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कोई लौटा दे मेरे....

  पांच जनवरी की शाम को जेएनयू में जो हुआ, वह अप्रत्याशित था। डंडे, स्टील रॉड और पत्थरों से लैस एबीवीपी...
कोई लौटा दे मेरे....

पांच जनवरी की शाम को जेएनयू में जो हुआ, वह अप्रत्याशित था। डंडे, स्टील रॉड और पत्थरों से लैस एबीवीपी और उससे जुड़े गुंडे कैंपस में घुसे और ‌फैकल्टी सदस्यों सहित हर किसी को चुन-चुनकर निशाना बनाया, जो उनकी विचारधारा से वास्ता नहीं रखते हैं। उनके निशाने पर तो सबसे ज्यादा जेएनयू स्टूडेंट यूनियन की अध्यक्ष ओइशी घोष थी। टीवी पर उनका खून से लथपथ चेहरा देखकर कोई भी हिल उठता। इससे भी ज्यादा हैरतनाक तो यह था कि जेएनयू गेट पर पुलिस भारी तादाद में मौजूद थी लेकिन वह मूक दर्शक बनी रही। शायद उनके पास बहाना था कि यूनिवर्सिटी अधिकारियों ने अंदर जाने की इजाजत नहीं दी। लाजवाब, क्या मासूम दलील है! कुछ ही दिनों पहले तो पुलिस जामिया मि‌ल्लिया इस्लामिया में बिना इजाजत घुस गई थी और लाइब्रेरी में भारी तोड़फोड़ की और अनेक छात्रों से मारपीट की। अगर पुलिस को संदेह का लाभ भी दें तो यू‌निवर्सिटी प्रशासन की हरकतें तो किसी भी तरह माफी के लायक नहीं हैं। वह तो घटना होने के करीब दो-ढाई घंटे बाद हल्की हरकत में आया। इस दौरान गुंडे हॉस्टलों में घूम-घूम कर पहले से चिह्नित लोगों को निशाना बनाते रहे। जब उनका मिशन पूरा हो गया, तब दिल्ली पुलिस ने ऐलान किया कि माहौल शांत है, हालांकि एक भी हमलावर पकड़ा नहीं गया। शाबाश! दिल्ली पुलिस तो वाकई अपने शानदार पेशेवर रवैए के लिए बहादुरी के पुरस्कार की हकदार है।

जेएनयू की स्थापना 1969 में प्रमुख शोध विश्वविद्यालय के तौर पर की गई थी और उसका उद्देश्य न सिर्फ विश्व स्तरीय शिक्षण केंद्र बनना, बल्कि राष्ट्रवादी आंदोलन की भावना को मजबूत करना है, जिसके केंद्र में धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय हो। मैं उन भाग्यशाली लोगों में हूं, जो 1971 में इस विराट सपने का हिस्सा बने। मैंने बिहार के भागलपुर से आकर स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में शुरू हुए एम. फिल प्रोग्राम के पहले बैच में ज्वाइन किया। बाद के वर्षों में नए विभाग जुड़े और ज्यादा छात्रों ने दाखिला लिया। आखिरकार, लोकतंत्र में छात्र-अध्यापक के बिगड़ते अनुपात को लेकर आलोचनाओं से बच पाना मुश्किल होता है। इसके अलावा, जेएनयू की इस बात के लिए प्रायः आलोचना होती है कि यूजीसी, सीएसआइआर, आइसीएमआर, आइसीएसएसआर, आइसीएचआर जैसे संगठनों की अधिकांश फेलोशिप जेएनयू छात्रों और फैकल्टी को ही मिलती हैं क्योंकि यह प्रतिष्ठित मानी जाती है और देश की राजधानी में स्थित है। सच्चाई से इसका दूर-दूर का नाता नहीं है।

