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न्यायपालिका द्वारा अपनी ड्यूटी की अनदेखी

आजकल देश में न्यायपालिका अपनी सत्ता, अपना अधिकार क्षेत्र, अपना मैदान और यहां तक कि अपना कर्तव्य, सब...
न्यायपालिका द्वारा अपनी ड्यूटी की अनदेखी

आजकल देश में न्यायपालिका अपनी सत्ता, अपना अधिकार क्षेत्र, अपना मैदान और यहां तक कि अपना कर्तव्य, सब धीरे-धीरे छोड़ती जा रही है और एक तरह से अपनी नई शक्तियों से अपनी सारी सत्ता सरकार को सौंपती जा रही है। यह बेहद दुखद और चिंताजनक है, क्योंकि न्यायपालिका देश का गार्डियन एंजेल (आदर्श अभिभावक), संविधान का आखिरी रखवाला और कानून का अल्टीमेट इंटरप्रेटर (आखिरी व्याख्याकार) है। संसद कानून बना सकती है, सरकार उस कानून को लागू कर सकती है, लेकिन वह कानून सही है या नहीं, यह तो न्यायपालिका ही बता सकती है। यही न्यायपालिका का कर्तव्य और दायित्व है। सुप्रीम कोर्ट और न्यायपालिका का दूसरा दायित्व है कि वह देखे कि सरकार अपनी शक्तियों का जो इस्तेमाल कर रही, वह संविधान, कानून के दायरे में है या नहीं और नहीं कर रही है, तो उसे रोके। हाल में चार अक्टूबर को बिहार के मुजफ्फरपुर के चीफ जुडिशियल मजिस्ट्रेट ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखने के लिए देश की जानी-मानी शख्सियतों के खिलाफ एफआइआर दर्ज करने का जो आदेश दिया, वह मेरी राय में असंवैधानिक, गैर-कानूनी था। पहली बात तो यह कि उस ‌िपटीशन के आरोप से प्रथम दृष्टया कोई अपराध ही नहीं बनता, राजद्रोह की बात तो दूर है। फिर, मॉब लिंचिंग के खिलाफ खुद प्रधानमंत्री जून में राज्यसभा में बोल चुके हैं और सुप्रीम कोर्ट का सख्त फैसला आ चुका है। तो, यह आदेश सुप्रीम कोर्ट की भावना के खिलाफ था। मेरे ख्याल से उस जज ने गलत काम किया। उसके लिए पटना हाइकोर्ट की प्रशासनिक समिति को उसे फौरन सस्पेंड करना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट को भी इसका स्वतः संज्ञान लेना चाहिए था। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि न्यायपालिका मानो अपना दायित्व ही भूल चुकी है। वह कोई सवाल नहीं उठाना चाहती। इसकी वजहें भी कोई बहुत अनजानी नहीं हैं। उसके लिए तीन मामलों को याद किया जा सकता है जिनसे लगातार तीन प्रधान न्यायाधीश संदेह के घेरे में आ गए। ये मामले हैं कलिखो पुल सुसाइड नोट, मेडिकल कॉलेज घोटाला और हाल का यौन उत्पीड़न मामला। इससे लगता है कि न्यायाधीश खेहर, न्यायाधीश दीपक मिश्रा और न्यायाधीश रंजन गोगोई पर किसी कारण से सरकार का दबाव बढ़ गया। अरुणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री कलिखो पुल के सुसाइड नोट, जो डाइंग डेक्लेरेशन के समान है, में आरोप था कि तत्कालीन चीफ जस्टिस जे.एस. खेहर और न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नाम पर पैसे मांगे गए थे। उसकी स्वतंत्र जांच बहुत जरूरी थी, लेकिन सरकार ने नहीं करवाया। इसी तरह मेडिकल कॉलेज स्कैम केस में दर्ज एफआइआर में आरोप है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला पक्ष में करवाने के लिए पैसे मांगे गए। मामला तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की बेंच के सामने था। सरकार को इसकी जांच करानी चाहिए थी, क्योंकि उसका यह नैतिक दायित्व है कि न्यायपालिका भ्रष्टाचार के आरोप से मुक्त हो।

