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9/11 की यादें और विवेकानंद का संदेश

शिकागो का 1893 में हुआ यह कार्यक्रम सिर्फ एक धर्म-संसद नहीं था। दरअसल कोलम्बस द्वारा अमेरिका की खोज के 400 साल पूरे होने का जश्न था। महज धार्मिक विद्वानों का सम्मलेन न होकर यह एक प्रकार से ज्ञान-विज्ञान का कुम्भ था।
9/11 की यादें और विवेकानंद का संदेश

- अनुपम

जब भी आप 9/11 सुनते हैं, आपके मन में सबसे पहले क्या आता है? जी हां, हम में से ज्यादातर लोग 9/11 को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले से जोड़कर याद करते हैं। यह तारीख विश्व इतिहास में आतंकवाद का एक दुःखद प्रतीक बन गई है। यह तारीख आतंकवाद का विश्वपटल पर सबसे गम्भीर मुद्दे के रूप में उभरने का परिचय बन गई है। लेकिन आज मैं आपका ध्यान जिस विश्व-स्तरीय घटना की तरफ आकृष्ट करना चाहता हूं, वो है भारत के आध्यात्मिक विरासत और हिन्दू धर्म के योग वेदांत परंपरा का विश्व से परिचय।

आप सोच रहे होंगे इसका 9/11 से क्या संबंध! दरअसल वह ऐतिहासिक दिन भी 9/11 (11 सितंबर) ही था जब एक भारतीय युवा ने अमरीकी शहर शिकागो में हुए 1893 के विश्व धर्म संसद में हिन्दू धर्म और भारतीय उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक विरासत को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। ये वो दिन था जब भारतीय आध्यत्मिक परम्परा का उदय दुनिया भर के लोगों में हुआ और हिन्दू धर्म का "वसुधैव कुटुम्कम" का सन्देश वसुधा पर छा गया। काश 9/11 की वैश्विक पहचान आतंक और नफ़रत का काला-दिन की बजाए, स्वामी विवेकानंद के भाईचारे के संदेश के रूप में हो।

नरेंद्र नाथ दत्ता, जो आगे चलकर स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने गए, की पहचान ब्रिटिश भारत में अंग्रेजी स्कूल से पढ़े लिखे एक सन्यासी के रूप में थी। उस दौर के समाज के नायकों पर विवेकानन्द का प्रभाव गहरा हुआ। उस दौर की बात करें तो महात्मा गांधी उन दिनों एक युवा थे जो बैरिस्टर बनने का सपना पूरा करने निकले हुए थे। उदारवादी कुशल प्रशासक लार्ड डफरिन भारत के वॉयसराय था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस धीरे धीरे ब्रिटिश शासन के लिए ख़तरे पैदा कर रही थी। नेहरू का बचपन आनंद भवन के आँगन में किलकारियां ले रहा था। लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में स्वदेशी आंदोलन अपनी जड़ें जमा रहा था। प्रो. जगदीश चंद्र बोस पौधे पर उद्दीपन की प्रतिक्रिया पर काम कर रहे थे। रविंद्र नाथ टैगोर अपनी रचनात्मकता के चरम पर थे। ये उन मनीषियों में शुमार हैं जिनका भारत के सामाजिक जीवन में सबसे गहरा असर रहा। इनके जरिये विवेकानंद के दौर के भारतीय समाज और राजनीति को समझा जा सकता है।

विवेकानंद का असर उस दौर के लगभग सभी बौद्धिक चिंतकों पर हुआ। सन 1888 में सन्यास ग्रहण करने के बाद स्वामी विवेकानंद बिना किसी साधन सुविधा के भारत के कोने-कोने की यात्रा पर निकल गए। उनके सहयात्री के रूप में सिर्फ़ एक कमंडल, भगवद् गीता और "इमिटेशन ऑफ क्राइस्ट" रहे। यात्रा का अधिकांश हिस्सा उन्होंने पैदल चलकर किया। और कभी कभी अनुयायियों द्वारा ट्रेन टिकट के बंदोबस्त कर देने पर रेल से भी सफर किया। सुदूरवर्ती हिमालय, दक्कन से लेकर गंगा के मैदानी भूभागों के भ्रमण के बाद विवेकानंद ने कन्याकुमारी के दक्षिण छोर पर पहुंचकर अपनी यात्रा का समापन किया। यहां पहुंचकर स्वामी विवेकानंद ने जिस स्थल पर ध्यान किया, उस दक्षिणतम बिंदु को आज विवेकानंद रॉक मेमोरियल के नाम से जाना जाता है। यात्रा करते हुए विवेकानंद ने अपने अनुभवों और वैचारिक मंथन से निष्कर्ष निकाला कि एक राष्ट्र के रूप में भारत ने अपनी पहचान धूमिल कर ली है। उस दौर में एक भिक्षु द्वारा राष्ट्र राज्य की व्याख्या किया जाना एक असाधारण बात थी।

