Advertisement

प्रथम दृष्टि: व्यक्तित्व या विचारधारा

नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के चार वर्ष पूरे हो गए हैं। अगले आम चुनाव के लिए घड़ी की टिक-टिक...
प्रथम दृष्टि: व्यक्तित्व या विचारधारा

नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के चार वर्ष पूरे हो गए हैं। अगले आम चुनाव के लिए घड़ी की टिक-टिक शुरू हो चुकी है। अगर सब कुछ नियत समय पर होता है तो अगले वर्ष इस महीने तक केंद्र में नई सरकार का गठन हो चुका होगा। क्या वह फिर से मोदी के नेतृत्व में बनने वाली भाजपा की हुकूमत होगी या सत्ता की चाबी किसी और दल या गठबंधन के हाथ होगी, यह पता चल चुका होगा। मोदी पिछले नौ साल से प्रधानमंत्री के पद पर हैं। अगर वे भाजपा को अपनी अगुआई में 2024 के लोकसभा चुनावों में जीत आश्वस्त करते हैं तो वह उनकी हैट्रिक जीत होगी। ऐसा रिकॉर्ड जवाहरलाल नेहरू के अलावा किसी अन्य प्रधानमंत्री के खाते में नहीं है। जाहिर है, मोदी के नेतृत्व में भाजपा इस जीत के लिए पूरा दमखम लगा देगी।

 

किसी भी सरकार के कार्यकाल का अंतिम वर्ष लोकलुभावन घोषणाओं का होता है। जब तक चुनावों की तिथियों का ऐलान और आदर्श चुनाव संहिता लागू नहीं होती है, सत्ता में रहने वाले दल और उनकी सरकार घोषणाओं का पिटारा खोलते रहते हैं। क्या मोदी सरकार भी वही करेगी? वैसे देखा जाये तो सरकार ने दो हजार रुपये को बंद करने की एक बड़ी घोषणा कर दी है, लेकिन क्या यह लोकलुभावन निर्णय है? 2016 में नोटबंदी के निर्णय पर कई अर्थशास्त्रियों ने यह कहकर प्रधानमंत्री की आलोचना की थी कि उससे काले धन पर कोई नियंत्रण नहीं हो सका। इस बार भी उनके निर्णय पर सवाल उठाये जा रहे हैं। लेकिन, क्या ऐसी धारणा सिर्फ अर्थशास्त्रियों और राजनीतिक विश्लेषकों के बीच है या आम जनता भी इससे इत्तेफाक रखती है? पिछली नोटबंदी के बाद भाजपा ने यह प्रचार-प्रसार किया कि नोटबंदी देशहित में काले धन की अर्थव्यवस्था पर प्रहार करने का सख्त कदम है।

 

तमाम विवादों और मुश्किलों के बावजूद पार्टी को इस बात का यकीन रहा है कि आम जनता ने नोटबंदी के फैसले को मोदी के भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम का अहम हिस्सा समझ कर अपना समर्थन दिया था। इसलिए मोदी सरकार अगले दस-ग्यारह महीनों में हर संभव वैसे फैसले लेगी, जिससे आम जनता में ऐसी धारणा बन सके कि वह सिर्फ उनके हित में निर्णय लेती है। इन सभी निर्णयों के केंद्र में निश्चित रूप से मोदी ही रहेंगे, जैसा कि पिछले नौ वर्षों से होता रहा है। इसमें कुछ अचरज वाली बात भी नहीं। भाजपा भले ही अपने आप को विचारधारा से चलने वाली पार्टी के रूप में चित्रित करती आई है, जहां हर कार्यकर्ता में शीर्ष पद पर आसीन होने की काबिलियत होने का दावा किया जाता है, लेकिन आज के दौर में हकीकत यही है कि मोदी का व्यक्तित्व पार्टी पर हावी है और यह पार्टी के हित में ही है। दरअसल, भाजपा को अपने वोट का प्रमुख हिस्सा मोदी की बदौलत ही मिलता है। ऐसे मतदाताओं की अच्छी-खासी तादाद है जिन्हें भाजपा की विचारधारा से कोई मतलब नहीं हैं। वे तो उसे वोट सिर्फ इसलिए देते हैं कि मोदी उसके नेता हैं।

 

देश में कई अन्य पार्टियों का भी इतिहास रहा है जहां नेताओं का व्यक्तित्व उनकी विचारधाराओं पर भारी पड़ा है। इंदिरा गांधी के दौर में उनका नेतृत्व मात्र ही कांग्रेस के चुनाव जीतने का सबसे बड़ा कारण था। अस्सी-नब्बे के दौर में माकपा ज्योति बसु की लोकप्रियता के वजह से बंगाल चुनाव आसानी से जीतती थी, न कि पार्टी के वामपंथी विचार के कारण। आज के दौर में भी, जद-यू को नीतीश कुमार, बीजद को नवीन पटनायक, तृणमूल को ममता बनर्जी, राजद को लालू प्रसाद, राकांपा को शरद पवार की वजह से ही वोट मिलते हैं। उनके बगैर इन पार्टियों की जमीनी स्थिति क्या होगी, इसकी आसानी से परिकल्पना की जा सकती है।

 

भाजपा और मोदी के साथ भी आज यही स्थिति दिखती है। जहां तक उनके विरोधियों का सवाल है, राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी अन्य पार्टी के लिए यह नहीं कहा जा सकता कि वे अपने किसी खास नेता की वजह से राष्ट्रीय चुनाव अपने बलबूते जीत सकते हैं, कांग्रेस के लिए भी नहीं। मोदी के खिलाफ विपक्ष के गठबंधन को मुकम्मल स्वरूप देने में सबसे बड़ा गतिरोध नेतृत्व का ही सवाल है। नीतीश कुमार जैसे नेता विपक्षी एकता की मुहिम में जुटे हैं, लेकिन नेतृत्व के सवाल पर बात करने को कोई तैयार नहीं। यहां तक कि राहुल गांधी भी हर प्रादेशिक दल को स्वीकार्य नहीं। अंत में नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ही आड़े आती है।

 

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जीत ने कांग्रेस को संजीविनी की नई खुराक दी है। इससे पूरे विपक्ष में भी नए जोश का संचार हुआ है, लेकिन इसके बावजूद यह सवाल बरकरार है कि क्या कांग्रेस अपने बलबूते इस जीत की पुनरावृत्ति अगले कुछ महीनों में होने वाले राज्यों के चुनावों में या लोकसभा चुनाव में कर सकती है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या राज्यों के विपक्षी क्षत्रप अगले चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व को स्वीकार कर सकते हैं? उन्हें यह जानना जरूरी है कि जिस लोकतंत्र के चुनाव में व्यक्तित्व विचारधारा से ज्यादा अहम रहा है, वहां उनकी लड़ाई भाजपा से नहीं, सीधे मोदी जैसे नेता से होगी? विपक्ष इस चुनौती को कैसे लेता है, यह अगले लोकसभा चुनाव में देखना दिलचस्प होगा, जिसकी सुगबुगाहट को हमने इस आवरण कथा में टटोला है।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement