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बजट या चुनावी भाषणबाजी

नोटबंदी और जीएसटी से सांसत में अर्थव्यवस्‍था और चुनावी घमासान वाले वर्ष में एनडीए-2 सरकार और...
बजट या चुनावी भाषणबाजी

नोटबंदी और जीएसटी से सांसत में अर्थव्यवस्‍था और चुनावी घमासान वाले वर्ष में एनडीए-2 सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा के संकटमोचन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने चुनौतियों से पार पाने का आसान रास्ता शायद यही निकाला कि कुछ ठोस पहल करने के बदले लुभावनी बातों से दिल जीता जाए।

यह कयास चहुंओर लगाया जा रहा था कि सरकार का आखिरी पूर्ण बजट पेश करना जेटली के लिए खासा चुनौतीपूर्ण होगा। वजह यह कि राजस्व उगाही घटने और राजकोषीय घटा बढ़ने से बड़े खर्च करना आसान नहीं था। फिर भी किसानों, नौजवानों, छोटे व्यापारियों, लघु और मझोले उद्योगों की नाराजगी दूर करने के लिए बाकी मामलों में निराशा का आरोप झेलना चुनावी वर्ष में बुरा नहीं है। सो, न मध्यवर्ग को आयकर में कोई विशेष रियायत दी गई, न कारपोरेट टैक्स में अपने पहले बजट के वादे के अनुरूप कम लाने की पहल की गई। अलबत्ता छोटे उद्यमियों को हल्की रियायत का ऐलान किया गया। सीमा शुल्क में इजाफे का ऐलान किया गया। इस तरह कथित आर्थिक सुधार और शेयर बाजार में गिरावट की चिंता न करना भी चुनावी वर्ष में मुनासिब ही समझा गया।

बजट भाषण प्रारंभ करते ही वित्त मंत्री ने किसानों, छोटे व्यापारियों और रोजगार सृजन की चिंता को अहम बताया और अंत भी कुछ इस अंदाज में किया कि इसे इन्हीं तबकों का बजट समझा जाए। जेटली के भाषण में गरीब, महिलाओं की चिंता भी कई बार उभरी। वे यह भी बताने से नहीं चूके कि देश का मौजूदा नेतृत्व गरीबी के दर्द से बखूबी परिचित ही नहीं है, बल्कि वह गरीबी पर खुद में एक केस स्टडी है। इन अपवादों के अलावा जेटली लच्छेदार मुहावरों के लिए वैसे भी बेहद कम जाने जाते हैं। न ही उनके भाषणों में उद्धरणों का विशेष पुट होता है। बेशक, स्वामी विवेकानंद के आखिर में जिक्र के भी सियासी मतलब निकाले जा सकते हैं।

हालांकि एकाध बार विपक्ष की ओर टिप्पणी भी सियासी दरकार होती ही है। सो, एमएसएमई को टैक्स में मामूली रियायत पर दूसर तरफ कुछ शोर मचा तो जेटली फौरन कह उठे, मैडम लगता है उन्हें छोटे उद्यमियों को रियायत रास नहीं आई। वित्त मंत्री ने इतनी ही सतर्कता राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और राज्यपालों के भत्तों में इजाफे के दौरान सांसदों के वेतन-भत्तों के मामले में भी बरती। उन्होंने हल्की मुस्कराहट के साथ ऐलान कि सांसदों के मामले में ऐसा संशोधन लाया जाएगा, ताकि हर पांच साल में उनके वेतन-भत्तों में स्वतः सुधार होता जाएगा।

लेकिन वित्त मंत्री यह ऐलान करते हुए लोकतंत्र की एक बुनियादी मर्यादा को भुला बैठे कि खासकर जन-प्रतिनिधियों के मामले संसदीय या जनता के प्रति जवाबदेही का विशेष महत्व है। वैसे, संसदीय दायरे से धीरे-धीरे बहुत कुछ अलग किया जा रहा है। जैसे उत्पाद और सेवा कर अब संसदीय जवाबदेही से दूर कर दिए गए हैं। सवाल बड़े हैं लेकिन फिलहाल बजट पर ही ध्यान देना चाहिए। सो, यह कहना पड़ेगा कि जेटली ने बड़ी चतुराई और सावधानी से जुमले बुने हैं।  

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