इसी तरह पिछले साल अक्टूबर में न्यायाधीश रंजन गोगोई के प्रधान न्यायाधीश बनने के लगभग साथ ही यौन उत्पीड़न के आरोप का मामला सामने आ गया। उसके बाद पीड़िता को पहले सस्पेंड, फिर ट्रांसफर और बाद में डिसमिस कर दिया गया। उसके बाद उसके पति और सास को सस्पेंड किया गया। सुप्रीम कोर्ट से कॉम्पैशनेट ग्राउंड पर नियुक्त उसके ब्रदर इन लॉ को हटाया गया। पीड़िता और उसके पति पर गलत एफआइआर दर्ज की गई। उन्हें गिरफ्तार किया गया। अब क्या हो रहा है कि सस्पेंशन वापस हो गया और शिकायतकर्ता क्रिमिनल केस में कहता है कि वह उसे आगे नहीं बढ़ाना चाहता है। पुलिस ने क्लोजर रिपोर्ट दे दी और जज साहब ने उसे मान लिया। इससे तो यही लगता है कि ये सारे कदम पीड़िता पर दबाव बनाने के लिए उठाए गए थे। अगर यह किसी पश्चिमी लोकतंत्र में हुआ होता, तो वहां के चीफ जस्टिस को तुरंत इस्तीफा देना पड़ता। इसकी जांच होती और साबित हो जाता तो चीफ जस्टिस पर आपराधिक मुकदमा चलता। हमारे यहां दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक औरत को दबाने के लिए यह सब किया गया। मुझे लगता है कि इन सबके लिए कहीं-न-कहीं सरकार की मदद ली गई है। इससे हुआ यह है कि पिछले साल अक्टूबर के बाद सुप्रीम कोर्ट में जो-जो संवेदनशील मामले आए, उन सभी के नतीजे सरकार के पक्ष में आए। अब इनमें कोई संबंध है या नहीं, यह तो मीडिया को पता लगाना चाहिए।

उसके बाद सीबीआइ, राफेल मामले या चुनाव उल्लंघन के मामलों में कोर्ट के रवैए को ही देख लीजिए। कोर्ट ने चुनाव आयोग को इन मामलों को देखने को कहा। आयोग ने कुछ विपक्षी नेताओं और सत्तारूढ़ पार्टी के कुछ छोटे नेताओं पर तो संज्ञान लिया लेकिन बड़े नेताओं पर नहीं। प्रधानमंत्री ने खुद चुनाव संहिता का उल्लंघन किया लेकिन सुप्रीम कोर्ट भी उस पर चुप बैठ गया। उसके बाद भी कई संवेदनशील मामले हैं। मसलन, पूर्व गृह मंत्री पी. चिदंबरम का केस ही देखिए। वे दोषी हैं या नहीं, यह तो कोर्ट तय करेगी लेकिन सुप्रीम कोर्ट में चिदंबरम जैसे वरिष्ठ वकील को अग्रिम जमानत नहीं दी गई। उनकी याचिका तक स्वीकार नहीं की गई जबकि उसी दिन जस्टिस रमन्ना ने सीबीआइ के किसी केस में ऑर्डर स्टे कर दिया। तो यही जाहिर होता है कि सुप्रीम कोर्ट किसी तरह के दबाव में है कि चिदंबरम को राहत नहीं मिलनी चाहिए, ताकि वे गिरफ्तार हो जाएं और जेल चले जाएं। मेरा मानना है कि पिछले पांच साल में विभिन्न चीफ जस्टिस दबाव में आए और चीफ जस्टिस ही मास्टर ऑफ रोल होने के नाते मामलों और याचिकाओं को विभिन्न बेंचों के सामने वितरण का अधिकार रखते हैं, इसलिए तीनों चीफ जस्टिस ने राजनैतिक रूप से संवेदनशील मसलों को ऐसे डिस्ट्रिब्यूट किया कि वे स्वतंत्र बेंच के पास न जा पाएं और ऐसे बेंच के पास रखे जाएं, जहां सरकार के पक्ष में फैसले हों। यह एक तथ्य है और इस पर गौर करेंगे तो पता लग जाएगा।

तथ्य यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट में बहुत सारे स्वतंत्र विचार वाले, अच्छे, जानकार और ईमानदार न्यायाधीश हैं। वे राजनैतिक रूप से स्वतंत्र भी हैं। लेकिन उनके सामने केस नहीं लगाए जा रहे हैं, क्योंकि चीफ जस्टिस मास्टर ऑफ रोल हैं। यह सिद्धांत गलत है कि मास्टर ऑफ रोल कुछ भी कर सकता है। दुख की बात है कि 12 जनवरी 2018 को चार वरिष्ठ जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस में न्यायाधीश गोगोई ने खुद कहा था कि मास्टर ऑफ रोल होने से चीफ जस्टिस को कोई अतिरिक्त अधिकार नहीं मिल जाते हैं। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा सत्ता का दुरुपयोग कर रहे हैं और उन्होंने खासतौर पर जज लोया के संदर्भ में बोला था कि यह मामला जस्टिस अरुण मिश्रा की कोर्ट में रखा गया। वही चीफ जस्टिस गोगोई अब बहुत ही संवेदनशील मामले जस्टिस मिश्रा की कोर्ट में भेज रहे हैं। मेरा यह मानना है कि पिछले तीन चीफ जस्टिस ने अपनी सत्ता का दुरुपयोग किया है।

