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आत्मा के योग से राजबल के योग तक

आंगन के पार पूरब में कमरे थे, कमरों के पार दालान। दालान के पार रास्ता था, रास्ते के पार आंवला, कनेर और बेल के पेड़ थे, फिर मेड़ की आड़। आड़ के पार पोखर था जिसके जल में आसमान में उगता गोल और सुर्ख सूरज टलमल करता था। पोखर के पार दादा जी (छोटे बाबा) की कुटी थी जिसमें एक कमरे के ऊपर उजियार कमरा था और नीचे अंधेरा तहखाना। कुटी के पार आमों के बाग थे, बाग के पार दूर तक खेत-सरेह। दूर सरेह के पार बडक़ी नहर की आड़ दिखती थी। लेकिन इस सुदूर विस्तार में हजारों, सैकड़ों या बीसियों तक क्या, इक्का-दुक्का भी समवेत योग नहीं होता था।
आत्मा के योग से राजबल के योग तक

योग का समवेत सार्वजनिक प्रदर्शन अपनी अधेड़ावस्था के पूर्व हमने कभी नहीं देखा। हमारे छोटका बाबा का प्रतिदिन लगभग दो घंटे योग ध्यान अपनी कुटी के अंधेरे तलघर के अपने नितांत निजी एकांत में ही होता था, पता नहीं किस गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यानुभव की तलाश में गहरे उतरता हुआ। हमारे बालपन में कौतूहल जगाता हुआ, लेकिन हमारी आशंकित उपद्रवी बाल उपस्थिति के लिए वर्जित। यह था अपने बचपन में हमारा योग से पहला परिचय।

 

घर के दालान पर या कुटी की चौखट पर छोटका बाबा के पास छठे-छमासे गेरुआ धारी जोगी घूमते-फिरते आ जाते। सारंगी की संगत में निरगुन गाते। कभी कबीर वाणी, कभी गोरखवाणी। इड़ा, पिंगला और सुखमन नाड़ी मींडों में झंकृत करते। राग में कुंडलिनी जगाते। सीधा लेते, और चले जाते कहीं और रमने। बचपन के दूसरे चरण में यह था योग से हमारा दूसरा निजी परिचय। छोटका बाबा के अनुसार बुद्ध सबसे बड़े योगी हुए थे।

 

छोटका बाबा, कनफटे जोगी, इन सबके योग में गठीले बदन की चिंता नहीं थी। इनका चोला बुढ़ापे तक कृश लेकिन मजबूत और लगभग निरोग था। योग में उनकी निजी आध्यात्मिक तलाश अपनी जगह, उस दौरान हमें पहली बार पूर्ण पद्मासन करने पर जरूर बड़ा हर्ष हुआ- दोनों तलुए विपरीत जंघाओं पर, एक हाथ पीछे से पीठ पार घूमकर मुट्ठी में उलटी तरफ के तलुवे का अंगूठा पकड़े हुए, दूसरा हाथ दूसरी तरफ यही क्रिया दुहराता हुआ, और नासिकाग्र पर केंद्र्रित दृष्टि। लगा, हम लचीली और कठिन कसी हुई, किसी भी परिस्थिति में ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। हालांकि एक बार छोटका बाबा ने बताया कि ऐसी चीजें तो सिर्फ  योग के आसन हैं- योगासन। योग तो आसन के बाद शुरू होता है, जैसे आसन लेने के बाद भोजन, वार्तालाप, लेखन, अध्ययन या अन्य कोई क्रिया।

 

ये तो गांव-घर की बातें हुईं। शहर के डेरे पर गेस्ट रूम की चहल-पहल में जरूर कुछ अतिथियों के पास योग के लिए एकांत नहीं था। सबके सामने शीर्षासन, भुजंगासन या अन्य कोई आसन। ये आसन, हमें अब बताया गया, व्यायाम थे। जैसे हमारा दौड़ना या स्कूल में पीटी ड्रिल। शीर्षासन हम कभी नहीं कर पाए, किसी ने कितना भी कहा कि इससे शरीर और दिमाग दोनों दुरुस्त रहेंगे।

 

इसके बाद परिचय हुआ स्वामी विवेकानंद की पुस्तकों के योग से। वेदांत की नई पश्चिमॊन्मुख व्याख्या में ढला। कर्मयोग, ज्ञानयोग आदि में भेद करता उद्बोधनात्मक योग।

 

