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संपादक की कलम से: हाथरस और हम

“उत्तर प्रदेश के हाथरस में दलित लड़की की हिंसक मौत की हैरतनाक खबर जबसे सुनी है, गुस्से से मेरी...
संपादक की कलम से: हाथरस और हम

“उत्तर प्रदेश के हाथरस में दलित लड़की की हिंसक मौत की हैरतनाक खबर जबसे सुनी है, गुस्से से मेरी धमनियों में लहू दौड़ने लगता है।”

उम्र ने मुझे मुलायम बना दिया है, मगर उत्तर प्रदेश के हाथरस में दलित लड़की की हिंसक मौत की हैरतनाक खबर जबसे सुनी है, गुस्से से मेरी धमनियों में लहू दौड़ने लगता है। देश में बेकाबू यौन अपराधों, जब हर दिन तकरीबन 87 बलात्कार की वारदात दर्ज हो रही हों, पर अजीब सन्नाटे के बावजूद हाथरस कांड ने हमारी सामूहिक चेतना को बुरी तरह झकझोर दिया। उस लड़की पर वहशी अनाचार जैसे काफी नहीं था, उसकी मौत के बाद जो हुआ, उससे तो हमारी आदतन जड़ता भी विद्रोह कर उठी।

अक्खड़ बाबुओं वाली निहायत असंवेदनशील राज्य सरकार ने उस मृत लड़की पर और जलालत लाद दी। चीखते-चिल्लाते, गुहार लगाते परिजनों की परवाह न करके रात के घने अंधेरे में उसका शव जला दिया गया। फिर, परिवार को उसके घर में बंधक बना दिया गया। गांव की घेरेबंदी कर दी गई, प्रेसवालों और राजनैतिक नेताओं को वहां पहुंचने से जबरन रोका गया। इतना ही नहीं, अधिकारियों ने मां-बाप पर भारी दबाव बनाया, जिला मजिस्ट्रेट तो यह कहते वीडियो में कैद हो गए कि उन्हें अपने बयान पर सतर्क रहना चाहिए।

हाथरस में जो हुआ, उससे समूचा देश एकबारगी कांप उठा। जीवट के धनी उन युवा टीवी संवाददाताओं का शुक्रिया, जिन्होंने जोखिम उठाकर इंसाफ के नाम पर इस करतूत को दर्ज किया। इससे देश भर में उठे गुस्से के उबाल की तुलना शायद दिल्ली में 2012 में हुए क्रूरतम निर्भया गैंगरेप के खिलाफ उठी नाराजगी से ही की जा सकती है। ऐसी नाराज प्रतिक्रिया देख बाबुओं के कुछ होश ठिकाने लगे और तब कुछ सही दिशा में हरकत हुई। पुलिस की घेरेबंदी कुछ हटाई गई और सीबीआइ को जांच सौंपी गई।

लेकिन मत भूलिए कि राज करने वालों का एकाध कदम पीछे हटना सिर्फ रणनीतिक चाल होती है। यह थोड़ी मोहलत निकाल लेने के लिए है, न कि उनके किसी स्थायी हृदय परिवर्तन का संकेत है। इस मायने में हाथरस कांड एक लाइलाज बीमारी का लक्षण है, यह सत्ता में बैठे अहंकार में डूबे सत्ताधीशों की प्रशासनिक शह है, जो खुद को किसी के प्रति जवाबदेह नहीं मानते। जो हम देख रहे हैं, उसे भला और कैसे समझा जा सकता है। यह उत्तर प्रदेश में ही नहीं, हाल के दौर में देश में दूसरी जगहों पर भी हो रहा है। मेरा दिमाग आज भी यह सोचकर चकरा उठता है कि कैसे एक वरिष्ठ रक्षा अधिकारी ने टीवी पर प्रसारित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बिना किसी झिझक के कश्मीर में मुठभेड़ की वह कहानी बताई, जिसमें तीन ‘आतंकी’ मारे गए, जो बाद में बेकसूर आम लोग साबित हुए। ऐसे ही पद के दुरुपयोग के कई मामलों में अधिकारी लगभग बिना किसी दंड के छूट जाते हैं। डॉ. कफील खान को बेमतलब महीनों जेल काटनी पड़ी। एक जिलाधिकारी ने उनके एक भाषण के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) के तहत गिरफ्तारी का आदेश दिया, लेकिन बाद में साबित हुआ कि उस भाषण में किसी तरह की कटुता नहीं थी। फिर भी पुलिस ने कथित तौर उनकी बुरी तरह पिटाई की और यातनाएं दी गईं। इसी तरह पुलिस ने गैंगस्टर विकास दुबे का ‘सफाया’ कर दिया। पुलिस के काफिले के साथ आ रहे पत्रकारों की टोलियों को रोका गया और उसके 10 मिनट बाद ही कथित तौर पर गाड़ी पलट गई। फिर वह हुआ, जिससे न्यायेतर हत्या के कोई संकेत छुपते भी नहीं नजर आए।

हमारे कानून के रखवालों में कई हमेशा ही कानून की धज्जियां उड़ाते रहे हैं लेकिन उनसे आज का फर्क यह है कि अब हर तरह का लाज-लिहाज ताक पर रख दिया गया है। इसमें मोटे तौर पर अनुकूलित मीडिया की शह भी धड़ल्ले से मिल रही है, जो निहायत एकपक्षीय और कायराना हरकतों में सहभागी बन गया है। हम ‘जस्टिसफॉरसुशांतसिंहराजपूत’ जैसे फर्जी अभियानों में ही मशगूल रहते हैं और उन लोगों को खुली छूट दे देते हैं, जो इस साल दिल्ली दंगों की निष्पक्ष और वाजिब जांच-पड़ताल को मटियामेट करने में लगे हैं। अन्याय-अत्याचार की इस धुंधली तस्वीर में हमने इस अंक में कुछ दलित स्त्री लेखकों को मंच मुहैया किया है ताकि वे अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करें। बिहार का आसन्न चुनाव भी लोगों को आवाज बुलंद करने का मौका मुहैया कराता है। इसलिए इस बार हमारी आवरण कथा वही है।

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