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जेएनयू-डीयू में एबीवीपी की हार और नोटा की कामयाबी के मायने

-अजीत ‌सिंह जेएनयू और डीयू आम विश्वविद्यालय नहीं हैं। एक में मुट्ठीभर छात्र पढ़ते हैं लेकिन पूरे...
जेएनयू-डीयू में एबीवीपी की हार और नोटा की कामयाबी के मायने

-अजीत ‌सिंह

जेएनयू और डीयू आम विश्वविद्यालय नहीं हैं। एक में मुट्ठीभर छात्र पढ़ते हैं लेकिन पूरे भारत की झलक दिखती है। दूसरा वाकई विश्व का विद्यालय है। पूरी दिल्ली में फैले 80 से ज्यादा कॉलेज-कैंपस और सवा लाख से ज्यादा छात्र किसी विधानसभा से कम नहीं हैं।

दिल्ली में तमाम दूसरे विश्वविद्यालय भी हैं लेकिन छात्रसंघ चुनावों के मामले में जेएनयू और डीयू पर ही पूरे देश की नजर रहती है। इस साल जेएनयू और डीयू के छात्रसंघ चुनावों में एबीवीपी को कामयाबी नहीं मिली। जेएनयू में वामपंथी संगठनों का दबदबा कायम रहा तो डीयू में चार साल बाद कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई ने वापसी की है। पिछले चार साल से अध्यक्ष पद जीतती आ रही एबीवीपी को इस बार सचिव और संयुक्त सचिव पद से ही संतोष करना पड़ा।

जिस समय पूरे देश में भगवा लहर चल रही है, जेएनयू-डीयू में उग्र राष्ट्रवाद और हिंदुत्ववादी विचारधारा का झंड़ा उठाने वालों की हार मायने रखती है। लेकिन इतनी भी मायने नहीं रखती कि कांग्रेस के छोटे-बड़े सभी नेता खुशी के मारे झूमने लगें और इस जीत को राहुल गांधी के अमेरिका में दिए भाषण का नतीजा बताते हुए चापलूसी की होड़ में जुट जाएं। कांग्रेस के नेता डीयू की जीत को मोदी सरकार और भाजपा से युवाओं के मोहभंग का संकेत बताते नहीं थक रहे हैं। 

 

विकल्पहीनता या उदासीनता 

बेशक, कई साल बाद डीयू में एनएसयूआई ने अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद जीतकर शानदार वापसी की और संयुक्त सचिव पद भी दोबारा गिनती के बाद मामूली अंतर से हारे, लेकिन है तो ये आखिर में छात्रसंघ चुनाव ही। पूरी पार्टी को जोश में आने की जरूरत नहीं थी। फिर भी जेएनयू और डीयू में ऐसा कुछ जरूर हुआ है जो राजनीतिक दलों के लिए चिंता का विषय है। देश में नई-पुरानी राजनैतिक विचारधाराओं और दलों को अब नोटा कड़ी टक्कर दे रहा है। मौजूदा सियासी माहौल से मोहभंग की ऐसी झलक देश के सबसे नामचीन विश्वविद्यालयों में दिखाई दी है।

नोटा यानी “इनमें से कोई नहीं” के विकल्प को जेएनयू और डीयू में जमकर वोट पड़े। डीयू में अध्यक्ष पद पर 5162, उपाध्यक्ष पद पर 7684 और सचिव पद पर 7891 छात्रों ने नोटा को चुना। संयुक्त सचिव पद पर तो नोटा के पक्ष में 9028 वोट पड़े। मतलब, जीतने वाले उम्मीदवार को 16256 वोट मिले तो 9 हजार से ज्यादा छात्रों ने नोटा को अपनी पसंद बनाया। विकल्पहीनता के ऐसे उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं। डीयू छात्रसंघ के चारों पदों पर 29 हजार से ज्यादा छात्रों ने किसी भी उम्मीदवार के बजाय नोटा को तरजीह दी।