बहरहाल, किशोरावस्था की दहलीज पर हमारा योग से अगला परिचय हुआ। तब हमारी बाल दृष्टि में बुजुर्ग एक पारिवारिक मित्र ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सान्निध्य में योग सीखा था। उनके लिए योगासन आरोग्य के साथ‚ बल्कि उससे भी ज्यादा‚ गठीले बदन और शारीरिक शक्ति के लिए आवश्यक व्यायाम थे। बाद में यह भी जाना कि उनकी कुछ क्रियाओं के लिए एक आक्रामक शब्द अंगमर्दन का व्यवहार होता है। उन्होंने हमें ऐसे व्यायाम के तौर पर ही योगासन सिखाने की कोशिश की।

 

प्रारंभिक युवावस्था के दौरान छात्र के रूप में पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में आधुनिक योग का एक अन्य परिचय भी मिला। महेश योगी मार्का पश्चिम की लोकप्रिय संस्कृति से ख्याति और धन अर्जित करने वाले भारतीय 'योगा’ गुरुओं का योग। पर यह संस्थानों और कक्षों तक सीमित समवेत योगासनों, सामूहिक ध्यान अभ्यासों और इन्सटेंट वेदांत पदवी दावेदार आध्यात्मिकता के प्रवचनों का 'योगा’ था और कालक्रम में संभ्रांत शहरी भारतीय कक्षों तक भी पहुंचा।

 

फिर विपस्सना, जेन, तिब्बती–वज्रयानी आदि बौद्ध ध्यान पद्धतियों के योग से भी परिचय हुआ जो समवेत होते हुए भी ज्यादा मौन और एकांतिक था।

 

इसके बाद आया बाबा रामदेव का मास मीडिया पोषित योग। दुनियादारी, स्वहितकारी प्रपंच और रुग्ण शहरी जीवनशैली में डूबे‚ भावनात्मक खोखलापन महसूस कर रहे मध्यवर्ग के लिए सरल उपचार और मास प्लैसेबो थेरेपी परोसती दुकानदारी। पारंपरिक आयुर्वेद की नई व्यावसायिक पैकेजिंग के साथ। इसका थोड़ा और संभ्रांत अवतार श्री श्री रविशंकर की आर्ट ऑफ लिविंग में देखने को मिला। विशाल प्रवासी भारतीय समुदाय के कंधों पर सवार मास मीडिया युग के इस योग ने अब तक का सबसे बड़ा बहुराष्ट्रीय बाजार बनाया है।

 

और बीते मास हमने देखा राजपथ का हजारों के जन समूह को एकरूप में ढालता योग। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में पनपे शक्तिशाली राष्ट्र-राज्यों की विशाल परेडों की याद दिलाता हुआ। विश्व युद्धों, शीत युद्धों और अनेक छोटे युद्धों में धकेलने वाली सर्वसत्तावादी रुझानों वाली सरकारों, राजनीति और नेताओं के सार्वजनिक समारोही बल प्रदर्शन का स्मरण कराता हुआ।  लेकिन बहुराष्ट्रीय बाजार निर्माता योग गुरुओं के सान्निध्य में देशभक्ति के प्रमाणपत्र बांटता।

 

यह है मेरे अनुभव में योग की यात्रा।

 

लेकिन निजी आध्यात्मिकता की तलाश करते एकांतिक योग से भी इस देश की भक्ति परंपरा ने जवाब मांग थे:

 

'ऊधो मन तो एकै आही,

सो तो हरि लै संग सिधारे,

जोग सिखावत काही ?’

सूरदास की कृष्ण वियोगिनी गोपियों ने योग की सांत्वना देने आए उद्धव से यह प्रश्न पूछा था। और गंगा के सान्निध्य में विद्यापति ने पूछा था:

 

'की करब जप तप जोग धेयाने,

जनम कृतारथ एकहि स्नाने।’

 

शायद हृदय के आकुल आवेग को निजी एकांतिक योग की संरचनाबद्धता भी बंधनकारी लगी थी।

 

दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चों वाले देश, किसान आत्महत्याओं वाले देश और विभिन्न तथा बहुल आध्यात्मिक मार्गों, आरोग्य विधाओं और व्यायाम पद्धतियों वाले देश में एक बार फिर एकरूपी, एकलराष्ट्रीयतावादी, सर्वसत्तावादी और एकानुरूप बाजार निर्माता योग से हृदय के आकुल आवेग पूछताछ करें तो आश्चर्य क्या ?

 

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