महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह ने प्रदेश के गृह मंत्री अनिल देशमुख पर वसूली का रैकेट चलाने का आरोप लगाते हुए जो पत्र लिखा है, उसने न सिर्फ पूरे देश में सनसनी फैला दी, बल्कि संसद में भी इसे लेकर हंगामा हुआ। वैसे, इस पत्र में कई तकनीकी, व्याकरण और अन्य ऐसी अशुद्धियां हैं जो उनके कद के आइपीएस अफसर के हिसाब से गले नहीं उतरतीं। पत्र में लगाए गए आरोप काफी हास्यास्पद, प्रायोजित और अति काल्पनिक जान पड़ते हैं।
कोई नौसिखिया क्राइम रिपोर्टर या पुलिस अधिकारी, जो जानता है कि महानगरों में वसूली रैकेट किस तरह चलते हैं, उसे यह बात कतई हजम नहीं होगी कि गृहमंत्री किसी डांस बार या हुक्का पार्लर से हर महीने सिर्फ दो से तीन लाख रुपये मांगते हैं। गृह मंत्री ही नहीं, एक साधारण पुलिस वाला भी जानता है कि मुंबई की हॉस्पिटैलिटी इंडस्ट्री हर महीने 100 गुना ज्यादा रकम देने में सक्षम है। हर महीने सिर्फ 100 करोड़ रुपये की वसूली का लक्ष्य मुंबई में वसूली करने वालों की बेइज्जती करने जैसा है। मुंबई तो इस रकम को वर्षों पहले पार कर चुकी है। हाल के वर्षों में इस तरह के वसूली रैकेट कई हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गए हैं। बार तो इस रैकेट का बहुत ही मामूली हिस्सा हैं। मुंबई जैसे शहर में तो वसूली के लिए इससे भी बड़े स्रोत हैं- रियल स्टेट बिल्डर, काम करवाने के बदले पैसे देने को तैयार कंपनियां, अंडरवर्ल्ड ये सब तो 100 करोड़ रुपये महीने की रकम तो अपने बही-खाते में ‘अन्य’ मद में डालेंगे दिखाएंगे। इन सबके अलावा, पुलिस अफसरों के तबादले और नियुक्तियों का भी रैकेट है जिनसे हर महीने बार की तुलना में कई गुना ज्यादा वसूली हो सकती है।
इसलिए अगर देशमुख बार से सिर्फ 100 करोड़ रुपये हर महीने वसूली की सोच रहे थे तो वे निश्चित रूप से अपने आप को और महाराष्ट्र के गृहमंत्री के पद को कमतर आंक रहे थे। यही नहीं, वे अपने पार्टी का भी नुकसान कर रहे थे। अगर देशमुख को ऐसा करना होता तो वे किसी जूनियर पुलिस वाले को अपने सरकारी आवास पर नहीं बुलाते और इस तरह की बेशर्म मांग उसके सामने नहीं रखते, जैसा परमबीर सिंह आरोप लगा रहे हैं। परमबीर शिवसेना या भाजपा के खिलाफ ऐसे आरोप नहीं लगाएंगे क्योंकि दोनों दलों के शक्तिशाली नेताओं के साथ उनके परिवार के वैवाहिक संबंध हैं।
बहरहाल अब जब इस नाटक पर धूल जमने लगी है, यह स्पष्ट हो गया है कि परमबीर सिंह के पत्र पर भाजपा के आइटी सेल की मुहर लगी है। देशमुख और पुलिस अधिकारी के बीच बातचीत की जो तारीख बताई गई है, उन दिनों वे कोविड-19 का इलाज कराने के लिए अस्पताल में भर्ती थे। दरअसल, देशमुख भाजपा की हिट लिस्ट में हैं क्योंकि वे उन अफसरों को किनारे कर रहे थे जो पिछली देवेंद्र फडणवीस सरकार के करीबी माने जाते हैं। चिट्ठी प्रकरण से एक हफ्ते से भी कम समय पहले गृह मंत्री ने परमबीर सिंह पर मुकेश अंबानी के निवास एंटीलिया के करीब विस्फोटक भरी कार पाए जाने की जांच में कई खामियों के आरोप लगाए थे। इस मामले का तार तिहाड़ जेल में बंद कैदियों के जरिए आतंकवाद और पाकिस्तान से जुड़े होने का संदेह है। परमबीर सिंह पर देशमुख का आरोप और भाजपा का दबाव, दोनों इसी बिंदु से जुड़े हैं।
राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) ने असिस्टेंट पुलिस इंस्पेक्टर सचिन वझे को गिरफ्तार किया है, जिसके सिर पर परमबीर सिंह का हाथ माना जाता है। सचिन पर व्यापारी मनसुख हिरेन की हत्या में भी शामिल होने का आरोप है। मनसुख हिरेन की कार में ही विस्फोटक सामग्री बरामद हुई थी और उससे पहले करीब महीने भर कार सचिन के पास थी। सचिन के खिलाफ कई धाराएं लगाई गई हैं, लेकिन सवाल है कि वह किसकी सरपरस्ती में यह सब काम कर रहा था। सचिन को 2002 में एक हिरासती मौत के मामले में सस्पेंड किया गया था। उसके बाद उसे न सिर्फ दोबारा बहाल किया गया, बल्कि उसे महत्वपूर्ण मामलों की जांच भी सौंपी गई जिनमें टीआरपी घोटाला और मनसुख हिरेन मामला भी शामिल है। सचिन वझे की गिरफ्तारी से सीधे परमबीर सिंह की तरफ उंगली उठती है। कहा जा सकता है कि परमबीर महा विकास आघाडी सरकार गिराने के लिए भाजपा का खेल खेल रहे हैं। वे इस उम्मीद में सुप्रीम कोर्ट गए हैं कि उनके खिलाफ राज्य सरकार का आदेश रद्द हो जाएगा।
इसलिए यह सिर्फ वसूली रैकेट, आपराधिक षड्यंत्र या किसी आतंकवादी गतिविधि का मामला नहीं है। अगर परमबीर सिंह के मातहत काम करने वाले सचिन से गृह मंत्री ने बार से वसूली करने के लिए कहा, तो परमबीर सिंह यह मामला पहले उठा सकते थे, बल्कि उन्हें ऐसा ही करना चाहिए था। उनके पत्र लिखने के समय से कई संदेह उभरते हैं। उन्होंने कई खामियां भी रख छोड़ी हैं। जैसे उन्होंने पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किया है, ताकि सरकार उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई न कर सके।
अगर भाजपा को ऐसा लग रहा था कि वह महा विकास आघाडी सरकार के गृह मंत्री पर इस्तीफे का दबाव बनाएगी तो वह गलतफहमी में थी। तीन पार्टियों वाली इस सरकार में शिवसेना के मुख्यमंत्री का एनसीपी पर कोई अधिकार नहीं है। एनसीपी ही तय करेगी कि देशमुख रहेंगे या जाएंगे। गृह मंत्री के रूप में देशमुख शरद पवार की पहली पसंद नहीं थे, लेकिन उन्होंने भतीजे अजीत पवार की यह राय मान ली कि उन्हें गृह मंत्री के रूप में ऐसे व्यक्ति को चुनना चाहिए जो पवार परिवार से बड़ा बनने की कोशिश न करे और जिसे आसानी से नियंत्रित किया जा सके।
देशमुख विदर्भ क्षेत्र से आते हैं जहां एनसीपी की मौजूदगी नाम मात्र की है। विनम्र और गैर महत्वाकांक्षी देशमुख इस भूमिका के लिए फिट बैठते थे। वे उम्मीदों पर खरे भी उतरे। उन्होंने न सिर्फ राज्य सरकार को अस्थिर करने की कोशिश करने वाले भाजपा के आइटी सेल पर लगाम कसी, बल्कि किसान आंदोलन का समर्थन करने वाली रिहाना, ग्रेटा थनबर्ग और अन्य वैश्विक हस्तियों के खिलाफ भारत के सेलिब्रिटी को ट्वीट के लिए मजबूर करने के मामले से भी निपटा। जाहिर है कि भाजपा चाहेगी कि देशमुख गृह मंत्री पद से इस्तीफा दे दें। और भी अच्छा हो अगर मह विकास आघाडी सरकार गिर जाए। लेकिन पवार देशमुख का समर्थन कर रहे हैं और उन्होंने उन्हें हटाने से इनकार कर दिया है। उद्धव ठाकरे भी संभवतः नहीं चाहेंगे कि देशमुख जाएं क्योंकि 1995-99 में जब प्रदेश में भाजपा के साथ शिवसेना की सरकार थी, तब सरकार का समर्थन करने वाले स्वतंत्र विधायकों में देशमुख भी थे। तब से शिवसेना नेताओं के साथ उनके अच्छे संबंध हैं। हालांकि इस मामले की जांच होगी। ठाकरे ने विधि विभाग से जांच के लिए कहा है ताकि उनकी सरकार की विश्वसनीयता पर आया संकट खत्म हो।
