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जनादेश 2022 के मायने- ब्रांड योगी और केजरीवाल मॉडल की जीत

पारंपरिक राजनीति के दिन लद चुके हैं। कमंडल और मंडल की राजनीति की उम्र पुरी हो चली है। सांप्रदायिक...
जनादेश 2022 के मायने- ब्रांड योगी और केजरीवाल मॉडल की जीत

पारंपरिक राजनीति के दिन लद चुके हैं। कमंडल और मंडल की राजनीति की उम्र पुरी हो चली है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बगैर भाजपा की जीत ने जतला दिया जाति पर टिके क्षत्रप अब अपने बूते सत्ता नहीं पा सकते। वैकल्पिक राजनीति केजरीवाल ने पकड़ी। पंजाब को दिल्ली की तर्ज पर जीत कर यह एहसास करा दिया कि सत्ता को अपना मॉडल बनाना होगा। राष्ट्रीय राजनीति के आसरे क्षत्रपों को ध्वस्त कर खुद को राज्यवार परिभाषित करने की समझ भाजपा ने विकसित की। कांग्रेस राष्ट्रीय राजनीतिक दल होकर भी किसी एनजीओ की तर्ज की राजनीति से आगे निकल नहीं पाई। कांग्रेस ने जिस नए मॉडल को यूपी में पेश किया, उस रास्ते को अपने ही शासित राज्यों में लागू नहीं किया। इन पांच राज्यों के चुनाव में पहली बार हर राज्य के जनादेश ने परंपरा को त्यागा। खुद को राष्ट्रीय धारा से जोडऩे की चाह ने ही यूपी में तीस साल के बाद किसी पार्टी को दोबारा जिताया। यानी योगी आदित्यनाथ ने एक झटके में मुलायम, मायावती या अखिलेश के आगे बड़ी लकीर खिंच दी, और खुद को राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में ला कर खड़ा कर दिया। यही नहीं, अखिलेश की समूची राजनीति को एमवाय [ मुस्लिम-यादव ] दायरे में सिमटा दिया। यानी 2022 का सबसे बड़ा मैसेज तीन चेहरे मोदी, योगी और केजरीवाल के आसरे 2024 के लिए निकला। मोदी का जादू बरकरार है। योगी भाजपा के नए ब्रांड हैं, जो 2024 में असर डालेंगे। आम आदमी केजरीवाल को 2024 के रथ पर चाहे अनचाहे सवार करेगा। विपक्ष अब केजरीवाल की अगुआई को खारिज कर नहीं पाएगा।
पंजाब में परिवर्तन की लहर और यूपी में न बदलने की सोच ने तीन बातों को इस चुनाव में उभार दिया। पहला, किसी भी नई राजनीतिक सोच को मान्यता देने के लिये जनता तैयार है। उसके लिए मॉडल, संगठन और विजन होना चाहिए, जो पंजाब में उभरा । केजरीवाल जीत गए। कुछ नया नहीं है और पुरानी राजनीति से जनता ऊब चुकी है तो सत्ता को क्यों बदले, यह बात यूपी में खुले तौर पर उभरी। जहां समाजवादी पार्टी जमीनी मुद्दों के उभरने के बावजूद खारिज हुई। अखिलेश अपनी कोशिश में बुरी तरह हार गए। दूसरा, जाति समीकरण के आसरे जीत तय नहीं मानी जा सकती। जाति पर टिके नेताओ के पीछ उन्हीं की जाति के वोटर चलने को तैयार नहीं हैं। पंजाब में 33 फीसदी दलित वोट बैंक के बीच कांग्रेस के दलित सीएम होने के बावजूद कांग्रेस की हार ने यह साबित कर दिया। वहीं यूपी में मौर्य, सैनी, चौहान, पटेल सरीखे नेताओं की पोटली समेटे अखिलेश यादव की झोली में कोई जाति नहीं गई। ओबीसी यानी पिछड़े तबके ने भाजपा का साथ दिया। तीसरा, पहली बार हिंदू-मुस्लिम कहीं नहीं था। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं था और जमीनी मुद्दों से प्रभावित और राजनीतिक दलों के आसरे उम्मीद और आस पाले वोटर ने क्षत्रपों को खारिज कर राष्ट्रीय राजनीतिक सत्ता को पसंद किया। यहां मोदी ब्रांड या कहे प्रधानमंत्री का असर यूपी की गलियों से लेकर उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में नजर आया।

लेकिन 2022 का संदेश कहीं आगे का है, क्योंकि किसानों के गढ़ यानी पश्चिमी यूपी में ही किसान आंदोलन की नहीं चली। लखीमपुर में किसानों को केंद्रीय मंत्री के पुत्र का किसानों को थार जीप से रौंदना भी वोटरों में गंस्सा पैदा कर नहीं पाया। बेरोजगारी, मंहगाई पर मुफ्त राशन और मोदी की योजनाओं ने म_ा डाल दिया। भगवा पहनकर योगी आदित्यनाथ ने हिंदुत्व को बुलंद किया तो अयोध्या में राम मंदिर से लेकर काशी कॉरीडोर में घुमते नरेंद्र मोदी ने निजीकरण, कारपोरेट दोस्तों को कौडिय़ों के मोल सार्वजनिक उपक्रम को बेचना और देश की आर्थिक बदहाली को उभरने की नहीं दिया। लेकिन 2022 ने नये संकेत यह भी दे दिए कि मोदी मॉडल को चुनौती देने के लिए भाजपा के भीतर योगी मॉडल उभरा तो भाजपा की राजनीति को चुनौती देने के लिए केजरीवाल मॉडल भी उभरा। यूपी में मायावती की राजनीति खत्म होने का ऐलान हो गया तो अखिलेश अपनी राजनीति को कैसे संभालेंगे, अब यह भी सवाल है। और बड़ा सवाल यह भी है कि अगर कांग्रेस नहीं संभली तो 2027 में यूपी में भी केजरीवाल भाजपा को चुनौती देने के लिए सामने होंगे।
यानी चुनाव चाहे पांच राज्यों के हुए लेकिन जनादेश का मैसेज साफ है कि राष्ट्रीय राजनीति के आसरे ही भविष्य की राजनीति तय होगी। इसके ब्रांड अंबेसंडर नरेंद्र मोदी हैं तो नए मास्टर केजरीवाल हंै और नए मॉडल योगी आदित्यनाथ हैं। कांग्रेस को नए विजन की खोज करनी है। पुराने पारंपरिक नोताओं को जनता पसंद नहीं करती। वे चाहे पंजाब में कैप्टन हों या बादल पारिवार हो या उत्तराखंड में हरीश रावत। कंमडल को भाजपा हिंदू राष्ट्र के आसरे आत्मसात कर चुकी है। विकास का समूचा खाका ही निजीकरण की इकोनॉमी पर जा टिका है। कारपोरेट नए वेलफेयर स्टेट की परिभाषा गढ़ेगा, क्योंकि चुनावी जीत लोकतंत्र का ऐसा स्तंभ है, जिसके तले सारी परिभाषाएं ‘सही’ हो जाती हैं।


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार निजी हैं)

 

 

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