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क्या हिंसक भीड़ का कोई धर्म होता है?

'आवारा भीड़ के खतरे' नामक शीर्षक के अपने निबंध में हिन्दी साहित्य जगत के मूर्धन्य निबंधकार हरिशंकर परसाई जी लिखते हैं, "दिशाहीन, बेकार, हताश, नकार वादी और विध्वंस वादी युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती। इसका उपयोग खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति या समूह कर सकते हैं। इसी भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी जैसे लोगों ने किया था।"
क्या हिंसक भीड़ का कोई धर्म होता है?

तल्हा मन्नान खान 

इस निबंध की प्रासंगिकता वर्तमान समय में और अधिक बढ़ जाती है। ऐसा समय, जब हम अपने देश में दिन-प्रतिदिन भीड़ द्वारा अंजाम दी जा रही हिंसक घटनाओं के गवाह बन रहे हैं। नफरत की भावना से भरी और कथित धर्म की ठेकेदार यह भीड़ आपको किसी भी संदेह की बुनियाद पर, कहीं भी घेर सकती है और फिर सबकुछ निष्क्रिय तथा बेबस- शासन-प्रशासन तंत्र से लेकर आम जनमानस तक सब खामोश मूकदर्शक।

हाल-फिलहाल यह सिलसिला पुणे में मोहसिन शेख और दादरी में अखलाक अहमद की हत्या से शुरू हुआ था जो पहलू खान और झारखंड में बच्चा चोरी की अफवाह के बाद मारे गए विकास, गौतम, गंगेश और नईम से होता हुआ वल्लभगढ़ के जुनैद, पश्चिम बंगाल के समीरूद्दीन, नसीरुद्दीन, नासिर और कश्मीर में डीएसपी अय्यूब की हत्या तक पहुंचा। कभी गौरक्षा के नाम पर, कभी गौमांस के शक में तो कभी धर्म विरोधी के नाम पर भीड़ द्वारा हत्याएं अब आम होती जा रही है। भारत जैसे सभ्य देश के लिए ऐसी घटनाएं शुभ संकेत नहीं हैं। धर्मान्धता और नफरत इन दिनों दिन परवान चढ़ रही है या चढ़ाई जा रही है, जिसके परिणामस्वरूप ऐसी घटनाएं हमारे सामने आ रही हैं।

मूकदर्शक लोग

सोशल मीडिया इत्यादि के माध्यम से अफवाह उड़ती है और देखते ही देखते एक भीड़ जमा होकर हिंसक रूप धारण कर लेती है। संविधान और कानून की धज्जियां उड़ाई जाती हैं और न्याय की भूखी भीड़ कथित रूप से स्वयं न्याय कर डालती है। अफसोस तब होता है जब आसपास खड़े लोग मूकदर्शक बने रहते हैं और शासन-प्रशासन तंत्र पूरी तरह विफल साबित हो जाता है। इतनी नृशंस हत्याओं को देखने के बावजूद हमारा मौन बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है। भीड़ एक व्यक्ति को पीट-पीटकर मौत के घाट उतार देती है और हम यह समझकर शांत खड़े रहते हैं कि वह हमारे धर्म की रक्षा कर रही है। लेकिन वास्तव में वह धर्म की रक्षा नहीं बल्कि धर्म के नाम पर हिंसा को बढ़ावा दे रही होती है।

भीड़ के निशाने पर धर्म?

यह कह देना कि इन सभी हत्याकांडों की पटकथा भाजपा द्वारा लिखी जा रही है, मेरे ख्याल से गलत होगा क्योंकि ऐसा नहीं है कि भाजपा के केंद्र में आने के बाद से ही इस तरह के मामले सामने आए हैं। हालांकि इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि भाजपा के सत्ता में आने के बाद से ऐसे मामलों में काफी तेजी आई है और तथाकथित धर्म रक्षकों के हौसले बुलंद हुए हैं। यहां यह बात भी याद रखने योग्य है कि वास्तव में अब यह हमले धर्म की लड़ाई से ऊपर उठे हैं जोकि इन घटनाओं से साबित भी हुआ है। बच्चा चोरी की अफवाह के बाद जो भीड़ नईम की हत्या करती है, उसी राज्य में एक अन्य जगह ऐसी ही अफवाह पर तीन हिंदू युवकों की जान भी ले लेती है। इसी तरह कश्मीर में एक मुस्लिम पुलिस अफसर पर संदेह के चलते, मुस्लिम समुदाय के लोगों की भीड़ उसकी जान ले लेती है। यह घटनाएं स्पष्ट करती हैं कि यह भीड़ अपने रास्ते में रोड़ा बनने वाले लोगों की एक ही तरह से हत्या करती है, भले ही मजलूम व्यक्ति उन्हीं के धर्म से हो।

सोशल मीडिया और अफवाह

दूसरी तरफ सोशल मीडिया भी इस तरह की भीड़ को साधने में काफी हद तक सहायक सिद्ध हुआ है। हाल ही की घटनाओं को देखें तो ज्ञात होता है कि अफवाह सबसे पहले सोशल मीडिया पर फैली और लोगों के भीतर रोष उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध हुई। भारत ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विद्वानों और लेखकों ने सोशल मीडिया के इस नकारात्मक पहलू पर मंथन किया है और वर्तमान समय में भी इस विषय पर बड़े पैमाने पर चिंता जताई जा रही है। सोशल मीडिया इस दौर में एक ऐसे टूल के रूप में कार्य कर रहा है जिससे साम्प्रदायिक ताकतें अपने हित साधने में और नफरत का माहौल परवाना चढ़ाने में खूब इस्तेमाल कर रही हैं।

अब समय की मांग यही है कि भारत की सभ्यता, संस्कृति और साम्प्रदायिक सौहार्द को बरकरार रखने के लिए आम जनमानस तक सोशल मीडिया का नकारात्मक पहलू भी रखा जाए। इस लोकतंत्र को भीड़तंत्र बनने से रोका जाए। समाज के लिए चिंता करने वाले लोगों के लिए अब जरूरी हो गया है कि वे अपनी जिम्मेदारी समझते हुए आगे आएं ताकि आने वाली पीढ़ी को एक सुरक्षित कल मिल सके।

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