने की छूट देकर एक तरह से सभी धर्मों का उल्लंघन कर रहे थे। फादर मोंसारेट का यह कथन उनके इस विश्वास पर आधारित था कि ईसाई धर्म सर्वश्रेष्ठ धर्म है और इस्लाम को मानने वाले भी अपने धर्म को ही सर्वश्रेष्ठ समझते हैं। इसलिए अन्य धर्मावलंबियों को धार्मिक छूट देना अनुचित है। लेकिन अकबर इस संकुचित सोच के नहीं थे। पढ़ना-लिखना न जानते हुए भी उन्होंने अनेक धर्मों के ग्रंथों को पढ़वाकर सुना था और वह अक्सर विभिन्न धर्मों के प्रतिनिधियों को बुलाकर उनके बीच दार्शनिक संवाद और शास्‍त्रार्थ कराते थे और गहरी रुचि के साथ सुनते थे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनके उत्तराधिकारी धीरे-धीरे इस नीति पर चलना कम करते गए। लेकिन यह भी सच है कि परवर्ती काल में मुगल दरबार में संस्कृत विद्वानों को भी प्रश्रय मिलता रहा और संस्कृत ग्रंथों के फारसी में अनुवाद का क्रम भी जारी रहा।

अकबर आस्था की जगह अक्ल यानी विवेक को तरजीह देने के पक्ष में थे। उन्होंने हिंदुओं के अवतारवाद और यहूदियों, ईसाइयों एवं मुसलमानों के पैगंबरवाद के बारे में खुलकर अपना संदेह व्यक्त किया था। अकबर ने हिंदुओं में प्रचलित सती प्रथा और बेटियों को पुश्तैनी विरासत में बेटों की तुलना में कम हिस्सा देने के इस्लामी कानून की आलोचना भी की थी।

यहां इन सबका उल्लेख करने का आशय सिर्फ यह है कि जिस भी शासक की नीति प्रजा को एक करके शासन करने की रही, उसने मौर्य सम्राट अशोक और मुगल बादशाह अकबर की तरह धार्मिक सहिष्णुता का मार्ग अपनाया। जरा सोचिए, यदि अकबर के उत्तराधिकारी जहांगीर के आदेश पर पांचवें सिख गुरु अर्जनदेव को यातनाएं न दी गई होतीं और उनकी शहादत न हुई होती, तो उत्तर भारत का इतिहास कैसा होता? यदि शासक धर्म इस्लाम को एक संत महापुरुष पर जबरदस्ती थोपने की कोशिश न की गई होती तो बाद में हुए संघर्ष, युद्ध और उनके कारण हुई तबाही भी टल गई होती। जिस देश में अनेक धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों वाले लोग रहते हों और जहां सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय की संख्या लगभग 20 करोड़ हो, वहां किसी एक धर्म या समुदाय का वर्चस्व दूसरों पर जबरदस्ती थोपने का कैसा भयानक परिणाम निकल सकता है? लेकिन आज हमारे राजनीतिक वर्ग को इसकी चिंता सताती नहीं लगती।

स्वतंत्रता के लिए समानता और बंधुत्व अनिवार्य हैं। किसी एक के बिना दूसरे के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए ये तीनों ही एक साथ जरूरी हैं। बांग्लाभाषी पूर्वी पाकिस्तान पर उर्दू को जबरदस्ती लादा गया और वहां के रहने वालों से अपनी भाषा में काम करने की स्वतंत्रता छीन ली गई। इसका नतीजा 1971 में पाकिस्तान के टूटने के रूप में सामने आया। हमारे देश में भी समय-समय पर अहिंदी-भाषी लोगों पर हिंदी थोपने के प्रयास होते रहे हैं और पिछले कुछ वर्षों के दौरान इनमें काफी तेजी भी आती दिखी है। ऐसा छद्म-राष्ट्रवाद सबसे अधिक नुकसान राष्ट्र को ही पहुंचाता है, क्योंकि यह राष्ट्रीय एकता को तोड़ने की स्थितियों का निर्माण करता है।

