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यह राष्ट्रीय भावना के तो विपरीत

कोई भी कानून या नैतिक आग्रह संविधान की भावना के विपरीत या उससे ऊपर नहीं है जिसे हम भारत के लोगों ने अपने...
यह राष्ट्रीय भावना के तो विपरीत

कोई भी कानून या नैतिक आग्रह संविधान की भावना के विपरीत या उससे ऊपर नहीं है जिसे हम भारत के लोगों ने अपने लिए अपनाया है। अगर हम अपने संविधान की प्रस्तावना पर गौर करें तो यह एकदम साफ हो जाता है कि हमारे संविधान का मुख्य उद्देश्य राष्ट्र की एकता और अखंडता हासिल करना है। संविधान में जोर इस उद्देश्य के लिए राजनैतिक न्याय, हैसियत और अवसर की समानता और सबसे बढ़कर भाईचारे को प्रश्रय देने पर है। संविधान निर्माता हमारे राष्ट्र की एकता और अखंडता कायम रखने के लिए इसी एकमात्र तरीके के हिमायती हैं। राष्ट्रवाद के इसी एकमात्र स्वरूप को हमें अपने दैनिक जीवन में तवज्जो देनी चाहिए। राष्ट्रवाद की इस कसौटी पर जो खरा नहीं है, संविधान की भावना के प्रतिकूल है, उसे राष्ट्रीयता नहीं कहा जा सकता। जो कानून हमारे राष्ट्र की एकता और अखंडता के उपरोक्त उद्देश्य के विपरीत हो, उसकी आलोचना को राष्ट्र-विरोधी करार नहीं दिया जा सकता। मैं आम बोलचाल में इस्तेमाल होने वाली देशभक्ति की कसौटी की बात नहीं कर रहा हूं क्योंकि हमारे संविधान निर्माताओं ने सोच-समझकर इस पद का उपयोग नहीं किया है।

हमारा संविधान हमारा बाइबिल है और उसमें राष्ट्रवाद की बेहद सरल परिभाषा है। क्या नागरिकता संशोधन कानून, 2019 (सीएए) राष्ट्रवाद के उपरोक्त उद्देश्य या कसौटी पर खरा है? अगर नहीं, तो क्या उसका विरोध करने वालों को राष्ट्रविरोधी या देशद्रोही कहना उचित और तर्कसंगत है? ये कुछ सवाल हम सभी को परेशान कर रहे हैं और हम एक अर्धसत्य से रू-ब-रू हैं।

यह आसानी से कहा जा सकता है कि सरकार गलत नहीं कह रही है कि सीएए की धारा 21 बी और धारा 6 बी स्वत: किसी को भी नागरिकता से वंचित नहीं करता है। यह बेहद मासूम-सा जवाब शब्दों की बाजीगरी और अर्धसत्य से अधिक कुछ नहीं है। सीएए स्वत: किसी को नागरिकता से वंचित नहीं कर सकता। लेकिन इसे अलग से या शून्य में लागू करने का इरादा नहीं है, इस पर अमल का इरादा तो एनपीआर और एनआरसी के साथ करने का है, जो अवैध प्रवासियों की पहचान करेंगे। ऐसे प्रवासी अवैध हैं, जो बिना किसी वैध कागजात के भारत में आए हैं या उन कागजात में तय तारीख के बाद यहां रह रहे हैं। इस तरह यहां सीएए की भूमिका होगी। क्योंकि जो लोग दिसंबर 2014 के पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत में आए हैं और जो मुसलमान नहीं हैं, उन्हें अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा। उन्हें नागरिकता कानून, 1955 की धारा 6बी के तहत पंजीकरण या देसीकरण की प्रक्रिया से नागरिकता दे दी जाएगी। इस तरह सही स्थिति तो यही है कि सीएए यकीनन किसी को नागरिकता से वंचित नहीं करता लेकिन दिसंबर 2014 के पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान से आए मुसलमानों को नागरिकता प्रदान करने का वह समान अवसर नहीं देता,  जो हिंदू, सिख, जैन और ईसाइयों वगैरह को मुहैया कराता है। लेकिन इन समुदायों के जो लोग पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से नहीं आए हैं, उन्हें भी मुसलमानों की तरह नागरिकता से वंचित होना होगा। गौरतलब यह भी है कि भारत के बंटवारे से अफगानिस्तान का कोई संबंध नहीं रहा है। बहरहाल, कोई भी मुसलमान अवैध प्रवासी घोषित किए जाने के बाद भारत का नागरिक कभी नहीं बन सकता या उसे नागरिकता कानून के तहत देसीकरण की प्रक्रिया के लिए 11 से 14 साल प्रवास के बाद नागरिकता हासिल हो सकती है। इससे अलग दावा करने वाले सरासर झूठ बोल रहे हैं। उनके लिए जल्द प्रक्रिया का कोई रास्ता नहीं है। ऐसे में, क्या यह सवाल मौजूं नहीं है कि वे ठगा हुआ महसूस नहीं करेंगे?

इसलिए यह देखना उचित है कि यह सारा मामला न सिर्फ भेदभावपूर्ण, बल्कि गैर-धर्मनिरपेक्ष भी है। हमारा संविधान लोगों की समान भागीदारी पर आधारित लोकतंत्र की बात करता है। हमारे संविधान में समानता का सिद्धांत धर्म के आधार पर वर्गीकरण करने की मनाही करता है। दरअसल, हमारे संविधान की धर्मनिरपेक्ष भावना धर्म की समानता पर ही आधारित है। उसमें धार्मिक समानता के लक्ष्य को हासिल करने के लिए अल्पसंख्यकों के विशेष अधिकारों का भी इरादा जाहिर किया गया है। धर्मनिरपेक्षता और समानता की अवधारणाओं में कोई विरोधाभास नहीं है। इसलिए हम सीएए को इस कसौटी पर कसते हैं तो हमें यह मुसलमानों के प्रतिकूल जान पड़ता है। फिर, इस पर कुछ बारीकी से गौर करें तो यह साफ हो जाता है कि न तो यह (सीएए) संविधान निर्माताओं के मकसद के अनुकूल है, न नागरिकता कानून, 1955 की धारा के हिसाब से है। 

यह संविधान बड़ी संजीदगी के साथ हर क्षेत्र के भेदभाव पर अंकुश लगाता है। इसमें लोगों की प्रत्यक्ष भागीदारी से चुनाव और राजकाज का प्रावधान है, जिसमें धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं है। इसके अनुच्छेद 14, 15, 16, 25, 26, 325 और 326 जैसे अनेक प्रावधान हर क्षेत्र में गैर-बराबरी पर प्रतिबंध लगाते हैं। संविधान अपने समानता संहिता के तहत अल्पसंख्यकों के प्रति विशेष रुख की बात करता है। हमारे संविधान की इसी भावना के अनुरूप इसके नागरिकता संबंधी अध्याय में नागरिकता के मामले में धर्म की चर्चा सोच-समझकर नहीं की गई है। कहीं भी यह धर्म के आधार पर नागरिकता देने की बात नहीं करता। यह सभी धर्मों के प्रति समान भाव रखता है। गौरतलब यह है कि ये प्रावधान उस वक्त अपनाए गए, जब सीमा के आर-पार बड़े पैमाने पर लोगों का पलायन हो रहा था। यह समझा जा सकता है कि उस वक्त भारत से जो पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान जा रहे थे, वे धार्मिक अल्पसंख्यक बिरादरी से थे। लेकिन संविधान निर्माताओं ने बंटवारे की फिजा में जो भारत से पाकिस्तान चले गए थे, उन्हें लौटने पर नागरिकता देने की अनुमति दी। संविधान में नागरिकता प्रदान करने की यही भावना है और उससे धर्म या मजहब को दूर रखा गया है। दिलचस्प यह है कि अनुच्छेद 6 और 7 दोनों ही भारत से जाने और भारत में आने वालों से संबंधित हैं लेकिन दोनों में किसी धार्मिक पूर्वाग्रह का जिक्र नहीं है। संविधान निर्माता ने हर तरह के प्रवासियों के लिए नागरिकता प्रदान करने का विकल्प खुला रखा, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो।

संविधान के लगभग फौरन बाद बनाए गए नागरिकता कानून 1955 में भी यही भावना है। नागरिकता कानून का कोई भी प्रावधान धर्म की बात नहीं करता, चाहे नागरिकता देने की बात हो या नागरिकता वापस लेने की। पंजीकरण या देशीकरण से नागरिकता देने की प्रक्रिया में धर्म का कोई मतलब नहीं है। 2019 में सीएए के अलावा संसद ने भी नागरिकता के मामले में बड़ी संजीदगी के साथ कभी धर्म का हल्का-सा जिक्र भी नहीं आने दिया। सीएए में ‘‘अवैध प्रवासियों’’ को नागरिकता प्रदान करने की प्राथमिक शर्त धर्म है। इसका सबसे विषाक्त अंश यह है कि कथित तीन देशों से 2014 तक आए सभी ‘‘अवैध प्रवासी’’ इस विशेष प्रावधान से नागरिकता पा सकते हैं, लेकिन मुसलमान नहीं, उन्हें इस विशेष प्रावधान के तहत कभी नागरिकता नहीं मिलेगी। बेशक, यह फर्क धर्म के आधार पर किया गया है और यह हमारे संविधान की समानता और धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर ही चोट करता है। इसमें यह दो-टूक मान लिया गया है कि पाकिस्तान वगैरह देशों में मुस्लिम समुदाय कभी कट्टरता का शिकार नहीं हो सकता, जो सच नहीं है। इस मामले में अहमदिया और हजारा समुदाय का उत्पीड़न सब के सामने है। यह कानून यह भी मान लेता है कि दूसरे देशों में हिंदू कभी सताए नहीं जाते। इसकी जीती-जागती मिसाल तो श्रीलंका ही है। इस कानून में अलगाव के दूसरे अतार्किक प्रावधान भी हैं।