इससे पहले जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में एनएसयूआई को नोटा से भी कम वोट मिलने का खूब मजाक बना था। वहां सेंट्रल पैनल के लिए एनएसयूआई के चारों उम्मीदवारों को कुल 728 वोट मिले थे, जबकि नोटा के खाते में 1512 वोट आए। जेएनयू में कामयाबी का परचम पहराने वाले वामपंथी छात्र संगठनों को डीयू में नोटा ने मात दे दी। हालांकि, डीयू में आइसा ने जनाधार बढ़ाया लेकिन अध्यक्ष पद पर इसकी उम्मीदवार पारुल चौहान 4895 वोट पाकर चौथे नंबर पर रहीं, क्योंकि 5162 वोट नोटा को चले गए। इसी तरह उपाध्यक्ष पद पर एबीवीपी के पार्थ राणा सिर्फ 175 वोटों से हारे जबकि 7684 छात्रों ने नोटा को चुना। यानी एबीवीपी हो या एनएसयूआई या फिर आइसा, नोटा ने सबको चोट की।  

 

माना जा रहा है कि डीयू में नोटा को गए हजारों मतों में से बड़ा हिस्सा आम आदमी पार्टी की छात्र इकाई सीवाईएसएस का है, जिसने सेंट्रल पैनल के चुनाव में अपने उम्मीदवार नहीं उतारे। पिछले साल सीवाईएसएस ने अपने समर्थकों से नोटा का इस्तेमाल करने की अपील की थी। इसलिए इस साल नोटा को गए वोटों में भी सीवाईएसएस समर्थकों का बड़ा हिस्सा हो सकता है। फिर भी नोटा को मिले भारी समर्थन से इतना जरूर जाहिर है कि देश के सबसे प्रखर नौजवान छात्रों में मौजूदा राजनीतिक विकल्पों से मोहभंग दिखाई पड़ रहा है।

 

हार की जिम्मेदारी किसकी? 

बड़ा सवाल यह है कि जेएनयू-डीयू के नतीजों को किससे जोड़ा जाए। साल 2013 में यूपीए की विदाई से पहले ही जब डीयू की चारों सीटों पर एबीवीपी की जीत हुई थी तब इसे मोदी लहर का प्रभाव बताया गया था। अब एनएसयूआई की जीत के पीछे कांग्रेसी नेता राहुल गांधी के अमेरिका में दिए भाषण का इंपैक्‍ट समझा रहे हैं। जब जीत में श्रेय लिए जाते हैं तो हार का ठींकरा किस पर फूटेगा? खैर, जेएनयू-डीयू में ABVP की नाकामी को भाजपा या पीएम मोदी से जोड़कर न भी देखें तो एक बात साफ है कि न्यू इंडिया में राष्ट्र और धर्म के नाम पर गुंडागर्दी की कोई जगह नहीं है। 

चुनाव से पहले मिरांडा हाउस में जिस तरह ‘एबीवीपी नहीं चाहिए’ की आवाजें उठीं और वीडियो वायरल हुए। उससे डीयू के मूड का अंदाजा होने लगा था। रामजस कॉलेज में एक सेमिनार को लेकर जो हंगामा खड़ा हुआ, उसका नुकसान भी एबीवीपी को उठाना पड़ा। छात्रों और शिक्षकों के साथ मारपीट के विवाद में एबीवीपी और इसके नेताओं की छवि खराब हुई। वैसे, छवि एनएसयूआई के छात्र नेताओं की भी डीयू में बहुत अच्छी नहीं है। लेकिन वे कम से कम संस्कृति और देशभक्ति जैसे मुद्दों को लेकर हमलावर नहीं होते। बल्कि उल्टे चुनावों के दौरान छात्रों की मौज-मस्ती का इंतजाम करते हैं।

 

