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संकटग्रस्त पाकिस्तान में न्यायपालिका की निडरता

वैसे तो पाक पहले ही समस्याओं से घिरा है लेकिन हाल की घटनाओं से स्थिति ज्यादा विकट पाकिस्तान के सेना...
संकटग्रस्त पाकिस्तान में न्यायपालिका की निडरता

वैसे तो पाक पहले ही समस्याओं से घिरा है लेकिन हाल की घटनाओं से स्थिति ज्यादा विकट

पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा का कार्यकाल विस्तार तीन साल से घटाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जनरल बाजवा और प्रधानमंत्री इमरान खान को फिलहाल कुछ राहत मिल सकती है लेकिन मुख्य न्यायाधीश आसिफ सईद खान खोसा ने अपने ऐतिहासिक फैसले ने स्पष्ट कर दिया है कि न्यायपालिका का अभी भी स्वतंत्र है और सेना प्रमुख का कार्यकाल बढ़ाने के किसी भी प्रशासनिक आदेश के लिए विधायी समर्थन अथवा संसद से औपचारिक मंजूरी आवश्यक है।

यह राज्य और राजनीतिक दलों के लिए संकेत है कि पाकिस्तान में न्यायपालिका है जो सक्रिय और चुस्त है। यह सराहनीय है कि सेना किसी अन्य के नहीं बल्कि न्यायपालिका के अधीन है। इससे आम पाकिस्तानियों के मन में न्यायपालिका के लिए भरोसा बढ़ा है।

बीते 28 नवंबर के फैसले का संदेश प्रबल और स्पष्ट है और निर्णय पर थोड़ा बारीकी से गौर करने पर यह तथ्य स्थापित होता है कि चीफ जस्टिस खोसा निडर हैं और उन्होंने जो स्पष्ट मत दिया है, वह संभवतः सेना को भी सावधान करने वाला है। यह संकेत देने का श्रेय सुप्रीम कोर्ट की बेंच को जाता है। बेंच ने इतिहास के उन पिछले उदाहरणों को नजरंदाज करते हुए ताकतवर सेना से टक्कर लेने की हिम्मत दिखाई, जब सर्वशक्तिमान खाकी बंदूक और तख्तापलट के बल पर शक्तियां हासिल करके सभी संस्थानों से ऊपर हो गई थी। पाकिस्तान में ऐसे उदाहरणों की कोई कमी नहीं है।

चीफ जस्टिस ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाते वक्त सेना और सरकार को पूरी निर्भीकता से फटकार लगाई कि जब भी न्यायपालिका ने फैसलों की विवेचना करने और विधिक प्रक्रिया की जांच करने का प्रयास किया, तो उस पर विदेशी जासूसी एजेंसियों खासकर सीआइए का एजेंट होेने के आरोप लगाए गए। इसी मौके पर चीफ जस्टिस ने जनरल बाजवा को विधिक परामर्श करने के लिए बाहर जाने की अनुमति देने पर पाकिस्तान के अटॉर्नी जनरल अनवर मसूर खान की लापरवाही के लिए खिंचाई की। चीफ जस्टिस का कहना था कि सेना प्रमुख का कर्तव्य सीमाओं की सुरक्षा के लिए तैयारी रखना है। उन्हें कानूनी मामलों पर विधिक परामर्श में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए।

जब अटॉर्नी जनरल ने अदालत को बताया कि न्यायपालिका और सेना के बीच मौजूदा टकराव से भारत को फायदा मिल रहा है तो चीफ जस्टिस ने यह कहकर उन्हें चुप करा दिया कि क्या अदालत को यह सवाल करने का भी अधिकार नहीं है। अस्थिर राजनीतिक स्थितियेम के बीच इस तरह के सख्त सवालों से अदालत के रुख से पाकिस्तान ऐसी मुश्किलों से घिरता दिख रहा है जो पहले कभी नहीं दिखाई दी थीं।