यकीनन, जेएनयू दिल्ली में भले है लेकिन इसका नाता पूरे देश से है। इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च (आइसीएसएसआर) में मेरे कई साल के कार्यकाल में मैंने आइसीएसएसआर से अनुदान प्राप्त करने वालों की पृष्ठभूमि जांचने का प्रयास किया। जेएनयू के बारे में नतीजे चौंकाने वाले थे। अधिकांश लोग कथित कम विकसित राज्यों से थे, जैसे हिंदी भाषी राज्यों, या ओडिशा या ऐसे ही किसी अन्य राज्य से थे। इनमें शायद ही कोई दिल्ली या किसी अन्य प्रमुख महानगर से था। वास्तव में यह कोई अप्रत्याशित नहीं था। जेएनयू फैकल्टी और स्टूडेंट्स यूनियन सामाजिक न्याय के लिए लगातार प्रयास करती रहती है। इन्हीं प्रयासों के चलते जेएनयू ने एससी/एसटी और ओबीसी छात्रों के लिए सरकार के मान्य वेटेज से आगे जाकर पिछड़े इलाकों के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को भी वेटेज दिया। इसे हाल में ही शामिल किया गया है। इन वेटेज प्वाइंट की गणना करना कठिन काम है, लेकिन प्रशासनिक स्टाफ की मदद से इन मुश्किलों को दूर कर लिया गया है। अध्यापक-छात्र-कर्मचारी सहयोग जेएनयू की खास परंपरा है।

यह देखकर मुझे दुख होता है कि हाल के वर्षों में सहयोग की भावना नष्ट हो गई है। यह जानकर और निराशा होती है कि बर्बाद करने का यह खेल कथित तौर पर यूनिवर्सिटी को बुरे विचारों से निजात दिलाने के नाम पर शीर्ष स्तर से राजनैतिक निर्देशों से किया जा रहा है। इन कथित बुरे विचारों को ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’, ‘अर्बन नक्सल’ और ‘राष्ट्रविरोधी’ के तौर पर प्रचारित किया जाता है।

अगर मैं आज छात्र होता तो मैं सोचता कि सत्ताधारी राजनैतिक तंत्र मुझे इस तरह कैसे बता सकता है। सत्तर के दशक के शुरू में, जब एसएफआइ जेएनयू में अपने बीज बो रही थी, मैं फ्री-थिंकर्स की टोली में उसके सबसे मुखर आलोचकों में था।

एसएफआइ वाले हमें 'विचारों से मुक्त' कहकर हमारा मजाक उड़ाया करते थे। वे कहा करते थे कि हमारे विचारों में गहराई नहीं है। लेकिन इस मजाक से इतर, हमारी असहमति वास्तव में बौद्धिक थी। फ्री-थिंकर्स में मध्यमार्गी, अति उदारवादी और एसएफआइ के असंतुष्ट लोग शामिल थे। चुनावों में खूब बहस और चर्चाएं होती थीं, यह दिमागी समर बन जाता था। आखिरकार, जेएनयू के छात्र बेवकूफ नहीं हैं कि वे एक-दूसरे वाद के फेर में पड़ जाएं। इसलिए, उन्हें सरकार समर्थित गुंडों से धमकाया जा सकता है, यह सोचना भारी भूल है।

पुनश्चः जेएनयू में मेरे पहले महीने (अगस्त 1971) में मैं एसएफआइ के प्रकाश करात और उनके कट्टर आलोचक तथा भावी फ्री-थिंकर एम. मुत्तुस्वामी के बीच हुई तीखी बहस के दौरान मौजूद था। दोनों ने एक-दूसरे पर जोरदार वैचारिक हमले किए। इसके बावजूद बहस में ब्रेक के समय मुत्तुस्वामी ने प्रकाश को सिगरेट ऑफर की, दोनों ने खुलकर हंस-हंसकर बातचीत की। मेरी ही तरह हिंदी भाषी लखनऊ का राधाकृष्ण शर्मा मेरे कान में फुसफुसाया, उसकी आवाज में भावनाओं का प्रवाह था, “ये यूनिवर्सिटी तो बड़ा हटके है यार, मैं तो सोच रहा था कि असली मुद्दा तो अब बाहर आके तय होगा-छुरी-चाकू से।” अगर भारत सिर्फ राष्ट्र नहीं बल्कि विचार है तो जेएनयू इस विचार का जीता-जागता अवतार है। हमें इसे संजोकर रखने की आवश्यकता है।

(लेखक जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के रिटायर प्रोफेसर और इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के सीनियर फेलो हैं। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

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