ऐसे हारी एबीवीपी 

लिंगदोह कमेटी की सिफारिशें लागू होने के बाद पानी की तरह पैसा बहना कुछ कम जरूर हुआ है लेकिन धनबल-बाहुबल के प्रयाोग से इनकार नहीं ‌किया जा सकता। इसमें धनबल का काफी इस्तेमाल अब भी होता है। संभव है ‘नोटा’ को चुनने वाले हजारों छात्र इसी सब से ऊब गए हों। चुनाव से पहले खबर आई थी कि एबीवीपी के नेतृत्व वाले डीयू छात्रसंघ ने चाय-नाश्ते पर काफी बजट निपटा दिया। इससे भी छात्रों में नाराजगी बढ़ी। रही सही कसर कन्हैया कुमार, गुरमेहर कौर, शेहला राशिद और कंवलप्रीत कौर ने पूरी कर दी। इन्होंने एबीवीपी के राजनीतिक तौर-तरीकों का जमकर मुकाबला किया। इससे भी माहौल बदला, जिसका फायदा एनएसयूआई को मिला है। डीयू में एबीवीपी के खिलाफ बने माहौल को एनएसयूआई ने बखूबी भुनाया। सीवाईएसएस का उम्मीदवार न उतारना भी काम आया। 

हालांकि, एबीवीपी के पास अपनी असफलता के अपने तर्क हैं। उसके नेता जेएनयू में वे दूसरे नंबर पर आकर खुश हैं तो डीयू में डमी उम्मीदवारों और विपक्षी संगठनों की एकजुटता पर ठींकरा फोड़ रहे हैं। डूसू में हार से एबीवीपी के एजेंडे, गतिविधियों और तौर-तरीकों पर शायद ही कोई फर्क पड़े। जो उन्होंने रामजस में किया, वो आगे नहीं करेंगे, ऐसा मानने की कोई वजह नहीं है। डीयू छात्रसंघ की हार-जीत अपनी जगह है और कैंपस में एबीवीपी की पकड़ अपनी जगह। 

ऐसे जीतती है एनएसयूआई 

डूसू नतीजों का विश्लेषण करते हुए एक बात समझनी जरूरी है। इस चुनाव को दिल्ली के आसपास की जाट और गुर्जर लॉबी नियंत्रित करती है। चुनाव लड़ने-लड़वाने का अपना पूरा सियासी गणित है जिससे आम छात्रों को खास मतलब नहीं होता। आप दिल्ली से गुजरिए चौधरी, अवाना, यादव, गुर्जर जैसे नामों से रंगे पोस्टर दिख जाएंगे।  

एनएसयूआई की जीत के बाद दीपेंद्र हुड्डा सोनिया गांधी से मिलते यूं ही नजर नहीं आते। डूसू अध्यक्ष बने रॉकी तुसीद के पिता जी भूपेंद्र हुड्डा को धन्यवाद यूं ही नहीं देते। यही डूसू की राजनीति है। जिसके ज्यादातर सूत्र एबीवीपी ने भी पकड़ लिए हैं। ऊपर से उनका अपना एजेंडा और संगठन है ही।   

डीयू के ज्यादातर कॉलेजों में एनएसयूआई का संगठन खास मजबूत नहीं है। फिर भी डूसू चुनावों में उसका दबदबा रहता है। इसके पीछे जातीय समीकरणों और कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की भी बड़ी भूमिका है। रॉकी तुसीद का चुनाव लड़ पाना असंभव था अगर पी. चिदंबरम के जरिए उन्हें तुरंत कानूनी सहायता न मिलती। डीयू के कॉलेज पैनलों के साथ गठजोड़ कर वोट जुटाने में एनएसयूआई को महारत हासिल है। यहां धनबल-बाहुबल और जातीय गठजोड़ काम आता है। इसलिए जो लोग एबीवीपी की हार और एनएसयूआई की जीत में बदलाव की बयार महसूस कर रहे हैं, उन्हें थोड़ा संभलना चाहिए। जाहिर है कांग्रेस के जो नेता डीयू चुनाव से वाकिफ नहीं हैं, वे ही सबसे ज्यादा खुश हो रहे हैं। 

 

 

 

 

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