दरअसल कहीं भी ‘‘धार्मिक उत्पीड़न’’ की परिभाषा स्पष्ट न होने से समस्या और पेचीदा हो जाती है। यह तय करने की कोई कसौटी नहीं है कि धार्मिक उत्पीड़न का शिकार किसे कहा जाएगा। यह कानून अजीबो-गरीब रूप से इस मामले में मौन है। इसलिए बंटवारे की वजह से हुए धार्मिक उत्पीड़न से सीएए का कोई रिश्ता पूरी तरह अतार्किक और भ्रामक है या महज दिखावे का हो सकता है। इसके अलावा, यह भी गौर कीजिए कि अफगानिस्तान से भारत के बंटवारे का क्या लेना देना है? अगर ‘‘धार्मिक उत्पीड़न’’ सहने वालों से सच्ची सहानुभूति होती तो धर्म या देश के आधार पर फर्क नहीं किया जाता। क्या पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं और मुसलमानों के धार्मिक उत्पीड़न में कोई फर्क है? बेशक कोई यह तर्क दे सकता है कि धार्मिक उत्पीड़न के शिकार लोगों को शरण देना मानवीय फर्ज है लेकिन वे पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान के मुसलमानों या दूसरे देशों के हिंदुओं, ईसाइयों वगैरह के मामले में मौन क्यों हो जाते हैं? क्यों ऐसा ही व्यवहार श्रीलंका के हिंदुओं या भूटान के ईसाइयों वगैरह के बारे में नहीं है? ये भी तो ब्रिटिश राज में भारत के हिस्से रहे हैं। महज तीन देशों के चयन में तर्क ढूंढ़ पाना मुश्किल है या श्रीलंका के हिंदुओं और भूटान के ईसाइयों को शामिल न करने का भी कोई तर्क नहीं दिखता। मुझे बताया गया है कि बर्मा या म्यांमार से हिंदू भी आए हैं। तो, उन्हें क्यों छोड़ दिया गया?

इन बेतुके भेदभाव के अलावा सबसे उलझन भरा सवाल ‘‘अवैध प्रवासियों’’ के मामले में सीएए का कानूनी असर है कि हिंदू, सिखों को ‘‘अवैध प्रवासी’’ नहीं माना जाएगा। उन्हें कुछ साबित करना नहीं पड़ेगा। इस तरह उन्हें नागरिकता देने का रास्ता खुल जाता है क्योंकि वे कानून की नजर में अवैध प्रवासी नहीं हैं। सीएए की तर्क-पद्धति साफ-साफ मुसलमानों के प्रति धार्मिक पूर्वाग्रह पर आधारित है। इसे जायज ठहराने के लिए 1950 के लियाकत अली-नेहरू के समझौते का हवाला देना अर्धसत्य को फेंटने जैसा है। उस समझौते का इस मुद्दे से कोई लेना-देना नहीं है। उस समझौते में दो पहलू थे। एक, भारत और पाकिस्तान की सरकारें अपने-अपने दायरे में अल्पसंख्यकों के साथ पूरी तरह समान नागरिकों जैसा व्यवहार करेंगी। अल्पसंख्यकों को अवसर, सुरक्षा और सार्वजनिक जीवन में हिस्सेदारी का समान अधिकार होगा। दूसरे, बंटवारे के बाद पहुंचे प्रवासियों को, बिना धर्म पूछे, पर्याप्त सुरक्षा, राहत और मदद दी जाएगी। अगर हम समझौते को ध्यान से पढ़ें तो सीएए यकीनन उसका उल्लंघन लगेगा। समझौते में कहीं धर्म का जिक्र नहीं है। उसमें संबंधित वाक्य है, ‘‘अपने क्षेत्र में अल्पसंख्यकों को नागरिकता की संपूर्ण समानता, बिना धर्म पूछे, मुहैया कराने को रजामंद।’’ क्या सीएए इस भावना पर खरा बैठता है?

अनुच्छेद 6 और 7 के लिए संविधान सभा की बहस को पढ़ते हुए ऐसा जरूर लगता है कि बहस खासकर हिंदुओं की ओर मुड़ी हुई है। लेकिन उसकी वजहें बंटवारे के दौरान होने वाली घटनाएं थीं। बड़ी संख्या में लोग सीमा के आर-पार जा रहे थे। 1947 में पाकिस्तान से हिंदू बड़ी संख्या में भारत में आए। फिर 1948 में पश्चिम पाकिस्तान में मुसलमान आने लगे जो पहले पाकिस्तान में चले गए थे। इसलिए नागरिकता देने के तब के सवाल समझ में आते हैं। तकनीकी तौर पर अनुच्छेद 6 और 7 में कुछ मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह दिख सकता है लेकिन उसकी वजह संपत्तियों के मामले थे। इसलिए पाकिस्तान चले गए मुसलमानों को वापस आने से हतोत्साहित करना था। अब 70 साल बाद जब ये मुद्दे खत्म हो चुके हैं, फिर उसे उभारना बेतुका है।

कुल मिलाकर सीएए न संविधान की भावना के अनुरूप है, न हमारी राष्ट्रीयता के अनुरूप है।

(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वरिष्‍ठ वकील हैं)

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