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बिहार में सिर्फ छात्र नहीं समूची शिक्षा व्यवस्था फेल हुई

अगर बिहार और दूसरे राज्यों की सरकारें वास्तव में शिक्षा को लेकर गंभीर हैं तो सिर्फ दंडात्मक कार्यवाही और जबानी जमा खर्च से काम नहीं चलेगा। उन्हें सकारात्मक कदम भी उठाने होंगे।
बिहार में सिर्फ छात्र नहीं समूची शिक्षा व्यवस्था फेल हुई

पिछले वर्ष की तरह इस साल बिहार फिर इंटरमीडिएट परीक्षा परिणाम की वजह से चर्चा में हैं। कहा जा रहा है कि बिहार की शिक्षा व्यवस्था बिलकुल बर्बाद हो चुकी है। ऐसा इस आधार पर कहा जा रहा है क्योंकि जहां एक तरफ इस साल परीक्षा में शामिल होने आने वाले 64 प्रतिशत विद्यार्थी असफल रहे हैं, वहीँ दूसरी ओर टॉपर सवालों का जवाब देने में नाकाम रहे। इसे लेकर टीवी चैनल्स में लगातार बहसें हो रही हैं। लेकिन इन सब खबरों और बहसों में इसके मूल कारण क्या हैं, ऐसी स्थिति क्यों पैदा हुई, इस पर चर्चा न के बराबर हो रही है। जबकि यह चर्चा और इसके हल के उपाय तलाशने के लिए ज्यादा जरूरी है।

कथित टॉपर, इंटर- कॉलेज प्रशासन और अधिकारीयों को दण्डित करने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला। ये सब पिछले बार भी किया गया था। नतीजा रहा, ढ़ाक के तीन पात। गौरतलब है कि इसबार कुछ विद्यार्थी जो आईआईटी प्रेवश परीक्षा में सफल हुए थे वो भी इंटरमीडिएट परीक्षा में फेल हो गए! इसके दो कारण हो सकते है। पहला, परीक्षार्थी आईआईटी तैयारी में इतने तल्लीन रहे कि उन्होंने इंटर की तैयारी पर ध्यान ही नहीं दिया। दूसरा, यह कि वाकई जबरदस्त धांधली हुई है।

लेकिन यहां मैं ये भी जरूर कहना चाहूंगा कि यह हाल हमेशा नहीं था। वर्ष 2000 में जब मैंने बिहार के एक छोटे जिला सुपौल के एक सरकारी स्कूल से दसवीं की परीक्षा पास किया थी तो सूरत-ए-हाल इतना बुरा नहीं था। हमारे स्कूल में अच्छे अध्यापक थे, वो अच्छी तरह पढ़ाना जानते थे। यही वजह है कि बिना ट्यूशन-कोचिंग किए हुए भी, सिर्फ स्कूल की पढ़ाई के बल पर विद्यार्थी आसानी से दसवीं-बारहवीं पास कर लेते थे। पर आज मैं जब उन सरकारी संस्थानों को देखता हूं तो लगता है अब ऐसा मुमकिन नहीं है। इसकी वजह है कि आज इन संस्थानों में पढ़ाने वाले ढंग के शिक्षक नहीं हैं। फलस्वरूप, पढ़ने वालों का भी इन संस्थानों में जाना बंद हो गया है।

एक समय था जब विद्यार्थी भले मिडिल स्कूलिंग किसी प्राइवेट संस्थान से करता हो, उसे माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों का ही रूख करना पड़ता था। मैं खुद और मेरे सैकड़ों सफल मित्र इसका उदाहरण हैं। हाल के वर्षों में बिहार को लेकर एक तस्वीर बहुत चर्चा में रही जिसमे लड़कियां साइकिल पर स्कूल जाती दिखती हैं। बेशक, बड़ी संख्या में लड़कियों का स्कूल जाना एक क्रन्तिकारी परिवर्तन हो सकता है।

लेकिन, हमें तस्वीर का दूसरा पक्ष नहीं बताया गया। वो ये कि इन स्कूलों में योग्य शिक्षक नहीं हैं। स्कूलों को पारा- टीचर्स के हवाले कर दिया गया है, जो पढ़ाने के लिए किसी प्रकार से योग्य हैं और न ही उनको कोई ट्रेनिंग दी है। इसका एक पहलू ये भी है कि क्योंकि इन शिक्षकों का वेतन ट्रेंड टीचर्स से बहुत कम है इसकी वजह से वे पढाने के अलावा अपनी जिन्दगी चलाने लिए दूसरे काम भी करते हैं, जिसमे कोचिंग-ट्यूशन देने का काम भी शामिल है।  यही नहीं, शिक्षकों से पढ़ाने के अलावा बहुत सारे गैर-अकादमिक और प्रशासनिक काम करवाये जाते हैं।  फलस्वरूप, शिक्षकों के लिए स्कूल में पढ़ रहे विद्यार्थी उनकी प्राथमिकता नहीं रह पाते हैं। ऐसे में इस तरह का रिजल्ट देखकर हमें किसी तरह आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 

