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नागरिकता कानून जरूरी, लेकिन एनआरसी कैसे

“मुसलमानों को भारत की तासीर से जोड़ने की पुरजोर कोशिश से ही अखंड भारत का सपना पूरा हो...
नागरिकता कानून जरूरी, लेकिन एनआरसी कैसे

“मुसलमानों को भारत की तासीर से जोड़ने की पुरजोर कोशिश से ही अखंड भारत का सपना पूरा हो सकेगा”

नागरिकता कानून पर पूरी बहस ‘कौवा कान ले गया’ की तर्ज पर तर्कहीन हो गई है। एनआरसी के जिस मुद्दे पर पूरा विरोध हो रहा है, उस पर सरकार का अभी तक कोई अधिकृत बयान ही नहीं आया। पिछले आम चुनावों की रैलियों में रोहिंग्या घुसपैठियों को दीमक बताते हुए देश से बाहर निकालने के अनेक बयान दिए गए थे। मैंने सुप्रीम कोर्ट में पिछले साल अर्जी दायर करके रोहिंग्या घुसपैठियों को देश से बाहर निकालने की मांग का समर्थन किया था। मीडिया में इस मुद्दे पर तेज बहस और ध्रुवीकरण के बावजूद, अभी तक एक भी रोहिंग्या घुसपैठिए को भारत से बाहर नहीं निकाला जा सका है।

बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से पलायन करके आए हुए अल्पसंख्यक हिंदू और सिखों को भारत की नागरिकता देने पर कभी भी राजनीतिक असहमति नहीं रही है। नागरिकता कानून में संशोधन वक्त की जरूरत के अनुसार लिया गया फैसला है, जो आजादी के दौर के हमारे तमाम नेताओं के वादे को पूरा करता है। महात्मा गांधी ने आजादी के पहले ही जुलाई 1947 में पाकिस्तान से भारत में आने वाले सभी हिंदू और सिखों को नागरिकता देने की बात कही थी। गांधी जी के सुझावों के मद्देनजर ही कांग्रेस कार्यसमिति ने नवंबर 1947 में प्रस्ताव पारित करके पाकिस्तान से पलायन करके आने वाले हिंदुओं को भारत में रोजगार, नागरिकता और सम्मानपूर्ण जीवन देने की बात कही थी। इसके बावजूद नेहरू सरकार ने मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों को प्रश्रय दिया, जिसका डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने डटकर विरोध किया। भारतीय जनसंघ ने सन 1970 में प्रस्ताव पारित करके सीमावर्ती राज्यों में शरणार्थी हिंदुओं को भारत की नागरिकता और संवैधानिक अधिकार देने की मांग की थी। पिछले कई दशकों से उपेक्षा का दंश झेल रहे हिंदू शरणार्थियों के पक्ष में कांग्रेस और माकपा ने भी कई बार आवाज उठाई तो फिर आज इस मुद्दे पर इतना भीषण राजनैतिक विरोधाभास क्यों हो रहा है? दुनिया के अधिकांश देशों में नागरिकों के रजिस्ट्रेशन की व्यवस्था है। जो लोग हिंदुओं के अलावा, विदेशी मुस्लिमों को भी भारत में नागरिकता देने की बात कर रहे हैं, उन्हें यह पता होना चाहिए कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के मुस्लिमों के पास दुनिया के 100 से अधिक इस्लामिक देशों में शरण लेने का विकल्प है। लेकिन इन तीनों देशों के सताए गए हिंदू अल्पसंख्यकों के पास भारत में शरण लेने के अलावा शायद ही कोई विकल्प हो? भारत में अन्य देशों के विस्थापित प्रताड़ित मुसलमानों को सरकार पहले से नागरिकता देती आई है और उन नियमों में कोई बदलाव नहीं हुआ है।

