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प्रथम दृष्टि: हर सांस है कीमती

“विडंबना यह है कि यह चुनावी मुद्दा नहीं है, इसलिए प्रदूषण से लड़ना सियासी पार्टियों के लिए...
प्रथम दृष्टि: हर सांस है कीमती

“विडंबना यह है कि यह चुनावी मुद्दा नहीं है, इसलिए प्रदूषण से लड़ना सियासी पार्टियों के लिए प्राथमिकता नहीं है”

आपने कभी सुना या पढ़ा कि झुमरीतिलैया के लिए प्रदूषण कितनी बड़ी समस्या है, या झंझारपुर का वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआइ) क्या है, जिससे यह पता लगाया जा सके कि वहां की हवा कितनी शुद्ध है? क्या बलिया, बठिंडा या बुलंदशहर की आबोहवा रहने लायक है? मैं जब भी देश के महानगरों या राज्यों की राजधानियों में प्रदूषण के लगातार बिगड़ते स्तर पर संसद और विधानमंडलों के सदनों, न्यायालयों और मीडिया में या फिर विभिन्न सार्वजनिक मंचों पर नागरिक समाज के प्रबुद्ध प्रतिनिधियों और पर्यावरणविदों की चिंताओं को सुनता हूं, तो ख्याल आता है कि क्या प्रदूषण सिर्फ कुछ बड़े शहरों की समस्या है? यानी वे शहर जो सत्ता के केंद्र होते हैं, जहां नीति-निर्धारकों की फौज ऐसे जटिल मामलों पर चिंतन-मनन करने के लिए मौजूद होती है, जहां हमारे समाज के गणमान्य लोग बसते हैं।

लेकिन, उन शहरों का क्या, जो दूरदराज इलाकों में स्थित हैं? क्या वहां का आकाश अब भी हर दिन नीला दिखता है? क्या वहां की हवा सांस लेने के माकूल है? क्या वहां का एक्यूआइ स्तर आमजन के सुरक्षा के पैमाने पर खरा उतरता है? प्रथम दृष्टि में तो प्रतीत होता है कि ऐसे शहरों ओर कस्बों के लिए ये सवाल बेमानी हैं क्योकि वहां के प्रदूषण स्तर को कम करने के लिए आवश्यक कार्रवाई तो दूर, कोई सोच-विचार तक नहीं होता। ऐसा लगता है, मानो वहां की आबोहवा इतनी दुरुस्त है कि अगर महानगरों के प्रदूषण ने आपके फेफड़ों में जहर भर दिया है तो आप स्वास्थ्य लाभ के लिए वहां जा सकते हैं!

दुर्भाग्यवश, हकीकत इसके बिलकुल विपरीत है। देश के दूरदराज इलाकों में कई तथाकथित छोटे शहरों का प्रदूषण स्तर आज महानगरों से भी बदतर हो गया है। हाल में सामने आए आंकड़े इसे प्रमाणित करते हैं। बक्सर का एक्यूआइ पिछले सप्ताह 427 पाया गया तो बिहारशरीफ का 407, जो मानकों के आधार पर ‘खतरनाक’ श्रेणी में आते हैं। एक दिन तो देश के शीर्ष ग्यारह शहरों में से, जहां वायु की गुणवत्ता का स्तर सबसे खराब था, दस तो बिहार के ही थे। दिल्ली सहित बाकी महानगरों की स्थिति उस दिन कम से कम उनसे बेहतर थी। हाल में, स्विट्जरलैंड-स्थित एक अंतरराष्ट्रीय संस्थान द्वारा जारी विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों की फेहरिस्त में मुजफ्फरपुर और पटना क्रमश: 28वें और 32वें स्थान पर पाए गए।

यह सब अचानक नहीं हुआ। पांच वर्ष पहले भी पटना, मुजफ्फरपुर और गया जैसे शहर डब्लूएचओ द्वारा जारी दुनिया के सबसे प्रदूषित नगरों के सूची में शामिल थे। आज अगर वैश्विक औसत की तुलना में देश में प्रदूषण का स्तर लगभग दस गुना खराब है तो ऐसे शहरों में यह चालीस से पचास गुना बदतर पाया जाता है। इसके बावजूद वहां के प्रदूषण स्तर को कम करने के ईमानदार प्रयास कम ही दिखते हैं। सारा ध्यान महानगरों पर केंद्रित होता है, ताकि वहां की हवा को सांस लेने के लायक तो बनाया जा सके।

महानगरों में तो सरकारों को न्यायाधीशों की फटकार सुननी पड़ती है, हुक्मरानों द्वारा ‘ऑड-इवेन’ जैसे अभिनव फॉर्मूले ईजाद किए जाते हैं, पंद्रह साल पुरानी व्यावसायिक गाड़ियों के प्रचालन पर रोक लगाई जाती है, ‘कारपूल’ के लिए आम लोगों को प्रेरित किया जाता है, पराली जलाने वाले किसानों पर जुर्माना लगाया जाता है और पटाखे फोड़ने वालों को सोशल मीडिया पर सामाजिक दायित्व बोध कराया जाता है। कुछ वीआइपी इलाकों में ही सही, यदा-कदा पानी का छिड़काव कर प्रदूषण स्तर कम करने का प्रयास भी होता है। छोटे शहरों में ऐसा कुछ नहीं होता। प्रतिबंध के बाजवूद डीजल जेनरेटर अनवरत चलते रहते हैं, भवनों और पुल-पुलियों के निर्माण का कार्य खुले में बेरोकटोक चलता रहता है और सीएनजी जैसे स्वच्छ ईंधन या सौर ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देने जैसे वांछित कदम कम ही उठाए जाते हैं।

ऐसा नहीं कि प्रदूषण की देशव्यापी समस्या से निपटने के लिए अतीत में नीतिगत निर्णय नहीं लिए गए। एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम के अंतर्गत ऐसे 122 शहरों को चिन्हित किया गया, जहां का प्रदूषण स्तर राष्ट्रीय औसत से खराब था। दंड के प्रावधान के साथ समय-समय पर कई कानून भी बने लेकिन अधिकतर कागजों की ही शोभा बढ़ाते रहे। परिणामस्वरूप, प्रदूषण की समस्या से निजात पाने के तरीकों और संसाधनों में बड़े और छोटे शहरों के बीच बड़ा फासला दिखता है। आज देश के कई कस्बे हैं, जहां वायु गुणवत्ता की जांच भी नहीं होती, भले ही वहां समस्या महानगरों जैसी ही विकराल हो। इसलिए, आज जरूरत इस बात की है कि इस फासले को फौरन कम करने की ऐसी पहल की जाए, जिसका नतीजा धरातल पर दिखे। विडंबना यह है कि हर आमो-खास के जूझने के बावजूद प्रदूषण न तो सामाजिक मुद्दा बन पाया है, न ही राजनैतिक। चुनावी मुद्दा बनने की बात तो दूर है। यही वजह है कि प्रदूषण से लड़ना सियासी पार्टियों के लिए प्राथमिकता नहीं है। लेकिन अब, जब प्रदूषण का स्तर छोटे शहरों में खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है, उसकी और अनदेखी करना ऐसे खतरे को दावत देना है, जिसकी कीमत चुकाने की कल्पना शायद हम अभी नहीं कर पा रहे हैं।

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