गौरतलब है कि ये मामला सिर्फ बिहार का ही नहीं है। उत्तर भारत के कई सारे राज्यों (जैसे उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश, आदि ) में इसी तरह की स्थितियां देखने को मिलती है। बल्कि, पारा- टीचर्स की बहाली के मामले में तो मध्य प्रदेश से ही शुरुआत हुई थी। इन राज्यों से भी बड़ी संख्या में विद्यार्थयों के असफल होने, परीक्षाओं और परिणाम में धांधली, आदि की खबरें लगातार आती रहती है। अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश का एक मामला प्रकाश में आया है जिसमे परीक्षार्थी के जेल में रहने के कारण परीक्षा में सम्मिलित न होने के बावजूद वो सेकेंड डिवीजन से उत्तीर्ण हो जाता है।  इसी तरह इस साल पंजाब में इंटरमीडियट परीक्षा में पिछले वर्ष से 15 % कम विद्यार्थी उत्तीर्ण हुए हैं। 

ऐसे में सवाल ये उठता है कि इसका हल क्या है? क्या इस स्थिति को सुधारा जा सकता है या इससे उबरना नामुमकिन है? इसका संक्षिप्त जवाब ये है कि ये एक लाइलाज बीमारी नहीं है बशर्ते कि सरकार इन हालत से सचमुच निकलना चाहती हो।  शिक्षा के क्षेत्र में पैसा लगाने के लिए तैयार हो। सरकारी स्कूलों और इंटरमीडिएट कालिजों को बुनयादी और आवश्यक सुविधाएं मुहैय्या करवाये। ये बातें मैं हवा में नहीं कह रहा हूं बल्कि उसका एक ठोस आधार है।

दिल्ली के सरकारी स्कूलों के परिणाम इसका जीता जगता उदहारण हैं। पिछले दो वर्षों में जहां एक तरफ दिल्ली के प्राइवेट स्कूलों से सफल होने वाले विद्यार्थियों में गिरावट आयी है वहीँ इस मामले में सरकारी स्कूलों का परिणाम बेहतर रहा है। पिछले साल की तरह इस साल भी सरकारी स्कूलों का रिजल्ट प्राइवेट स्कूलों से बेहतर रहा है। जहां सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले 88.27% विद्यार्थी सफल हुए हैं  वहीं, इस साल प्राइवेट स्कूलों का पासिंग पर्सेंटेज 79. 29 रहा है ।

शिक्षा के जानकर और ख़ुद सरकारी शिक्षकों का कहना है कि इसका एक मुख्य कारण ये है कि सरकार ने अपनी तरफ से मुलभूत सुविधाओं के रूप में आवश्यक सहयोग दिया है और शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कार्यों से मुक्त कर दिया है। विद्यार्थियों के विकास साथ-साथ शिक्षकों के विकास पर भी ज़ोर दिया जा रहा है। उन्हें बेहतर से बेहतर प्रशिक्षण दिया जा रहा है ताकि वो अच्छी तरह से पढ़ा सकें। कमजोर विद्यार्थियों के लिए अलग से कक्षाओं का भी प्रबंध किया गया है। यही वजह है कि सरकारी स्कूलों के परिणाम पर इन सब चीजों का असर साफ दिख रहा है।

अगर बिहार और दूसरे राज्यों की सरकारें वास्तव में शिक्षा को लेकर गंभीर हैं तो सिर्फ दंडात्मक कार्यवाही और जबानी जमा खर्च से काम नहीं चलेगा। उन्हें सकारात्मक कदम भी उठाने होंगे। तभी जाकर हर साल बिहार (और दूसरे राज्य) अपने बुरे परिणाम और धांधली के लिए नहीं अपने बेहतर शिक्षा व्यवस्था के लिए जाना जा सकेगा।  

(महताब आलम स्वतंत्र पत्रकार और लेखक हैं। पहले एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया से भी जुड़े रहे हैं।)

 

 

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