इसे समझने के लिए भारत के विभाजन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझना होगा. विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ, लेकिन इस कड़वी सच्चाई को भारत में सेक्युलर नेताओं द्वारा स्वीकार नहीं करने से नागरिकता जैसी  समस्याएं हो रही हैं। जिन्ना और इकबाल के सद्भावनापूर्ण बयानों की मार्क्सवादी इतिहासकारों द्वारा दुहाई दी जाती है। लियाकत समझौते के बावजूद पाकिस्तान में अल्पसंख्यक हिंदुओं के खात्मे की कटु स्वीकारोक्ति के बगैर, भारत में धार्मिक सहिष्णुता पर असंगत दबाव बनाना, स्वस्थ विचार नहीं है।  

यहूदियों और पारसियों के मामले से साफ है कि भारत ने सदैव ही प्रताड़ित नागरिकों और विदेशियों को अपने यहां न सिर्फ शरण दी, बल्कि उनका अपनी संस्कृति में समावेश भी किया। इस महान सांस्कृतिक परंपरा की वजह से ही भारतीय संविधान में सभी धर्मों के संविधान सम्मान की बात लिखी और मानी गई। इसके बावजूद, राजनीतिक लाभ के लिए आपातकाल के दौरान इंदिरा सरकार ने संविधान में धर्मनिरपेक्षता के शब्द को प्रस्तावना में शामिल कर लिया। वोट बैंक की राजनीति की वजह से भारत में राजनेताओं द्वारा अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण और पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों के दमन की पृष्ठभूमि में ही वर्तमान राजनीतिक ध्रुवीकरण को समझने का प्रयास करना चाहिए। लेकिन क्या हम घड़ी की सुईओं को वापस ले जा सकते हैं?

नागरिकता संशोधन कानून अंतरराष्ट्रीय मापदंडों और संविधान के सिद्धांतों पर पूरी तरह से खरा है। राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर या फिर राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) का होना, सुशासन और राष्ट्रीय सुरक्षा दोनों के लिए जरूरी है। इसे सफल बनाने के लिए विपक्षी नेताओं और राज्यों के साथ परामर्श और सहयोग दोनों जरूरी है, जिसका सरकार में अभाव दिख रहा है। नागरिकता कानून में श्रीलंका से आने वाले तमिल अल्पसंख्यकों को शामिल नहीं करने से दक्षिण भारत में भी असंतोष है।

संस्कृत की सूक्ति है, “विनायकं प्रकृर्वाणों, रचयामास वानर” अर्थात बनाने चले थे गणेश जी लेकिन बन गया बंदर। पिछले कार्यकाल में मोदी सरकार ने जिस आपाधापी में नोट बंदी लागू की उसका खामियाजा पूरी अर्थव्यवस्था को अभी तक भुगतना पड़ रहा है। कहा जा रहा है कि नोटबंदी का फैसला आर्थिक मापदंडों के बजाय चुनावी रणनीति के अनुसार किया गया था। एनआरसी संवैधानिक तौर पर भले ही सही हो, लेकिन इसे राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने से भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कमजोर पड़ सकता है। चुनावी नफा-नुकसान के लिए देश भर में आन्दोलन और अशांति संघीय व्यवस्था और लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है।

भारत में अनेकता में एकता का हमेशा से स्वर रहा है। अनेक शताब्दियों की पराधीनता के बाद हिंदू गौरव और शिष्टता के उन्नयन के लिए संघ की स्थापना हुई। हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र की सफलता के लिए निष्कासन के बजाय समावेश के स्वर को प्रमुख बनाना होगा। गुरु जी (माधव सदाशिव गोलवरकर) का भी मानना था कि हिंदू समाज को संगठित और सबल बनाकर देश निर्माण में बड़े भाई की भूमिका निभानी चाहिए। उनका यह भी मानना था कि मुसलमानों को भारत की तासीर से जोड़ने की पुरजोर कोशिश से ही अखंड भारत का सपना साकार हो सकेगा।

