Advertisement

इस कानून से नहीं रूकेंगे हादसे

अमेरिका में सड़क यातायात दुर्घटना पर गठित एक समिति ने 1930 में अमेरिकी सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी।...
इस कानून से नहीं रूकेंगे हादसे

अमेरिका में सड़क यातायात दुर्घटना पर गठित एक समिति ने 1930 में अमेरिकी सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट में कहा गया था कि सड़क हादसों ने बड़ी तेजी से पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है, जो 1929 में 10 प्रतिशत से अधिक था। रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई थी कि स्कूलों में यातायात सुरक्षा के बारे में पढ़ाने पर जोर दिया जाए, दुर्घटना स्थलों के नक्शे का इस्तेमाल मुख्य रूप से उन जगहों का पता लगाने के लिए किया जाए, जहां सबसे अधिक हादसे होते हैं, ड्राइवरों की शिक्षा में सुधार किया जाए और ट्रैफिक कानूनों के उल्लंघन पर जुर्माना बढ़ाया जाए। अगले कुछ वर्षों में कई यूरोपीय देशों में इसी तरह की रिपोर्ट पेश की गई और अधिकांश देशों ने इन सुझावों को लागू किया। हालांकि, इसके बावजूद 1970 के दशक में दुनिया के हर देश में सड़क हादसों में मौत की संख्या बढ़ती रही।

पचास साल बाद हमारे नीति-निर्माता, अदालतें, पुलिस विभाग, इंजीनियर और एनजीओ उन नीतियों पर जोर देते रहे, जो लंबे समय से काम नहीं कर रही थीं। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण भारी जुर्माना लगाने पर जोर देना है। सबसे सम्मानित अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों में एक रुन एल्विक ने हाल में जुर्माना के प्रभावों पर एक अध्ययन प्रकाशित किया। इससे निष्कर्ष निकला कि 50 और 100 फीसदी के बीच जुर्माना बढ़ाने पर नियम उल्लंघन में 15 फीसदी की कमी आई; 50 फीसदी तक की वृद्धि से कोई असर नहीं पड़ा और जुर्माना 100 फीसदी बढ़ाने पर उल्लंघनों में चार फीसदी की बढ़ोतरी हुई। इस तरह इसका असर उल्टा पड़ता है। इसके अलावा, यह भी पता नहीं है कि नियमों के उल्लंघनों में मामूली कमी से मौत की संख्या कम हुई। दरअसल, दुनिया में ऐसा कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं है, जो बताता हो कि भारी जुर्माना और जेल की सजा के प्रावधान से मौत की संख्या में कमी आई है। अब तक के अध्ययनों से यह बात सामने आती है कि सड़क पर चलने वालों का व्यवहार इस बात से तय होता है कि व्यवस्था का डिजाइन क्या है और उसे किस तरह व्यवस्थित किया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की कुछ साल पहले जारी "वर्ल्ड रिपोर्ट ऑन रोड ट्रैफिक इंजरी प्रिवेंशन" में भी इस धारणा का समर्थन किया गया है। भारत में कई लोगों के पास यह रिपोर्ट है, लेकिन वे इसकी सिफारिशों को नजरअंदाज करते हैं।

इंटरसिटी सड़कों का उदाहरण लें, जिन्हें छह लेन वाले हाइवे या एक्सप्रेसवे में बदला जा रहा है। इनका एक किलोमीटर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर के सुरक्षा मानकों पर खरा नहीं उतरता है। उदाहरण के लिए, हमारे सभी हाइवे पर यातायात को दो दिशाओं में बांटने वाले डिवाइडर की ऊंचाई 30 सेंटीमीटर या उससे अधिक है और दोनों तरफ तेज ढलान हैं। ये दोनों तेज गति वाली सड़कों पर प्रतिबंधित हैं। यदि आपका टायर डिवाइडर को छूता है, तो वह तहस-नहस हो जाएगा, कार ऊपर उछलेगी और सड़क पर चक्कर खाती हुई गिरेगी। इसलिए जहां गाड़ियां 70 किलोमीटर प्रति घंटे की अधिक रफ्तार से चलती हों, उन सड़कों पर कोई अवरोध नहीं होना चाहिए। सड़क के किनारे गाड़ियों को धीमा करने और सड़क पर बनाए रखने के लिए उचित गार्ड रेल होनी चाहिए। हमारे शहरों में स्थिति बेहतर नहीं है। ऐसा कोई यूरोपीय या जापानी शहर नहीं जहां प्रमुख सड़कों पर गति सीमा 50 किमी प्रति घंटे और भीतर की सड़कों पर 30 किमी प्रति घंटे से अधिक है। यह सड़क डिजाइन के जरिए हो पाया, जो आवासीय और रिहाइशी इलाकों में तेज गति पर नियंत्रण रखता है। हम 30 किमी प्रति घंटे के प्रभाव को जानते हैं। ऐसे में पैदल चलने वालों की मौत की आशंका 10 फीसदी और 50 किमी प्रति घंटा की रफ्तार में यह 90 फीसदी होगी। यह शहर की गति सीमा निर्धारित करने का वैज्ञानिक आधार है।