इस संकट के दूसरे पहलू भी हैं जिनसे पता चलता है कि महा विकास आघाडी के भीतर कशमकश चल रही है। हाल के दिनों में ठाकरे ने जिस तरह अपने कुछ मित्रों और उनकी पत्नियों को सरकार में हस्तक्षेप की अनुमति दी है, उससे शरद पवार और यहां तक कि शिवसेना के सांसद संजय राउत भी नाराज बताए जाते हैं। शायद इसीलिए जब सरकार पर आरोप लग रहे थे तब पवार और राउत, दोनों नई दिल्ली में आराम से बैठे थे। नए मुख्यमंत्री को संकट से निकालने या उनकी मदद करने के लिए मुंबई जाने की उन्हें कोई जल्दी नहीं थी। दरअसल वे ठाकरे को इस बात का एहसास दिलाना चाहते थे कि सहजता से सरकार चलाने के लिए उन्हें उन जैसे वरिष्ठ नेताओं की जरूरत है, न कि मित्रों और उनके परिवारों की। कांग्रेस किनारे खड़ी देख रही है। उसने सरकार के भीतर और बाहर चल रहे इस शक्ति परीक्षण पर कोई टिप्पणी नहीं की। यह तो स्पष्ट है कि इस प्रकरण ने प्रशासन को झकझोर दिया है, लेकिन इतना भी नहीं कि गठबंधन की सरकार गिर जाए।
महाराष्ट्र के इतिहास में इससे पहले किसी भी अधिकारी ने अपने गृह मंत्री पर इस तरह के सनसनीखेज आरोप नहीं लगाए। हाल ही उत्तर प्रदेश में ट्रांसफर रैकेट को लेकर इसी तरह के आरोप लगाए गए, लेकिन उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। लेकिन न तो महाराष्ट्र उत्तर प्रदेश है, न ही परमबीर सिंह वैभव कृष्ण हैं जिन्होंने उत्तर प्रदेश में ट्रांसफर रैकेट का मामला उठाया। परमबीर सिंह उन अधिकारियों में हैं जिन पर उग्रवादी गतिविधियों के मामले में गिरफ्तार भाजपा सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने हिरासत में नृशंस बर्ताव के आरोप लगाए थे। जाहिर है कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी से डरने के लिए उनके पास कई वजहें हैं और उसके हाथों में खेलने से बहुत कुछ खोने का डर भी नहीं है। महाराष्ट्र के लोगों को लग रहा है कि वे दूसरे सत्यपाल सिंह साबित होंगे। सत्यपाल सिंह भी मुंबई के पुलिस कमिश्नर थे जो 2014 में भाजपा के सांसद और मंत्री बने। यहां विश्वासघात का फल बहुत मीठा है। लेकिन दोष महा विकास आघाडी का भी है, जिसने मुंबई पुलिस कमिश्नर पद के लिए गलत आदमी को चुना और उसे पीठ में छुरा घोंपने का अवसर दिया। ठीक उसी तरह जिस तरह यूपीए सरकार ने विनोद राय को सीएजी बनाया था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
 
                                                 
                             
                                                 
                                                 
			 
                     
                    