संविधान ने धर्म के साथ-साथ संस्कृति के पालन की भी स्वतंत्रता दी है यानी हरेक को अधिकार है कि वह अपनी मर्जी के मुताबिक खाए और पहने। लेकिन पिछले दशकों के दौरान खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने पर भी बंदिशें लगाने की कोशिशें की जाती रही हैं। इसमें राज्यसत्ता की भागीदारी भी देखी गई है। उत्तर प्रदेश में नोएडा से सटे दादरी में कुछ वर्ष पहले वहां के एक निवासी अखलाक के फ्रिज में गोमांस का संदेह होने पर भीड़ ने उसकी हत्या कर दी। ऐसी ही कई हत्याएं देश के अन्य हिस्सों में भी होती रही हैं। संविधान में राज्य का एक उत्तरदायित्व वैज्ञानिक चेतना का निर्माण और उसे प्रोत्साहन देना भी है। लेकिन इस मामले में पिछले कुछ वर्षों से नितांत विज्ञान-विरोधी विचारों का खुल कर प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। यदि यह काम निजी संस्थाएं या संगठन कर रहे होते, तो वह इतना आपात्तिजनक नहीं होता जितना यह कि इस काम में मंत्री, सांसद और विधायक भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिना किसी भी तरह की स्वतंत्रता की कल्पना नहीं की जा सकती। इस समय स्थिति यह है कि यदि किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर आमंत्रित होने के बाद कोई पत्रकार भारत में भीड़ द्वारा गाय या श्रीराम के नारे के बहाने किसी निरीह व्यक्ति को घेरकर मार देने की घटनाओं का जिक्र करता है, तो प्रसार भारती के अध्यक्ष उसे आमंत्रित करने के औचित्य पर ही प्रश्नचिह्न लगा देते हैं। विदेश मंत्री भी अध्यक्ष के पक्ष में बयान जारी करते हैं और दोनों का आशय यह है कि इस तरह की घटनाओं से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता किसी तरह के दबाव में है, और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इनका उल्लेख करने का मतलब देश की छवि बिगाड़ना है। ये बयान स्वयं इस बात के प्रमाण हैं कि सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए बेताब है।

जातियों में बंटे हुए समाज में- जहां झूठे जाति-दंभ के कारण ऊंची जाति के लोग निचली मानी जाने वाली जाति के दूल्हे का घोड़ी पर सवार होना तक बर्दाश्त नहीं कर सकते- सामाजिक समानता स्थापित करना एक लंबी प्रक्रिया है जिसके लिए सतत प्रयास और संघर्ष की आवश्यकता है। हजारों साल के दौरान बनी मानसिकता और जातिप्रथा के साथ जुड़ी आर्थिक प्रणाली को एक झटके में नहीं बदला जा सकता। इसीलिए उसे समाप्त करने के लिए लगातार संघर्ष करना अनिवार्य है। सरकारी नौकरियों में और शिक्षा संस्थानों में आरक्षण होने के बावजूद उसे किस हद तक लागू किया जा सका है, यह सबके सामने है। अक्सर आरक्षित पद खाली पड़े रहने के बाद सामान्य पदों के साथ मिला दिए जाते हैं।

स्वतंत्रता पर होने वाले आघातों के विरुद्ध अहिंसक प्रतिरोध करना हर भारतीय नागरिक का कर्तव्य है और यह कर्तव्य उसके लिए संविधान ने तय किया है। स्वतंत्रताओं का विस्तार ही लोकतंत्र का लक्ष्य होना चाहिए। किसी भी लोकतंत्र की परिपक्वता और प्रौढ़ता का सूचक उसके नागरिकों को उपलब्ध स्वतंत्रताएं हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, टिप्पणीकार हैं)

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