Advertisement

प्रथम दृष्टि: शराबबंदी के सवाल

“शराबबंदी की सफलता महज सियासी या प्रशासनिक उपायों से हासिल नहीं की जा सकती” अर्थशास्त्रियों के...
प्रथम दृष्टि: शराबबंदी के सवाल

“शराबबंदी की सफलता महज सियासी या प्रशासनिक उपायों से हासिल नहीं की जा सकती”

अर्थशास्त्रियों के बीच पुरानी कहावत है कि ‘शराब वित्त मंत्री की सबसे अच्छी दोस्त और स्वास्थ्य मंत्री की सबसे बुरी दुश्मन है।’ सही भी है, क्योंकि यह राजस्व के बड़े स्रोतों में एक है, लेकिन इसके सेवन से बीमारी और मौत के आंकड़े डरावने हैं। इसलिए किसी भी लोक कल्याणकारी राज्य के लिए इस निष्कर्ष पर पहुंचना आसान नहीं है कि इसके सेवन के दुष्परिणामों के मद्देनजर इसकी बिक्री पर प्रतिबंध लगाया जाए या इससे होने वाली आय से जनहित के व्यापक कार्य किए जाएं। अतीत में कई देशों और राज्यों में मद्यनिषेध कानन लागू किए गए, लेकिन अधिकतर मामले में यह कारगर नहीं हो पाया और आखिरकार निरस्त करना पड़ा। पिछले दिनों बिहार के गोपालगंज, बेतिया और मुजफ्फरपुर में जहरीली शराब पीने से तकरीबन 40 लोगों की मृत्यु हुई तो राज्य में 2016 से लागू मद्यनिषेध कानून के औचित्य पर फिर सवाल उठने लगे। विपक्ष का आरोप है कि नीतीश सरकार इसे लागू करने में पूरी तरह नाकाम रही है। उसका कहना है कि प्रतिबंध के बावजूद बिहार में शराब की बिक्री धड़ल्ले से जारी है। सरकार के कुछ सहयोगी दलों के नेता भी इस कानून की प्रासंगिकता पर सवाल उठाने लगे हैं।

लेकिन, नीतीश कुमार ने शराबबंदी कानून वापस लेने की संभावनाओं को सिरे से खारिज किया है। उनका कहना है कि शराबबंदी का कानून विधानमंडल ने सर्वसम्मति से पारित किया था। राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस जैसे दल तब सत्तापक्ष में थे। उन्होंने विपक्ष से पूछा है कि क्या शराबबंदी लागू नहीं होनी चाहिए और क्या वे उनके पक्ष में हैं, जो शराब पीते हैं, गड़बड़ी करते हैं और दो नंबरी धंधा करते हैं? उनकी पार्टी जद-यू ने तो राजद नेता तेजस्वी प्रसाद यादव को अपने चुनावी घोषणापत्र में यह शामिल करने की चुनौती दी है कि वे सत्ता में आने पर शराबबंदी कानून निरस्त कर देंगे। नीतीश का कहना है कि वे बिहार में न शराब आने देंगे, न किसी को पीने देंगे। उनकी सरकार ने इस कानून के सख्ती से पालन के लिए नर्ई कार्ययोजना बनाई है, जिसके तहत जिले के पुलिस अधीक्षक से लेकर थानाध्यक्ष तक की जिम्मेदारियां तय की गई हैं।

इसमें दो मत नहीं कि बिहार जैसे राज्य में शराब के सेवन को गैर-कानूनी घोषित करने और उसके उल्लंघन पर कड़ी सजा के प्रावधान के बावजूद पड़ोसी राज्यों और नेपाल से इसकी तस्करी बदस्तूर जारी है। ऐसे भी आरोप हैं कि राज्य में भले शराब की दुकानों पर ताले लटक रहे हों, शराब की ‘होम डिलीवरी’ आसानी से उपलब्ध है। स्थानीय पुलिस से शराब माफिया की सांठगांठ की खबरें भी सामने आती रहती हैं। इसके बावजूद, नीतीश शराबबंदी को कठोरता से लागू कराने की अपनी प्रतिबद्धता को दोहराते नहीं थकते।

बिहार में शराबबंदी कानून पर अमल करना दुस्साहसिक कदम है। साढ़े चार वर्ष पूर्व जब नीतीश ने इसकी घोषणा की थी, तब सरकार को शराब बिक्री से लगभग साढ़े चार हजार करोड़ रुपये राजस्व की प्राप्ति होती थी, जो किसी भी अविकसित राज्य के लिए बड़ी राशि है। उस समय, अनेक अर्थशास्त्रियों ने न सिर्फ इस कानून के सफल होने पर सवाल उठाए थे, बल्कि राज्य को आर्थिक स्तर पर इसका खामियाजा भुगतने को तैयार रहने के लिए चेताया भी था। लेकिन, नीतीश अपने निर्णय पर अडिग रहे। अगर विपक्ष की मानें तो इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण सामाजिक नहीं, सियासी लगता है। अपने पंद्रह वर्षों के कार्यकाल में उन्होंने महिलाओं के हित में कई कल्याणकारी कार्य किए, चाहे पंचायत चुनावों में 50 प्रतिशत का आरक्षण हो या स्कूली छात्राओं के लिए नि:शुल्क साइकिल और पोशाक वितरण। पिछले कई चुनावों के आंकड़ों के विश्लेषण यह दर्शाते हैं कि ऐसे कदमों से महिलाओं के बीच उनकी लोकप्रियता कई गुना बढ़ी। शराबबंदी इसी कड़ी का अलग कदम था, जिसे राज्य की महिलाओं का व्यापक समर्थन मिला। राजनीतिक दृष्टिकोण से नीतीश के लिए इस समर्थन की कीमत राज्य को मिलने वाले हजारों करोड़ के राजस्व से कहीं ज्यादा है।

शराबबंदी के बावजूद आए दिन तस्करी की खबरें और जहरीली शराब के सेवन से मौत की ्र्र्रघटनाओं के कारण नीतीश के सामने इस कानून को अमलीजामा पहनाने की कठिन चुनौती है। बिहार पुलिस के सीमित संसाधनों की वजह से इसे राज्य के हर कोने में मुस्तैदी से लागू करना टेढ़ी खीर है। जहरीली शराब त्रासदी की हाल की घटनाओं के बाद नीतीश सरकारी तंत्र को दुरुस्त करने की कोशिश अवश्य कर रहे हैं, लेकिन यह सवाल बरकरार है कि क्या उनके कदम प्रभावी सिद्ध होंगे? ऐसे भी उदाहरण मिले हैं जब पुलिस ने इस कानून का बेजा इस्तेमाल लोगों को प्रताडि़त करने के लिए किया है। दरअसल, शराबबंदी की सफलता महज सियासी या प्रशासनिक उपायों से हासिल नहीं की जा सकती। उसे व्यापक स्तर पर समाज की भागीदारी तय करके ही हासिल किया जा सकता है। ऐसा नहीं कि बिहार में उसका सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है, लेकिन जैसा कि हाल की घटनाओं से स्पष्ट है, जनहित के तमाम अच्छे मंसूबों के बावजूद नीतीश फिलहाल उस लक्ष्य से दूर हैं, जिसकी प्राप्ति के लिए उन्होंने यह कानून लागू किया था।

 

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement