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कैद और बंदी की सियासत

पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती को छह महीने तक बिना किसी आरोप के नजरबंद रखने के बाद...
कैद और बंदी की सियासत

पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती को छह महीने तक बिना किसी आरोप के नजरबंद रखने के बाद मोदी सरकार ने अब उन पर जम्मू-कश्मीर के सार्वजनिक सुरक्षा कानून (पीएसए) चस्पा करके उनकी गिरफ्तारी अनिश्चितकाल तक बढ़ा दिया है। इन नेताओं पर पीएसए चस्पां करने की जो वजहें बताई गई हैं, वे नितांत बेतुकी हैं। उमर पर आरोप है कि वे इतने लोकप्रिय हैं कि आतंकवाद के भारी असर के दौर में भी लोगों को वोट देने की कामयाब अपील कर चुके हैं। तो, अब लोगों को वोट देने के लिए प्रेरित करना भी अपराध हो गया है? महबूबा मुफ्ती पर ‘डैडीज गर्ल’ (अब्बा की लाडली) होने का आरोप है (सच्चाई तो यह है कि उनका असर अब्‍बा पर ही ज्यादा था)।

इन बेहूदे आरोपों को देखकर कोई भी इस नतीजे पर पहुंच सकता है कि अनुच्छेद 370 को बेमानी बनाने और राज्य को बांटकर उसका दर्जा घटाने के विरोध में उठने वाले स्वरों को रोकने के लिए यह सरकार किसी भी हद तक जा सकती है, चाहे वह कितना ही अलोकतांत्रिक क्यों न हो।

उमर और महबूबा की आवाज बंद करना तो मोदी सरकार का महज एक मकसद है। दरअसल, भाजपा जबसे जम्मू-कश्मीर में पीडीपी गठबंधन सरकार से हटी है, वह ऐसी वफादार राजनैतिक पार्टी तलाशने की कोशिश करती रही है, जिसे वह सत्ता में ला सके। पहले उसने सज्जाद लोन को संभावित मुख्यमंत्री बनाने का दांव खेला लेकिन लोन ने अनुच्छेद 35ए के साथ छेड़छाड़ के खिलाफ चेताया, तो उसे वह विचार छोड़ना पड़ा। इस अनुच्छेद के तहत राज्य सरकार को प्रदेश के निवासियों को विशेष अधिकार देने की अनुमति है। फिर, जब लोन ने अनुच्छेद 370 को बेमानी करने का विरोध किया तो उन्हें जेल में डाल दिया गया। राज्यपाल और राष्ट्रपति शासन के 18 महीने के दौर में भाजपा ने बाकी पार्टियों के असंतुष्ट विधायकों को एकजुट करने का प्रयास किया, ताकि वे घाटी में सत्ता की दावेदारी कर सकें। लेकिन भाजपा की यह कोशिश भी नाकाम रही। इसके बाद सरकार ने लगभग सभी विधायकों को जेल में डाला और उन्हीं विधायकों को रिहा किया, जिन्होंने सरकार के फैसलों के खिलाफ कुछ न बोलने का वादा किया। इससे भी सरकार विधायकों का अलग समूह बनाने में विफल रही। विधानसभा चुनाव लगातार स्थगित हैं, केंद्रशासित प्रदेश बनाए जाने के बाद भी चुनाव नहीं कराए गए, क्योंकि भाजपा अभी भी ऐसी पार्टी बनाने में सक्षम नहीं है जिसे वह घाटी में समर्थन दे सके। भाजपा खुद तो चुनाव जीतने की स्थिति में नहीं ही है। यह अच्छी खबर है कि पीएसए को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा रही है। हालांकि शीर्ष अदालत ने जम्मू-कश्मीर से संबंधित अन्य याचिकाओं पर बेहद थोड़ी रुचि दिखाई है। छह महीने से राज्य में इमरजेंसी जैसे हालात हैं, संचार के सभी माध्यमों पर प्रतिबंध है, सैकड़ों लोग जेलों में बंद हैं, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद इंटरनेट पूरी तरह नहीं खुला है। यह बेहद दुखद है कि विद्वान जजों ने उमर अब्दुल्ला की नजरबंदी के खिलाफ याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा कि सरकार को जवाब के लिए दो सप्ताह का वक्त दिया जाना चाहिए। जजों का कहना था कि जब अब्दुल्ला लंबे समय से नजरबंद हैं, तो दो सप्ताह और में क्या समस्या है। क्या हम किसी की पीड़ा के प्रति इतने संवेदनहीन हो चुके हैं कि उसे और लंबा खींचना चाहते हैं, भले ही केस सरकार के निराधार आरोपों वाले पीएसए के डोजियर से संबंधित हो।

