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प्रथम दृष्टि/ परीक्षा घोटाला: जब मेधा बेमानी लगे

“हर वर्ष दस छात्र भी गैर-कानूनी तरीके से आइआइटी जैसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में दाखिला लेने...
प्रथम दृष्टि/ परीक्षा घोटाला: जब मेधा बेमानी लगे

“हर वर्ष दस छात्र भी गैर-कानूनी तरीके से आइआइटी जैसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में दाखिला लेने या सरकारी नौकरियां पाने में सफल होते हैं”

एक पुरानी कहावत है, जीवन में परिवर्तन ही शाश्वत है। लेकिन, कभी-कभी लगता है मानो कुछ चीजें कभी बदलती ही नहीं। देश के शीर्ष मेडिकल और इंजीनियरिंग संस्थानों में दाखिले के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षाओं को ही लीजिये। हर साल, लाखों बच्चे आंखों में न सिर्फ अपने, बल्कि माता-पिता के भी सपने संजोये जी-तोड़ मेहनत करते हैं कि किसी प्रतिष्ठित आइआइटी या मेडिकल कॉलेज में उनका नामांकन हो जाए। देश में 20 वर्ष से कम की आयु में इन प्रतियोगिता परीक्षाओं में सफलता पाना बड़ी उपलब्धि समझी जाती है। बेशक, अगर आप सचिन तेंडुलकर हैं, तो आप 16 साल में भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल के मैदान में अपने जौहर दिखा कर ख्यति प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन अधिकतर मध्यम-वर्गीय भारतीय परिवारों में, जहां ‘खेलोगे कूदोगे होगे खराब’ वाली मानसिकता दशकों से रची-बसी है, इंजीनियर या डॉक्टर बनने के लिए किसी नामी-गिरामी कॉलेज में दाखिला लेना कामयाबी की सीढ़ी के पहले पायदान पर चढ़ने के सामान है। हो भी क्यों नहीं? चार-पांच साल बाद जब ये छात्र अपने-अपने संस्थानों से डिग्री लेकर निकलेंगे, तब संभव है, किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का मोटी पैकेज वाला ऑफर लेटर उनकी जेब में होगा।

डिजिटल युग में सब कुछ वैसा ही है। इस दौरान और कुछ नहीं बदला तो यह कि इन संस्थानों में धांधली करवा कर दाखिला दिलवाने वाले गिरोह वैसे ही फल-फूल रहे हैं, जैसे दो दशक पहले थे। ये वही गिरोह हैं, जो कभी प्रश्नपत्र लीक करवा के, कभी छद्म उम्मीदवार से इम्तिहान दिलवाकर, कभी अधिकारियों को मुंहमांगी रिश्वत देकर, तो कभी पूरे सिस्टम को हैक करके पूरी परीक्षा प्रणाली का बंटाधार करते रहे हैं।

हाल ही में सीबीआइ ने जेईई (मेन) परीक्षा में पैसे लेकर दाखिला करवाने वाले एक शातिर गिरोह का पर्दाफाश किया, जो आइआइटी में प्रवेश करने का पहला पड़ाव है। आरोप लगे कि कुछ लोग एनआइटी में पंद्रह लाख रुपये लेकर छात्रों का नामांकन कराने का देशव्यापी रैकेट चला रहे हैं। फिर यह खबर भी आई कि देश के कई हिस्सों में मेडिकल कॉलेजों की प्रवेश परीक्षा, नीट के दौरान भी कई ‘मुन्ना भाइयों’ की गिरफ्तारियां हुईं। इन वर्षों में कुछ भी तो नहीं बदला। सत्रह वर्ष पूर्व ऐसे ही एक गिरोह का सरगना बिहार का रंजीत डॉन था, आज कोई और है। इंटरनेट क्रांति के बाद छात्रों के लिए परीक्षा देने की तकनीक भले ही बदल गई हो, लेकिन ‘मुन्ना भाइयों’ और उनके संरक्षक ‘बेरोजगार’ नहीं हुए हैं।

2003 में जब रंजीत डॉन को कैट, मेडिकल और इंजीनियरिंग की परीक्षाओं में बड़े पैमाने पर धांधली करवाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया तो यह उम्मीद बंधी थी तो भविष्य में होने वाली प्रतियोगिता परीक्षाएं साफ-सुथरी और पारदर्शी रूप से कराई जाएंगी। लेकिन, अगले ही साल पता चला कि रंजीत डॉन तो मात्र एक गिरोह का सरगना था। उसके जैसे न जाने कितने शातिर थे। चाहे मध्य प्रदेश का व्यापम घोटाला हो या बिहार का टॉपर घोटाला, ऐसे गिरोहों की पैठ सरकारी विभागों से लेकर निजी संस्थानों तक हो गई।

जैसा कि आउटलुक की इस आवरण कथा में जानकार बताते हैं, स्मार्ट फोन के युग में इसका खतरा कम नहीं होने वाला है। यह बढ़ने वाला ही है, क्योंकि जितनी जल्दी नई तकनीक का इस्तेमाल घोटालों को रोकने के लिए किया जाता है, उससे जल्दी ऐसे गिरोह उसका ‘उपाय’ ढूंढ लेते हैं। यह खतरा सिर्फ प्रतियोगिता परीक्षाओं के संचालन तक सीमित नहीं हैं। चाहे वह आपके बैंक एकाउंट में रखी गाढ़ी कमाई हो या सोशल मीडिया में डाली आपकी तस्वीर, साइबर संसार के धूर्तों की नजर सब पर है।

इन घोटालों से लगता है मानो प्रतिभा का मोल नहीं रहा और मेधा बेमानी हो गई। जरा सोचिये, हर वर्ष दस छात्र भी गैर-कानूनी तरीके से आइआइटी जैसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में दाखिला लेने या सरकारी नौकरियां पाने में सफल होते हैं, तो यह उन दस मेधावी अभ्यर्थियों के सपनों को रौंदने के समान है, जो उसके वाजिब हकदार थे। कोई नहीं जानता की इस हकमारी का उनकी जिंदगी पर क्या असर होता होगा? कितने ऐसे छात्र होंगे जिन्हें घोटालों की खबरों को सुनने के बाद उम्मीद की किरणें दिखनी बंद हो गई होंगी? क्या उनमें से यह किसी के लिए सफलता का आखिरी अवसर रहा होगा, जिसे उसने बगैर अपनी गलती के गंवा दिया? उनमें से कितने होंगे, जिन्होंने अपनी कामयाबी के छीने जाने के बाद भी अपना हौसला बुलंद रख कर अगले साल सफलता का परचम लहराया होगा? ऐसे सवालों का उत्तर नहीं दिया जा सकता। 

आज हर सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों का दायित्व है कि वे कोई ऐसी व्यवस्था अपनाएं, जिससे धांधलियों पर हमेशा के लिए अंकुश लग सके। इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों या कहीं और दाखिला सिर्फ और सिर्फ मेधा लिस्ट पर हो। उसमें कोई ऐसा न हो जिसने सफलता अपनी प्रतिभा के बल पर नहीं, पैसे के बल पर पाई हो। हर परीक्षार्थी अपने देश और समाज से इतनी अपेक्षा तो कर ही सकता है। और कुछ बदले न बदले, इन मुन्ना भाइयों की दुकानों पर ताले लटकने ही चाहिए।

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