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प्रथम दृष्टि : स्वरा भी, कंगना भी

"हम भूल जाते हैं कि स्वरा भास्कर को भी अपनी बात कहने का उतना ही अधिकार है, जितना कंगना रनौत को, भले ही उनकी...
प्रथम दृष्टि : स्वरा भी, कंगना भी

"हम भूल जाते हैं कि स्वरा भास्कर को भी अपनी बात कहने का उतना ही अधिकार है, जितना कंगना रनौत को, भले ही उनकी निजी या सार्वजानिक राय हमारे अपने पूर्वाग्रहों से प्रेरित मानकों पर खरी उतरे या नहीं"

जनतंत्र का सबसे खूबसूरत पहलू बिलाशक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन शायद हमें अपेक्षा रहती है कि सियासत से बाहर की चर्चित हस्तियां इस अधिकार का कम ही इस्तमाल करें, खासकर वे जो सिनेमा और खेल से ताल्लुक रखती हैं। फिल्म और क्रिकेट को हमारे देश में अघोषित धर्म का दर्जा प्राप्त है। इनसे जुड़े सेलेब्रिटी के मंदिर तक बनते रहे हैं, लेकिन उनकी पूजा तभी तक होती है जब तक उनके लब किसी पत्थर की मूरत की तरह खामोश रहते हैं। सामाजिक-राजनैतिक या अपने क्षेत्र से इतर किसी ज्वलंत विषय पर उनसे तटस्थ रहने की उम्मीद बड़े पैमाने पर की जाती है, क्योंकि उन्हें आम से खास किसी वर्ग विशेष ने नहीं बनाया है। वे सबके चहेते हैं, इसलिए अपेक्षा रहती है कि उनकी जुबां पर कोई ऐसी बात न आए, जो किसी को नागवार लगे। इसलिए जब भी कोई फिल्म स्टार या क्रिकेट खिलाड़ी किसी विषय पर अपनी राय रखने की ‘धृष्टता’ करता है, तो लगता है मानो आसमान टूट पड़ा हो।

हालांकि गैर-राजनैतिक क्षेत्र की सभी हस्तियों के साथ ऐसा नहीं होता। किसी उद्योगपति, नौकरशाह, मीडियानवीस, यहां तक कि किसी साधु-संत या अंडरवर्ल्ड के सरगना के बयानों को उतने हल्के में नहीं लिया जाता, जितना मनोरंजन और खेल जगत के सूरमाओं का। जिन हस्तियों को लोग सिर-आंखों पर बिठा कर रखते हैं, उनका सामाजिक-राजनैतिक दृष्टिकोण उन्हें आखिर गवारा क्यों नहीं है, यह समझ से परे है।

विडंबना यह भी कि उनमें से अधिकतर के राजनीति में प्रवेश को भी महज फिल्मी स्टंट समझा जाता है। दक्षिण भारत के कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो अधिकतर सियासी पार्टियों में उन्हें महज भीड़ जुटाने वाले “नचनिया-गवनिया” के रूप में देखा जाता है। ताउम्र सामाजिक सरोकार से जुड़ने वाले सुनील दत्त जैसे अभिनेता को भी राजनीति में वह दर्जा और मुकाम नहीं मिला सका, जिसके वे हकदार थे।

पिछले दिनों, किसान आंदोलन से संबंधित लता मंगेशकर, सचिन तेंडुलकर, अक्षय कुमार, अजय देवगन सरीखी लोकप्रिय हस्तियों के ट्वीट पर झंझट खड़ा हो गया। आरोप लगे कि रिहाना जैसी अमेरिकी पॉप स्टार के आंदोलन के समर्थन में किए गए ट्वीट के बाद उन्होंने सरकार के इशारे पर अपने-अपने ट्वीट किए। उन पर यह भी आक्षेप लगा कि वे आम तौर पर किसी ज्वलंत समाजिक समस्या पर अपनी बात रखने से बचते रहे हैं। उनके ट्वीट करने की मंशा या मजबूरी जो भी रही हो, उस पर निस्संदेह बहस हो सकती है, लेकिन उन्हें अपनी राय किसी भी मंच पर रखने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। फिल्म और क्रिकेट के सेलेब्रिटी को भी अपनी बात कहने का उतना ही अधिकार है, जितना किसी और को। 

यह बात और है कि अधिकतर मशहूर हस्तियां किसी बखेड़े में पड़ने की बजाय चुप ही रहना पसंद करती हैं। फिल्म इंडस्ट्री को वैसे भी ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ स्टैंड के लिए जाना जाता रहा है। दरअसल, सितारों के लिए किसी मुद्दे पर राय रखना दोधारी तलवार पर चलने जैसा है। वे किसी एक पक्ष के बारे में बोलते हैं, तो दूसरे पक्ष वाले उन पर हमला बोलते हैं, और वे किसी के विरोध में कुछ कहते हैं, तो उसका खामियाजा भी भरना पड़ता है। कभी-कभी तो उनके वक्तव्य का असर उनकी फिल्मों के व्यवसाय पर भी पड़ता है। पिछले साल, अभिनेत्री दीपिका पादुकोण के जेएनयू के प्रदर्शनकारी छात्रों के समर्थन में चले जाने के बाद उनकी फिल्म छपाक के बहिष्कार की मांग की गई। वर्षों पूर्व बोफोर्स विवाद के बाद अमिताभ बच्चन की शहंशाह के खिलाफ भी व्यापक प्रदर्शन हुए थे। आज सोशल मीडिया के दौर में जब उनके जैसे सितारों के फॉलोअर लाखों में हैं, इसका खतरा और भी बढ़ गया है। इसलिए चर्चित हस्तियां फूंक-फूंक कर कदम उठाती हैं।     

हालांकि हॉलीवुड या यूरोपीय सिनेमा की हस्तियों के साथ ऐसा नहीं होता है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के कार्यकाल के दौरान कला, खेल या मनोरंजन जगत के कई स्टार उनके और उनकी नीतियों के खिलाफ काफी मुखर रहे, लेकिन इससे उनके पेशेवर जीवन पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ा। उनकी किसी नई फिल्म को रिपब्लिकन पार्टी के कार्यकर्ता का रोष नहीं झेलना पड़ा। यहां तो कई प्रतिभावान कलाकारों को अपनी बेबाक राय रखने की कीमत चुकानी पड़ी है।

आज फिल्म उद्योग खेमों में बंटा है। इससे जुड़े कलाकार धीरे-धीरे विभिन्न मुद्दों पर निडर होकर बोल रहे हैं। यह अच्छी बात है। लोकतंत्र की खूबसूरती ही यही है कि लोग अलग-अलग राय रखने के बावजूद एक दूसरे के साथ मिल-बैठकर काम करते हैं। फिल्म, खेल या किसी अन्य गैर-राजनैतिक क्षेत्र की हस्तियों का किसी विषय पर मुखर होकर बोलना इसी खूबसूरती को रेखांकित करता है। विवाद तो तब शुरू होता है जब हम किसी चर्चित हस्ती से अपनी राय या विचारधारा के मुताबिक बोलने की उम्मीद करने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि स्वरा भास्कर को भी अपनी बात कहने का उतना ही अधिकार है, जितना कंगना रनौत को, भले ही उनकी निजी या सार्वजानिक राय हमारे अपने पूर्वाग्रहों से प्रेरित मानकों पर खरी उतरे या नहीं।

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