पीएसए जम्मू-कश्मीर और अन्य 'अशांत इलाकों' के लिए रहा है, जो लंबे समय से निष्क्रिय है लेकिन अब इस कानून का इस्तेमाल पूरे देश में होने लगा है। दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने अपना इरादा साफ कर दिया है कि वह कोई विरोध सहन नहीं करेगी, भले ही उसे पुलिस और कानून का दुरुपयोग करना पड़े। उत्तर प्रदेश और दिल्ली में पुलिस नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) का विरोध कर रहे छात्रों को पीटने के लिए विश्वविद्यालयों के परिसरों में घुस गई, जबकि वह उस समय मूकदर्शक बनी रही जब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) और संघ परिवार के स्वयंभू बंदूकधारियों ने छात्रों पर हमला किया। इसके खिलाफ मामूली-सी कार्रवाई पुलिसिया पूर्वाग्रह ही दिखाती है। मसलन, दिल्ली चुनाव में भाजपाई मंत्रियों और सांसदों के हिंसा भड़काऊ बयानों पर शायद ही कुछ हुआ। आदित्यनाथ (वह योगी भला कैसे!) जैसे मुख्यमंत्री ने 'बदले' को सामान्य प्रशासनिक कार्रवाई बना दिया है।

हमारे लोकतंत्र को पंगु बनाने की कार्यपालिका की कोशिशों से बचाने के लिए ज्यादातर अंकुश और संतुलन के उपायों को बेमानी बना दिया गया है। संसद में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक जैसे बेहद महत्वपूर्ण विषय पर बहस ही नहीं हुई, अदालतें बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका और इंटरनेट के अधिकार पर भी ढीला रवैया अपना रही हैं। राष्ट्रपति कार्यालय रबर स्टांप बनकर रह गया है, जो महात्मा गांधी के गलत उद्घरण की भी अनुमति दे देता है, जबकि सीएए पर सहमति देने के बजाय वे इसके खिलाफ अनशन पर बैठ जाते, जैसा कि उनके लेखों में जाहिर है। और तो और सेना का भी राजनीतिकरण किया जा रहा है। यह अनुच्छेद 370 पर सेना के पूर्व और वर्तमान प्रमुख के बयानों में दिखाई देता है। विपक्षी पार्टियां इतनी कमजोर और बिखरी हुई हैं कि वे सरकार के विरोध के दमन पर भी दबाव नहीं बना पाईं। प्रशासन और पुलिस सेवाओं की स्वायत्तता बहाल करने का अगर कोई सही समय है, तो यही है।

एकमात्र उम्मीद है कि भाजपा को राज्य चुनावों में पराजय मिल रही है। कम से कम राज्यसभा को लोकसभा पर अंकुश लगाने की कुछ ताकत दोबारा िमल जाएगी। इस बदलाव से अन्य संस्थाओं में सुधार के लिए कदम उठाए जा सकते हैं, जिन्हें कार्यपालिका पर लगाम लगानी होती है। लेकिन यह बेहद क्षीण उम्मीद हो सकती है, सिर्फ इतनी ही कि मोदी सरकार दमन करने के बजाय विरोध को सुनेगी।

(लेखिका राजनैतिक टिप्पणीकार हैं। उनकी नई पुस्तक पैराडाइज एट वारः ए पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ कश्मीर है)

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