नागरिकता कानून के मामले में अज्ञानता और फेक न्यूज के प्रसार के लिए सोशल मीडिया को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। यूपीए सरकार के पराभव में सोशल मीडिया का बड़ा योगदान था जिसके माध्यम से भ्रष्टाचार और बलात्कार के मामलों पर राष्ट्रीय जनांदोलन पैदा हुआ। भाजपा सरकार के निर्माण में सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसे अब फेक न्यूज के नाम पर गुनहगार ठहराया जा रहा है। यूपीए सरकार के काल में मैंने सन 2012 में सोशल मीडिया के नियमन के लिए दिल्ली हाइकोर्ट में याचिका दायर की थी। नागरिकता कानून और तीन तलाक पर रातोरात कानून बनाने वाली सरकार द्वारा सोशल मीडिया कंपनियों से टैक्स वसूली के लिए पिछले छह सालों में कोई कानून नहीं बनाया जाना, दुर्भाग्यपूर्ण है। सत्ता का मतलब सिर्फ सरकार बनाना नहीं है। संघ की विचारधारा के अनुसार, राष्ट्र निर्माण में राजनीति के साथ धर्म, समाज, शैक्षणिक संस्थान, मीडिया समेत कई अन्य अंगों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। बड़ी चुनावी जीत के बावजूद, जनता से कटने की वजह से नागरिकता जैसे ठोस मुद्दों पर भी लोगों में सही समझ नहीं बन पा रही है। नागरिकता कानून के बेबुनियाद विरोध को खत्म करने के लिए पार्टी और सरकार को सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों के माध्यम से जनता से और ज्यादा जुड़ने की जरूरत है। रोहिंग्या दीमक की तरह देश को खोखला कर रहे हैं पर उन्हें निकालने के लिए पिछले छह सालों में भाजपा सरकार ने क्या कदम उठाए हैं? इस तरह के ठोस प्रयासों को जनता के बीच बताने से नागरिकता कानून जैसे मामलों में जनता का विश्वास हासिल करना आसान हो जाता है। राष्ट्रीय सुरक्षा और सामरिक महत्व के इस मुद्दे पर काम के बजाय राजनीति, देश के लिए शुभ नहीं है। आर्थिक मंदी से गुजर रहे इस नाजुक दौर में इस प्रकार की समस्याओं को बेवजह आमंत्रण देना अच्छा तो नहीं कहा जा सकता।

वर्तमान आंदोलन में 70 के दशक की राजनीतिक स्थिति की झलक देखी जा सकती है, जब कांग्रेस के पराभव और जनसंघ के उन्नयन की शुरुआत हुई थी। उसके बाद राजनीतिक वर्चस्व और एकाधिकार हासिल करने के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद 1971 के युद्ध से बांग्लादेश निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। श्रीमती गांधी के व्यक्तिवाद की राजनीति का अंत 1975 के आपातकाल से हुआ, जिसके बाद जनता पार्टी का जन्म हुआ, जिसका राजनीतिक उत्तराधिकार भाजपा को अब हासिल हो गया है। नागरिकता जैसे राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे का बंगाल और दिल्ली की सत्ता के लिए इस्तेमाल, भाजपा के उभरते कांग्रेसी चरित्र को दिखलाता है। लेकिन अब यह ध्यान रखना होगा कि डिजिटल मीडिया के दौर में इंदिरा गांधी जैसी निरंकुशता हासिल करना किसी भी शासक के लिए संभव नहीं हो सकता है।  

नागरिकता कानून और एनआरसी पर संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद मलेशिया और इस्मालिक देशों का संगठन (ओआइसी) का विरोध, भारतीय उपमहाद्वीप में कट्टरपंथी ताकतों के ध्रुवीकरण को तेज कर सकता है।

कश्मीर से धारा 370 की शुभ समाप्ति के बाद एनआरसी के नाम पर उत्तर-पूर्वी राज्यों में परमिट व्यवस्था का विस्तार राष्ट्रीय एकता के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। इस कानून को लागू करने के बाद, अगर करोड़ों घुसपैठियों को पहचान भी लिया जाए तो उन्हें भारत से बाहर कैसे भेजा जाएगा? नागरिक अधिकारों और सोशल मीडिया के इस युग में घुसपैठियों को अरब सागर में तो नहीं फेंका जा सकता है! एनआरसी पर सरकार को राजनीति के साथ स्पष्ट रणनीति और कार्ययोजना देश के सामने रखनी होगी, जिसके बगैर यह मामला राजनीतिक प्रलाप ही साबित होगा। 

 (लेखक राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के संरक्षक एवं विचारक हैं)

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