शिकागो के सर्व धर्म संसद में भी भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा विवेकानंद के भाषण की एक विशिष्टता थी। यद्यपि वहां अलग-अलग संप्रदाय, पंथ के नुमाइंदे मौजूद थे पर विवेकानंद को छोड़ किसी ने भी एक डेमोग्राफी की बात नहीं की। इन सबके बीच मुझे इस बात पर गर्व होता है कि हिन्दू धर्म की बात करने के अलावा, उन्होंने शिकागो के संसद में एक राष्ट्र के रूप में भारत की आवाज़ को भी बुलंद किया। विवेकानंद ने एक ऐसे समय में भारत का प्रतिनिधित्व किया जब एकीकृत राष्ट्र की अवधारणा अभी भी ठोस आकार ले ही रही थी।

शिकागो का 1893 में हुआ यह कार्यक्रम सिर्फ एक धर्म-संसद नहीं था। दरअसल कोलम्बस द्वारा अमेरिका की खोज के 400 साल पूरे होने का जश्न था। महज धार्मिक विद्वानों का सम्मलेन न होकर यह एक प्रकार से ज्ञान-विज्ञान का कुम्भ था। इसका उद्देश्य नये-नये खोज आविष्कारों के जरिए मानव द्वारा की गयी प्रगति को प्रदर्शित करना था। इस अंतरराष्ट्रीय मेले का मुख्य आकर्षण बिजली का बल्ब, फेरिस व्हील आदि थे। हेनरी फोर्ड ने इंजन के द्वारा पहली बार घोड़ा गाड़ी से घोड़े की आवश्यकता को ख़त्म कर दी। आधुनिक कार अब मानव प्रगति के हमसफ़र थे। इस विश्व धर्म संसद में दुनिया के तमाम धर्मों, सम्प्रदायों, पंथों के प्रतिनिधि शिरक़त कर रहे थे। धर्मशास्त्र के विद्वानों को भी बुलाया गया था।

विवेकानंद बिना किसी औपचारिक निमंत्रण के, सिर्फ अनुयायियों के अनुरोध पर वहां पहुंचे थे। यहां पहुंचकर उन्हें पता चला कि केवल जाने माने लोगों को ही संसद में प्रवेश की अनुमति है। इसके बाद स्वामी जी की मुलाकात हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन हेनरी से हुई, जिन्होंने इस भिक्षुक से कहा आपसे पहचान के लिए पूछना सूरज से उसके चमक के बारे पूछने जैसा है। इसके बाद प्रोफेसर हेनरी ने संसद के आयोजक को पत्र लिखकर स्वामी विवेकानंद के प्रवेश की अनुशंसा की। इस प्रकार एक असाधारण प्रतिभा के धनी स्वामी जी को धर्म संसद में प्रवेश करने और हिन्दू धर्म को प्रस्तुत करने अवसर मिला। आगे की घटना इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज़ है।

विवेकानंद न सिर्फ हिंदू धर्म के प्रतिनिधि थे, बल्कि मानवता के योग्य ध्वजवाहक भी थे। सहिष्णुता के एक सच्चे उद्घोषक। एक आकर्षक व्यक्तित्व और भारतीय आध्यात्म के मुखर वक्ता।

स्वामी विवेकानंद ने महज 39 वर्ष के संक्षिप्त जीवन काल में कुछ ऐसा कर दिखाया जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बन पथ-प्रदर्शन का काम करती रहेगी। उन्होंने अपना काम बखूबी निभाया और उस अवस्था (39 वर्ष) में समाधि को प्राप्त हो गए जब हमारे आज के नेता खुद को युवा कहते हैं। मेरे विचार से युवाओं के लिए विवेकानंद से बेहतर कोई रोल मॉडल नहीं हो सकता जिनकी हर पीढ़ी से आह्वान है - उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य हासिल न हो जाए!

(लेखक स्वराज इंडिया (पार्टी) के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष और मुख्य राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।)

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