प्रमुख समाचारपत्र डेली डॉन ने अपने ताजा संपादकीय में अदालत के फैसले पर कहा है कि इससे किसी एक व्यक्ति के बजाय संस्थाओं को बचाने के लिए फैसला करके अपनी छवि सुधारने का पाकिस्तान के लिए अच्छा अवसर मिला है। अदालत का यह फैसला प्रधानमंत्री इमरान खान और उनकी सरकार को शर्मसार करने वाला है क्योंकि कश्मीर और उससे जुड़े घटनाक्रम का बहाना बनाकर इमरान खान ने जनरल बाजवा का कार्यकाल तीन साल बढ़ाने की अनुमति देने के लिए पहल की थी। आमतौर पर माना जाता है कि इमरान खान को सत्ता में लाने के लिए जनरल बाजवा और उनके गुर्गे जिम्मेदार हैं, इसलिए घरेलू समस्याओं जैसे मौलाना फजलुर्रहमान के मार्च, भारत-पाक सीमा पर खुद के द्वारा पैदा किए गए तनाव, राजनीतिक विरोधियों को जेल में डालने और विपक्ष से निपटने के लिए सेना और इमरान के बीच सांठगांठ है। लेकिन ताजा घटनाक्रम से मौजूदा सरकारी तंत्र को भारी झटका लगा है।

जैसे ही अदालत का फैसला सुनाया गया, पाकिस्तान में एक और बड़ी घटना सामने आई। छात्रों ने 29 नवंबर को जोरदार विरोध प्रदर्शन किया। जिस संख्या में छात्रों ने प्रदर्शन किया, उसे नजरंदाज कतई नहीं किया जा सकता है। स्पष्ट है कि छात्र भी अपनी आवाज उठा रहे हैं और संभवतः उन्हें अपनी उपस्थिति दर्ज कराने और ध्यान खींचने के लिए यह सबसे उपयुक्त अवसर मिल गया।

छात्र एकता दिखाने के लिए किए गए मार्च के दौरान छात्र तख्तियां लिए हुए थे और ज्यादा अधिकार और राजनीतिक संवाद के साथ बेहतर शैक्षणिक माहौल की मांग कर रहे थे।

छात्रों ने स्टूडेंट्स यूनियनों पर लगी प्रतिबंध हटाने, छात्र चुनाव कराने, नीति निर्धारण में भागीदारी, बजट और िवश्वविद्यालयों के ऑडिट आदि की मांगें उठाईं। इसके अलावा छात्रों ने कैंपस में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, यौन उत्पीड़न पर विभिन्न समितियों में छात्रों के प्रतिनिधित्व की भी मांग की है। उनकी महत्वपूर्ण मांगें यह भी हैं कि शिक्षण संस्थानों का निजीकरण रोका जाए और ट्यूशन फीस में की गई वृद्धि वापस ली जाए।

इसके अतिरिक्त छात्र चाहते हैं कि सभी को मुफ्त शिक्षा के लिए संविधान का अनुच्छेद 25 लागू किया जाए और देश के जीडीपी का पांच फीसदी प्राइमरी एवं हायर सैकेंडरी शिक्षा और एक फीसदी उच्च शिक्षा पर खर्च किया जाए। छात्रों द्वारा उठाए गए मुद्दों में भाषा, समुदाय, लिंग और धर्म के आधार पर शिक्षा में भेदभाव खत्म करने पर जोर देना भी शामिल है।

छात्रों ने अपनी एकता दिखाने के साथ जो मांगें उठाई हैं, उन पर समग्र रूप से देखें तो संकेत मिलता है कि वे व्यापक और प्रगतिवादी सोच रखते हैं और उसी के अनुरूप मांगें उठाई हैं। अगर उनकी मांगों पर ऐसे ही जोर दिया गया तो इमरान सरकार और ज्यादा दबाव में आ सकती है, जबकि सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के प्रभाव से उबरने का प्रयास कर रही है। इमरान खान सेना प्रमुखों के कार्यकाल पर फैसले के लिए संसद को आगे लाने का प्रयास कर रहे हैं। इन घटनाओं से निश्चित ही सरकार के लिए मुश्किलें और बढ़ सकती हैं और ऐसे में किसी अनहोनी घटना के जरिये इतिहास को दोहराने का प्रयास किया जा सकता है। पाकिस्तान का इतिहास विश्वासघात, फांसी और देश निकाले जैसे घटनाओं से भरा पड़ा है। हालांकि पश्चिमी ताकतों खासकर अमेरिका की सतर्क िनगाहों के बीच सेना को किसी भी दुस्साहसपूर्ण कदम से पहले दो बार सोचना होगा। आज पाकिस्तान के आम लोग और युवा सेना के बार-बार दखल से उकता चुके हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि सेना की किसी भी साजिश को विफल करने के ये हालात अवरोध का काम करेंगे।

(लेखक रक्षा विश्लेषक और मॉरीशस के प्रधानमंत्री के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं। व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

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