इसके नतीजे जम्मू-कश्मीर से संबंधित याचिकाओं के मामले में दिखे हैं। हैबियस कॉर्पस याचिकाओं के मामले ही देखिए। यह बुनियादी नागरिक अधिकारों का सबसे संवेदनशील मामला होता है। इसमें हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट पुलिस को किसी व्यक्ति को फौरन पेश करने का आदेश जारी कर सकता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने किसी भी मामले में यह नहीं किया। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और निराशाजनक है। इसी सुप्रीम कोर्ट ने कथित लव जिहाद के हदिया केस में हैबियस कॉर्पस पर लड़की की पेशी करवाई और एनआइए से जांच को भी कह दिया। लेकिन लड़की ने कहा कि अपनी मर्जी से शादी की और एडल्ट हूं। तो यह क्या बताता है कि उसी वक्त केरल में भाजपा के बड़े नेता सार्वजनिक रूप से लव जिहाद की बात कर रहे थे। अब क्या सबूत चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट का झुकाव सत्ता की तरफ है। यह न्यायपालिका के लिए अच्छी बात नहीं है।

जम्मू-कश्मीर की पाबंदियों के मामलों की याचिकाओं की सुनवाई चीफ जस्टिस गोगोई ने बेहद गंभीर अयोध्या मामले की सुनवाई में व्यस्तता के बावजूद, खुद की क्योंकि शायद वे इसे स्वतंत्र बेंच के पास भेजना नहीं चाहते थे। उन्होंने सरकार को हलफनामा दाखिल करने को कहा,  पर चार हफ्ते तक सरकार ने नहीं किया। उसके बाद कहा कि हलफनामा देना ही होगा। फिर चार हफ्ते का समय दिया। सरकार ने नहीं किया। अगर न्यायाधीश गोगोई सख्त होते तो सरकार के खिलाफ अवमानना का नोटिस जारी करते। फिर जब मामला उनके सामने आया तो उन्होंने कहा कि मेरे पास समय नहीं है। फिर विशेष पीठ बना दी गई, उसने सरकार को आठ हफ्ते का और समय दे दिया। यह दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट जम्मू-कश्मीर के लगभग 90 लाख लोगों के अधिकारों की रक्षा करने में असफल रहा। इसका क्या मतलब है? अंतरराष्ट्रीय मीडिया और यहां की मीडिया में भी आया है कि वहां बड़े पैमाने पर सुरक्षा बलों ने अधिकारों का दुरुपयोग किया है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को सरकार से कहना चाहिए था कि कानून-व्यवस्था आपका मसला है लेकिन मूलभूत अधिकारों की रक्षा करना हमारा दायित्व है। पर, सुप्रीम कोर्ट में पहले जस्टिस अरुण मिश्रा की बेंच ने फिर चीफ जस्टिस गोगोई की बेंच ने कहा कि जब तक सरकार नहीं चाहेगी, हम हस्तक्षेप नहीं करेंगे। उनके ये ऑब्जर्वेशन संविधान के खिलाफ हैं। यह उनकी ड्यूटी के खिलाफ है। मुझे लगता है कि यह हिंदुस्तान के इतिहास में काला अध्याय है। इमरजेंसी के दौरान जो गलती एडीएम जबलपुर कोर्ट से हुई थी, वही सुप्रीम कोर्ट दोहरा रहा है।

मेरा मानना है कि नागरिक अधिकारों की रक्षा का मामला राष्ट्रीय सुरक्षा से बिलकुल अलग है। राष्ट्रीय सुरक्षा सरकार का काम है और यह करते हुए सरकार अगर लोगों के मौलिक अधिकारों को तोड़ती-मरोड़ती है, तो सुप्रीम कोर्ट का काम है कि वह नागरिक अधिकारों की रक्षा करे। एक-एक व्यक्ति की रक्षा की नैतिक जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट की है। नैतिक, कानूनी और संवैधानिक जिम्मेदारी से सुप्रीम कोर्ट हट गया है। इस स्टेज से सुप्रीम कोर्ट या जुडिशियरी का वापस आना बहुत ही मुश्किल है।

इसका असर न्यायपालिका की नियुक्तियों पर भी देखा जा रहा है। आप एनजेएसी में जस्टिस खेहर का जजमेंट पढ़िए। मैंने उसमें सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन का प्रतिनिधित्व किया था। हमारी उस समय राय थी कि नेशनल जुडिशियल सिस्टम कॉलेजियम से बेहतर है। आप बुर्का पहनकर देश के किसी अदालत में चलिए, तो आपको पता चलेगा कि न्यायपालिका की हालत क्या है। यह सब देखकर बहुत ही निराशा और दुख होता है। कॉलेजियम सिस्टम आज व्यवस्थित तरीके से सरकार द्वारा नियंत्रित हो रही है। इसमें ऐसा नहीं है कि कोई एक जज या चीफ जस्टिस हैं। इसमें अच्छे-अच्छे जज भी गलती कर बैठे हैं। इनमें जस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस मदन बी. लोकुर और  जस्टिस कुरियन जोसेफ भी शामिल हैं। जस्टिस जयंत पटेल का ट्रांसफर हुआ, वे कर्नाटक के अगले चीफ जस्टिस बनने वाले थे। वे गुजरात से हैं और बहुत लगन से काम करने वाले और स्वतंत्र जज रहे हैं। उनके चीफ जस्टिस बनने से थोड़े दिन पहले उन्हें इलाहाबाद हाइकोर्ट भेजा गया और उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इसके बाद जस्टिस कुरैशी भी गुजरात में नंबर दो थे, उन्हें बॉम्बे हाईकोर्ट भेज दिया गया और आज उन्हें चीफ जस्टिस नहीं बना रहे हैं। आज सुप्रीम कोर्ट लाने से पहले कोई नहीं देखता है कि किसी जज ने 50 अच्छे जजमेंट लिखे हैं या नहीं। अगर उसे रिव्यू करें तो सुप्रीम कोर्ट में मौजूद कई जज वहां नहीं होते। और दूसरे यह कि वे राजनैतिक रूप से स्वतंत्र जज होने चाहिए। आज कितने जज नेताओं से मिलते हैं, इसका कोई हिसाब ही नहीं है। वे सीधे मिलते हैं या किसी दूसरे वकील या पत्रकारों के जरिए मिलते हैं। मैंने बिड़ला-सहारा केस के बारे में आर्टिकल लिखा। मैंने लिखा था कि ये केस जस्टिस अरुण मिश्रा के सामने नहीं रख सकते, क्योंकि नेताओं से उनका घनिष्ठ संबंध है। एक नाम था बिड़ला-सहारा केस में शिवराज चौहान का और उनका फोटो है कि उनके भतीजे की शादी में शिवराज सिंह चौहान भोपाल से जबलपुर आए। यह क्या दिखाता है। आज प्रधानमंत्री शादियों या किसी समारोह में आते हैं। प्रधानमंत्री सुप्रीम कोर्ट आते हैं और चीफ जस्टिस उनसे अकेले चेंबर में मिलते हैं। यह पहले नहीं होता था। पहले चीफ जस्टिस ऐसे थे कि प्रधानमंत्री उनसे मिलना भी चाहें तो वे मना कर देते थे। केवल आधिकारिक वजहों से बैठक होती थी। उसका पूरा रिकॉर्ड रखा जाता था। आज कई जजों के नेताओं से व्यक्तिगत संबंध हैं।

आज बहुत साफ है कि सरकार जो चाहती, उसी को प्रमोट किया जा रहा है। सरकार मानती है कि कोई जज इंडिपेंडेंट है और हमारी नहीं सुनेगा, तो उन जजों को अनदेखा किया जा रहा है। यह एक तथ्य है। ऐसा सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्टों में हो रहा है। आज कॉलेजियिम सिस्टम पूरी तरह विफल हो चुका है। आज भी निचली अदालतों, हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में बहुत सारे अच्छे जज हैं, जो बहुत नेक हैं। बेहद लगन से काम करने वाले और एकदम स्वतंत्र हैं। दुर्भाग्य से, इन जजों को दरकिनार किया जा रहा है। इसके कारण कानून की पूरी व्यवस्था बिगड़ रही है, खासकर सरकार से जुड़े मामलों में। आज हाइकोर्टों में भी यही स्थिति है कि वह राज्य सरकार के खिलाफ फैसले देने को तैयार ही नहीं है। आज किसी को भी पीएमएलए या पब्लिक सेफ्टी या यूएपीए के नाम पर जेल में डाल दीजिए, तो हाइकोर्ट वाजिब सुनवाई से भी इनकार कर रहे हैं या टालमटोल कर रहे हैं। कश्मीर, भीमा काेरेगांव के मामले इसके उदाहरण हैं। यह लोकतंत्र और संविधान के लिए बेहद घातक है।

(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं। यह लेख हरिमोहन मिश्र से बातचीत पर आधारित है)

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