सड़क पर चलने वालों को कठोर सजा का डर नहीं होता, क्योंकि उन्हें लगता है कि वे पकड़े नहीं जाएंगे। हालांकि, उन्हें यह जरूर लगता है कि जुर्माना न लगने के बावजूद उन्हें रोका जा सकता है। यही कारण है कि जब सड़क पर पुलिस मौजूद होती है, तो हेलमेट कानून काफी प्रभावी होते हैं। दूसरी ओर, नियमों का उल्लंघन करने वालों को डाक या ईमेल से नोटिस भेजने से ऐसा नहीं लगता कि दुर्घटना की दर में कमी होगी। ऐसा शायद इसलिए कि सड़क पर चलने के दौरान किसी को पता नहीं चल पाता कि वह नियमों को तोड़ते हुए पकड़ा गया है। क्रॉसिंग पर यातायात का हमारा प्रबंधन हमारे वैज्ञानिक नजरिए की कमी को बतलाता है। हम ट्रैफिक लाइटों पर बाएं मुड़ने की इजाजत देते हैं और ट्रैफिक ‘विशेषज्ञ’ इसका बचाव करते हैं। इससे गाड़ियां तो लगातार आगे बढ़ती रहती हैं, लेकिन पैदल चलने वालों के लिए सड़क पार करने का कोई सुरक्षित समय नहीं मिल पाता है। तब पैदल चलने वाले जान जोखिम में डालकर सड़क पार करते हैं। हम फिर उन्हें बेवकूफ या दोषी मानते हैं। हमारे यहां यह बुरा अभ्यास जारी है, जबकि अच्छे सुरक्षा रिकॉर्ड वाले अधिकांश शहर क्रॉसिंग पर लेफ्ट टर्न की इजाजत नहीं देते हैं। उन शहरों में हर 400-500 मीटर पर पैदल चलने वालों के लिए सुरक्षित सड़क पार करने की व्यवस्था करती है।

ये गलत नीतियों के कुछ उदाहरण हैं। हादसों को नियंत्रित करने की दिशा में पहला कदम उन नीतियों को लागू करना होगा, जिनकी अंतरराष्ट्रीय वैधता है और जिनके सफल होने की संभावना है। जहां तक कानून की बात है, तो पुलिस को हेलमेट, सीट बेल्ट, दिन में हेड लाइट का उपयोग, तेज और नशे में गाड़ी चलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई पर ध्यान देना चाहिए।

दूसरा, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर आधिकारिक सड़क सुरक्षा एजेंसियों को स्थापित करना होगा। इस एजेंसी में सरकारी नौकरियों वाले पेशेवरों की नियुक्ति की जाए, जो केवल इसी काम के लिए भर्ती होंगे। यह एजेंसी सड़क निर्माण विभागों से बिलकुल स्वतंत्र होनी चाहिए। ये एजेंसियां डेटा संग्रह, मानक तय करने, नीतियों के मूल्यांकन और अनुसंधान की गतिविधियों में शामिल होंगी। तीसरा कदम सड़क सुरक्षा से जुड़े सभी क्षेत्रों के विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों में अनुसंधान और शिक्षण केंद्रों को स्थापित करना और उन्हें मजबूत करना होगा। यह धीरे-धीरे हमें सही दिशा की ओर आगे बढ़ने में मदद करेगा।

(लेखक आइआइटी दिल्ली में ऑनरेरी प्रोफेसर और इंडिपेंडेंट काउंसिल फॉर रोड सेफ्टी इंटरनेशनल के डायरेक्टर हैं)

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement